तमिलनाडु जैसे अगड़े राज्य में भी महिलाएं दहेज प्रथा का शिकार कैसे बन रहीं?

दहेज की वजह से देश में हर रोज लगभग 18 महिलाओं को जान गंवानी पड़ रही है और इसकी सबसे ताजा खबरें तमिलनाडु से सामने आई हैं

सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर

यह बीते महीने के आखिरी दिनों की बात है जब तमिलनाडु के तिरुपुर में एक हाईवे पर एक कार खड़ी मिली. इसमें 27 वर्षीय रिधान्या की लाश थी. तीन महीने पहले ही उनकी शादी हुई थी.  

जांच में पता चला कि रिधान्या की मौत जहर खाने की वजह से हुई थी. जहर खाने से पहले उन्होंने अपने पिता को ऑडियो संदेश भेजे थे. इनमें उन्होंने बार-बार कहा था कि वे अब और प्रताड़ना नहीं सह सकतीं.

कथित तौर पर रिधान्या के परिवार ने शादी के लिए 100 सोने के सिक्के, 70 लाख रुपये की लग्जरी कार अपने होने वाले दामाद को दहेज में दी थी. इतना ही नहीं रिधान्या की शादी में करीब 2.5 करोड़ रुपये से अधिक खर्च करके भव्य शादी समारोह का आयोजन किया गया था.

इन सबके बावजूद रिधान्या की मौत की जो वजह बताई जा रही है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि यह सबकुछ उसके ससुराल वालों के लिए पर्याप्त नहीं था.

इस घटना के कुछ ही दिनों बाद चेन्नई के पास पोन्नेरी में एक और नवविवाहिता महिला लोकेश्वरी ने आत्महत्या कर ली. 22 वर्षीय लोकेश्वरी के घरवालों ने उसके पति ने कथित तौर पर और अधिक सोना और घरेलू सामान की मांग की थी. यह एक सप्ताह में तमिलनाडु में दहेज प्रथा से जुड़े हत्या का दूसरा बड़ा मामला था.

पिछले कुछ सालों से राज्य में दहेज से जुड़ी आत्महत्याओं और हत्याओं की घटनाओं की श्रृंखला में ये मौतें सबसे ताजा उदाहरण हैं. शहरों में युवा पेशेवर हों या गांवों में दिहाड़ी करने वाले मजदूर, समाज के हर वर्ग में चिंताजनक रूप से यह पैटर्न एक जैसा देखने को मिल रहा है.

कम उम्र में शादी, दहेज की बढ़ती मांग, भावनात्मक और शारीरिक शोषण आखिरकार जानलेवा हिंसा तक पहुंच जा रहा है. इसी साल मई में कांचीपुरम जिले के मणिमंगलम से एक और हैरान करने वाली घटना सामने आई थी. इस घटना में 23 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर की मौत उंचाई से गिरने की वजह से बताई गई थी. हालांकि, पोस्टमार्टम रिपोर्ट में कुछ और ही खुलासा हुआ था.

जांच में पता चला कि उस लड़की की हत्या की गई थी. बाद में उसके पति को गिरफ्तार कर लिया गया और जांचकर्ताओं ने दहेज उत्पीड़न को इसका मुख्य कारण बताया था. पिछले साल कन्याकुमारी की 24 वर्षीय श्रुति बाबू ने भी इसी तरह के दुर्व्यवहार के बाद आत्महत्या कर ली थी. कुछ दिनों बाद उसकी सास ने भी आत्महत्या कर ली.

इन सभी घटनाओं में नाम और जिले अलग-अलग हैं, लेकिन कहानियां एक ही तरह की जानी-पहचानी पटकथा लगती हैं. इरोड की 29 वर्षीया पूरनी को उसके पति ने बार-बार दहेज की मांग करने के लिए मजबूर किया. आखिरकार कथित तौर पर पूरनी के पति ने उसे गला घोंटकर मार डाला.

एक अन्य मामले में कुड्डालोर की 27 वर्षीया रोजा की हत्या कर दी गई. घटना की जांच के बाद पुलिस ने उसके पति और सास को गिरफ्तार कर लिया. पुदुकोट्टई की रहने वाली 22 वर्षीया नागेश्वरी सात महीने की गर्भवती थी. उसने पति और ससुराल के लोगों द्वारा लगातार दुर्व्यवहार का सामना करने के बाद जहर खा लिया.

हर मामले में लड़की के ससुराल वालों को अच्छा-खासा दहेज दिया गया था, लेकिन इसके बावजूद भी उन लड़कियों का दहेज के नाम पर ही उत्पीड़न हुआ.

