बलि प्रथा के नाम पर मिथिला में शाक्त और वैष्णवों के बीच टकराव बढ़ा
इन दिनों बिहार के मिथिला में एक मंदिर में बलि प्रथा को लेकर घमासान मचा है. बलि प्रथा पर रोक के फैसले का शाक्त धर्मावलंबी विरोध कर रहे हैं और इसे वैष्णव परंपरा के आधिपत्य का प्रतीक बता रहे हैं. इस बात को लेकर लगातार आंदोलन हो रहे हैं. क्या है पूरी कहानी?

इन दिनों बिहार में गंगा और गंडक नदी के संगम पर हिंदू धर्म के दो धड़े शैव और वैष्णव संप्रदाय के मिलन की याद में एक महीने तक चलने वाला विशाल सोनपुर मेला आयोजित हो रहा है. वहीं इस मेले से 125 किमी दूर दरभंगा शहर में शाक्त और वैष्णव संप्रदाय के बीच धार्मिक परंपराओं को लेकर भीषण विवाद भी चल रहा है.
इस विवाद का केंद्र यह है कि दरभंगा के प्रसिद्ध श्यामा मंदिर में पशुओं की बलि हो या न हो. श्यामा मंदिर न्यास परिषद ने बलि पर प्रतिबंध लगा दिया है, जबकि इस इलाके के शाक्त धर्मावलंबी यह कहते हुए इस फैसले का विरोध कर रहे हैं कि यह मंदिर शाक्त और तांत्रिक परंपरा का है. यहां स्थापित देवी काली को बलि का प्रसाद चढ़ाना हमारी परंपरा का हिस्सा है और इसे रोक लगाने का अधिकार न्यास परिषद को नहीं है.
इस फैसले के विरोध में दरभंगा शहर में लगातार आंदोलन हो रहे हैं, रोज न्यास परिषद का पुतला जलाया जा रहा है. रविवार, 17 दिसंबर 2023 को तो इन प्रदर्शनकारियों की वैष्णव धर्मावलंबी इस्कॉन संप्रदाय के लोगों से भिड़ंत भी हो गई. आंदोलनकारी समिति ने फैसला लिया है कि बिहार राज्य धार्मिक न्यास बोर्ड 25 दिसंबर से पहले इस फैसले को वापस ले और श्यामा मंदिर न्यास बोर्ड को भंग करे, नहीं तो 25 दिसबंर को आसपास के इलाकों से बड़ी संख्या में शाक्त धर्मावलंबी जुटेंगे और इस फैसले के विरोध में मंदिर परिषद में बड़ी संख्या में बलि दी जाएंगी.
यह सारा विवाद तब शुरू हुआ, जब 13 दिसंबर को श्यामा मंदिर न्यास परिषद की तरफ से यह निर्देश जारी किया गया कि श्यामा मंदिर में अब कोई बलि नहीं होगी. इसलिए बलि के लिए निर्धारित 500 रुपये की फीस भी नहीं ली जाएगी. मंदिर में बलि वाली जगह को मिट्टी से ढक दिया गया और बलि देने वाले निर्देश पर कागज की पट्टी चिपका दी गयी. कुछ प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि इस अवधि में बलि प्रदान के लिए आने वाले श्रद्धालुओं को भी वापस लौटाया गया.
इसके बाद जब ये खबरें मीडिया में आने लगीं तो लोगों की नाराजगी बढ़ने लगी. दरभंगा और मिथिला के दूसरे इलाकों के शाक्त धर्मावलंबी लगातार सोशल मीडिया पर पोस्ट करने लगे और इस फैसले का विरोध जताने लगे. मामला गरमाने लगा तो यह विरोध जमीन पर भी उतरने लगा. 15 दिसंबर से ही आंदोलन शुरू हो गया और श्यामा मंदिर न्यास परिषद का पुतला दहन शुरू हो गया.
इस आंदोलन से जुड़े आदित्य नारायण मन्ना कहते हैं, “श्यामा मंदिर में तंत्र विधि से पूजा पाठ की पद्धति है. मां श्यामा का यह मंदिर चिता भूमि पर बना है. यह दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह की चिता पर है. वे खुद बड़े तंत्र उपासक थे. 1933 से जब से यह मंदिर बना है, यहां भगवती को बलि दी जाती है. ऐसे में श्यामा मंदिर न्यास परिषद को यह अधिकार नहीं है कि वह इस परंपरा को रोक दे. यह सनातन धर्म पर हमला है, हम इसे कतई बर्दास्त नहीं करेंगे. इस फैसले के खिलाफ चरणबद्ध आंदोलन किया जा रहा है. अगर यह आदेश वापस नहीं लिया गया तो 25 दिसंबर को मंदिर परिसर में इस फैसले के विरुद्ध सामूहिक बलि प्रदान की जाएगी.”
इस आंदोलन के लिए एक समिति भी बन गयी है. मिथिला संस्कृति संरक्षक समिति के नाम से बनी इस समिति में मिथिला की अमूमन सभी पार्टियों और सभी विचारों को मानने वाले लोग शामिल बताये जाते हैं. मिथिला के मुद्दों पर मुखर रहने वाला छात्र संगठन मिथिला स्टूडेंट यूनियन भी इस समिति का हिस्सा है, उसके अध्यक्ष आदित्य मोहन कहते हैं, "मैं शाकाहारी हूं. मगर यह मानता हूं कि अगर शाक्त और तंत्र परंपरा में बलि प्रदान की व्यवस्था है तो उसे जारी रखना चाहिए. मंदिर न्यास को इसमें फेरबदल का अधिकार नहीं है. और वैसे भी न्यास परिषद को मंदिर की व्यवस्था और उसके प्रबंधन का अधिकार होता है, परंपरा में फेरबदल का नहीं.”
15 दिसंबर से दरभंगा में आंदोलनकारी लगातार बिहार राज्य न्यास परिषद के अध्यक्ष अखिलेश जैन का पुतला दहन कर रहे हैं क्योंकि श्यामा मंदिर न्यास बोर्ड ने यह फैसला उन्हीं के 11 अक्तूबर के पत्र के आधार पर लिया गया है. इस पत्र में उन्होंने लिखा है कि ऐसा कोई काम मंदिर के न्यासधारी, सेवायत, महंत या न्यास समिति के सदस्यों द्वारा नहीं किया जाना चाहिए जिससे पशु क्रूरता या वध को बढ़ावा मिलता हो. यह पत्र उन्होंने तब लिखा जब श्यामा मंदिर न्यास बोर्ड के उपाध्यक्ष कमलाकांत झा ने उन्हें सूचित किया कि इस मंदिर में बलि प्रथा के लिए एक चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी की नियुक्ति की गयी है.
हालांकि कमलाकांत झा ने मीडिया को बताया कि उन्होंने ऐसा कोई पत्र परिषद को नहीं लिखा है. ऐसा माना जा रहा है कि यह पत्र संभवतः मंदिर के दूसरे उपाध्यक्ष जयशंकर झा ने लिखा है, जो मंदिर में बलि प्रथा के विरोधी रहे हैं.
इंडिया टुडे से बातचीत में जयशंकर झा कहते हैं, “यह सच है कि इस मंदिर में बलि प्रदान की पुरानी परंपरा है और पहले इसे प्रोत्साहित भी किया जाता था. मगर 2007 में जब इस मंदिर का पहली दफा न्यास बना तभी से बलि प्रथा पर रोक की बात होने लगी थी. उस वक्त बिहार राज्य मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष रहे जस्टिस एसएन झा इस न्यास परिषद के अध्यक्ष थे, मैं संस्थापक सदस्य था. तभी उन्होंने यह प्रस्ताव रखा था. उस वक्त के डीएम संतोष मल्ल ने भी सहमति जतायी थी. मगर तब मैंने कहा था, अचानक इसे बंद कराना ठीक नहीं होगा. इसलिए हमलोगों ने मंदिर में बलि प्रदान के लिए 500 रुपये की फीस का निर्धारण कर दिया. इससे यहां बलिप्रदान काफी कम हुआ. हालांकि अभी भी साल में सात से आठ सौ बकरों की बलि होती ही है. खासकर दुर्गा पूजा और काली पूजा में.”