तमिलनाडु में दहेज हत्या के आधिकारिक आंकड़े तुलनात्मक रूप से कम हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार 2022 में 29 महिलाओं की मौत दहेज प्रथा से जुड़ी घटनाओं में हुई है. हालांकि, सामाजिक कार्यकर्ता चेतावनी देते हैं कि ये आंकड़े बहुत कम है. उनका कहना है कि इस तरह की घटनाओं में कलंक, डर या परिवार के नाम की रक्षा के दबाव के कारण अनगिनत मामले दर्ज नहीं किए जाते.

महिला अधिकार कार्यकर्ता बीएस अजीता का कहना है कि घरेलू हिंसा और दहेज को खतरनाक तरीके से “सांस्कृतिक रूप में देखा जा रहा है.” वे कहती हैं, “घरेलू हिंसा हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गई है, इसलिए नहीं कि यह स्वीकार्य है बल्कि इसलिए कि इसे सामान्य बना दिया गया है.”

महिला अधिकार कार्यकर्ता बीएस अजीता आगे कहती हैं, "जब कोई पुरुष अपनी पत्नी के रंग-रूप पर लगातार ऐसी छींटाकशी करता है जिससे वह लगातार शर्मिंदगी महसूस करे या उससे कहे कि वह तभी अच्छी पत्नी बनेगी जब वह अपने मायके को भूल जाएगी, तो ये महज ओछी टिप्पणियां नहीं होतीं. ये उन तौर-तरीकों को दर्शाती हैं जो महिलाओं को विवाह में स्थायी रूप से दोयम दर्जे का बताती है. यहां तक ​​कि माता-पिता भी कहते हैं कि यह सामान्य है. एडजस्ट करो."  

अजीता के मुताबिक, "परिवार का बोझ हमेशा महिला पर ही पड़ता है. परिवार को जीवित रखने के लिए महिला को ही झुकना, टूटना और सहना पड़ता है. मैंने माता-पिता को अपनी बेटियों से कहते सुना है, अगर तुम्हें मरना भी है तो अपने पति के घर में मरो. परिवार को मत तोड़ो.”

आज के दौर में जिस तरह से इस दहेज कुप्रथा को अपनाया जाता है उस लिहाज से 1961 का दहेज विरोधी कानून मेल नहीं खाता. अजीता के मुताबिक आज के समय में एक भव्य शादी को दहेज नहीं माना जाता. दूल्हे के परिवार की अपेक्षाओं के अनुसार दिए गए जेवरों को यह कहकर उचित ठहराया जाता है कि यह दुल्हन के लिए है. जबकि सच ये है कि यह भी दहेज ही है.

अब दहेज का स्वरूप बदल गया है, इसलिए हम दिखावा करते हैं कि इसका अस्तित्व ही नहीं है. यह हर शादी की बातचीत में शामिल है और वर्ग के हिसाब से चुपचाप तय किया जाता है.

तमिलनाडु की स्थिति राष्ट्रीय संकट का एक छोटा सा उदाहरण है. NCRB के आंकड़ों के मुताबिक, 2022 में देशभर में दहेज से संबंधित 6,450 मौतें दर्ज की गईं. दहेज की वजह से देश में हर रोज लगभग 18 महिलाओं को जान गंवानी पड़ रही है.  उत्तर प्रदेश 2,218 मौतों के साथ सूची में सबसे ऊपर है, उसके बाद बिहार (1,057), मध्य प्रदेश (518) और पश्चिम बंगाल (472) का स्थान है. उसी वर्ष, दहेज निषेध अधिनियम के तहत 13,479 मामले दर्ज किए गए.

कागजों पर दक्षिणी राज्यों की स्थिति बेहतर है. तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और तेलंगाना ने सामूहिक रूप से 2022 में 442 दहेज हत्याओं की सूचना दी, लेकिन इन राज्यों में भी, संख्याएं जितना बताती हैं, उससे कहीं ज्यादा छिपाती हैं.

केरल और तमिलनाडु में, जहां महिला साक्षरता अपेक्षाकृत अधिक है और संस्थाएं मजबूत हैं, फिर भी यहां दहेज से जुड़ी आत्महत्याएं और हत्याएं नियमित रूप से होती हैं. दहेज के मामलों में सजा की दर निराशाजनक रूप से कम और लगभग 30 फीसद है.

अभिनेत्री और राजनीतिक कार्यकर्ता खुशबू कहती हैं, "दहेज गैरकानूनी है और माता-पिता को यह समझना चाहिए. अगर माता-पिता वाकई अपनी बेटी को कुछ देना चाहते हैं, तो उन्हें पैसे सीधे उसके बैंक खाते में डालने चाहिए. सोने या कार के रूप में उपहार कहकर दहेज देना सही नहीं है. दूल्हे को सबसे बड़ा तोहफा जो वे दे सकते हैं, वह है उनकी बेटी.”

खुशबू आगे बताती हैं, “अगर उन्हें लगता भी है कि पर्याप्त दहेज न लाने के कारण उसके साथ बुरा व्यवहार किया जा सकता है, तो उन्हें अपनी बेटी की शादी बिल्कुल नहीं करनी चाहिए. इससे अच्छा तो उस लड़की के लिए यह है कि वह घर पर अकेली रह ले. माता-पिता को सामाजिक दबाव के आगे झुकने के लिए क्यों मजबूर होना चाहिए?”

भव्य शादियों में सोने के सार्वजनिक प्रदर्शन का जश्न मनाया जाता है. इसकी बुराई नहीं की जाती है. इस तरह एक ऐसी संस्कृति को बढ़ावा मिलता है, जहां महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे धन के साथ आएं. जहां अपेक्षाओं को पूरा न करना घातक हो सकता है. रिधान्या के मामले में उसके परिवार की अत्यधिक उदारता भी अपनी बेटी की जान नहीं बचा सका.  

तमिलनाडु में दहेज से जुड़े केस में अदालतो द्वारा कुछ कठोर सजाएं सुनाई गई हैं. जैसे कि हाल ही में उच्च न्यायालय द्वारा 2000 के दहेज मामले में 10 साल की सजा को बरकरार रखने का फैसला किया गया. हालांकि, इस तरह की खबरें कम और दुर्लभ ही हैं. परिवार न्याय के लिए सालों तक लड़ते रहते हैं, न केवल एक कमजोर कानूनी व्यवस्था का सामना करते हैं, बल्कि सामाजिक कलंक और उदासीनता का भी सामना करते हैं.

कानूनी सुधार के  दशकों बीतने के बावजूद दहेज संबंधी हिंसा का जारी रहना बताता है कि अभी इस दिशा में और कठोर कानूनी बदलावों की दरकार है. इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए कानूनी तंत्र को और अधिक गंभीर और तेज होने की जरूरत है.

जानकारों का कहना है कि दहेज हत्या के मामलों में समयबद्ध सुनवाई और जोखिम में पड़ी महिलाओं को बचाने के लिए सामुदायिक स्तर पर कड़ी निगरानी की तत्काल आवश्यकता है.  लैंगिक समानता को स्कूलों, कॉलेजों और सार्वजनिक चर्चाओं में कम उम्र से ही सिखाई जानी चाहिए. सामाजिक प्रतिबंधों से दहेज लेने वालों को शर्म आनी चाहिए, न कि उन महिलाओं को जो इसके खिलाफ आवाज उठाती हैं.

अजीता कहती हैं, "हमारे समाज का पूरा ढांचा परिवार में महिलाओं की पीड़ा को कमतर आंकता है. जैसे ही कोई महिला अपने अधिकारों का दावा करती है, उसे परिवार की पवित्रता को खतरे में डालने का दोषी ठहराया जाता है. यहां एक तरह की चुप्पी की संस्कृति है, जिसे महसूस किया जाता है, बोला नहीं जाता. यह चुप्पी हिंसा को बढ़ावा देती है. वह बताती हैं कि राज्य को और अधिक मुखर होना चाहिए."

महिला अधिकार कार्यकर्ता बीएस अजीता के मुताबिक, "हमारे पास केवल अचानक प्रतिक्रिया होती है. कोई भी राजनेता किसी भी मंच पर दहेज के बारे में नहीं बोलता. दो दशक पहले, हमारे पास हर मंच पर दहेज विरोधी नारे लगाए जाते थे. आज ऐसा लगता है कि दहेज का अस्तित्व ही नहीं है. सच्चाई यह है कि समाज में दहेज का स्वरूप बदलने के बाद हमने इसके प्रति अपनी अनभिज्ञता का दिखावा किया."

तमिलनाडु ने 1989 में एक प्रगतिशील कदम उठाया गया था, जब तत्कालीन मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि ने हिंदू उत्तराधिकार (तमिलनाडु संशोधन) अधिनियम, 1989 पारित किया था, ताकि बेटियों को समान उत्तराधिकार अधिकार दिए जा सकें. यह सुप्रीम कोर्ट के 2020 के फैसले से दशकों पहले तमिलनाडु में कानूनी रूप ले चुका था. हालांकि, जमीनी स्तर पर बहुत कम बदलाव हुआ है.

सामाजिक दबाव, पितृसत्तात्मक मानदंड और पारिवारिक संबंधों में दरार पड़ने का डर ज्यादातर महिलाओं को अपने अधिकारों का दावा करने से रोकता है. कई मामलों में दहेज को विरासत के विकल्प के रूप में देखा जाता है, जो उसी प्रथा को मजबूत करता है जिसे कानून खत्म करना चाहता था.

जो सवाल अभी भी बना हुआ है, वह बेहद सरल है. दहेज प्रथा के सामाजिक रूप से अस्वीकार्य होने से पहले कितनी और महिलाओं को मरना होगा. केवल भाषण के बजाय देश के लोगों के व्यवहार में आने तक भारत भर में महिलाओं को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी, कई मामलों में तो अपनी जान देकर.

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