वे आगे यह भी बताते हैं, “2021 में जब इस मंदिर के नये और वर्तमान न्यास परिषद का गठन हुआ तो यह शर्त बिहार राज्य न्यास परिषद की तरफ से रखी गयी कि अगर मंदिर में बलि प्रथा का पालन होता है, तो इसके लिए न्यास परिषद के लोग जिम्मेदार होंगे. 11 अक्तूबर, 2023 को इस बारे में रिमांडर भी भेजा गया. इसके बावजूद मंदिर में बलि प्रथा होती रही. इस साल दो नवंबर से शुरू नौ दिवसीय नवाह के मौके पर हो रहे एक कार्यक्रम के दौरान एक बकरा गले में माला पहले मंच पर आ गया और हम पदाधिकारियों के आसपास कातर निगाह से किसी फरियादी की तरह भटकता रहा, जैसे वह हमसे कोई गुहार लगा रहा हो. इसके बाद मंच से मैंने कहा कि मां श्यामा खुद कहती हैं, मैं समस्त प्राणियों की चेतना में निवास करती हूं. उसी माता ने इस बकरी को भेजा है. यह देखने कि हमारे हृदय में कितनी करुणा है. फिर मैंने अनुरोध किया, बलि रोकने पर विचार करें. उस रोज वहां मौजूद जिलाधिकारी राजीव रौशन जो इस मंदिर के पदेन सचिव हैं, ने भी न्यास परिषद के उस पत्र की याद दिलायी. उसी के आलोक में यह फैसला लिया गया है.”
वे आगे यह भी कहते हैं, “हालांकि हमने यह भी सोचा है कि अगर कोई व्यक्ति खुद आकर यहां बलि देना चाहे तो हम उसे रोकेंगे नहीं. हां, उसे बलि देने वाला खुद लाना होगा. अब हमारा कोई स्टाफ बलि प्रदान नहीं करेगा. न सहयोग करेगा.”
यह पूछे जाने पर कि न्यास ने बलि प्रदान की जगह पर मिट्टी भरवा दी है, वे कहते हैं, “इसे हटाया जा सकता है. यह बड़ा मसला नहीं है.”
इस फैसले का विरोध करने वालों का एक आरोप यह भी है कि इस शाक्त और तांत्रिक मंदिर न्यास में वैष्णव धर्मावलंबी ज्यादा हो गये हैं, इसलिए इस तरह के फैसले हो रहे हैं. सोशल मीडिया पर दरभंगा राज और मिथिला की परंपरा पर लगातार लिखने वाली दरभंगा राज से जुड़ीं कुमुद सिंह कहती हैं, “जयशंकर झा खुद वैष्णव हैं, विधायक संजय सारावगी भी वैष्णव हैं जबकि यह मंदिर शाक्त परंपरा का है. जो बिल्कुल अलग परंपरा है. बिहार राज्य न्यास परिषद के अध्यक्ष भी जैन धर्मावलंबी हैं, उन्हें शाक्त संप्रदाय के बारे में क्या जानकारी है? मैंने देखा है कि हाल के वर्षों में मिथिला में वैष्णव परंपरा को बढ़ावा देने के अभियान चल रहे हैं. इसका कोई न कोई राजनीतिक मकसद तो जरूर है. यह सिर्फ इकलौता मामला नहीं है. सनातन धर्म में सिर्फ वैष्णव परंपरा ही नहीं है, यहां शैव और शाक्त परंपराएं भी हैं. जबकि आजकल वैष्णव परंपरा को आगे बढ़ाकर दूसरी तमाम परंपराओं को खत्म करने की साजिश हो रही है.” आंदोलनकारी इस न्यास परिषद को भंग कर नए न्यास परिषद का गठन की मांग कर रहे हैं.
इस बीच मिथिला के धर्मशास्त्र के ज्ञाता भी इस फैसले का विरोध कर रहे हैं. पटना के महावीर मंदिर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका धर्मायण के संपादक भवनाथ झा कहते हैं, “जिस मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा जिस पूजा पद्धति से हुई, उसकी वही पूजा पद्धति हमेशा रहती है. उसमें किसी तरह का परिवर्तन उचित नहीं.”
संस्कृत विवि, दरभंगा के कुलपित शशिनाथ झा कहते हैं, “धर्म के लिए शास्त्र प्रमाण होता है. धर्म में अनेक संप्रदाय और पंथ होते हैं. उसमें वैष्णव भी है, शाक्त भी हैं और तांत्रिक भी. तांत्रिक परंपरा में बलि का विधान है. वेद में यह जरूर कहा गया है कि किसी जीव को मारें नहीं, मगर यह भी कहा गया है कि यज्ञ के अवसर पर इसमें छूट है. यहां जो निषेध किया गया है, उसमें किस शास्त्र का निर्देश लिया गया है? वह तो अपने मन से किया गया है. हर परंपरा का निर्वाह किया जाना चाहिए, उसमें दखल नहीं दिया जाना चाहिए. यह परम अनुचित है.”
हालांकि इन तर्कों के विरोध में जयशंकर झा कहते हैं, “ऐसा नहीं कि देवी बलि ही मांगती हैं. देवी शाकंभरी भी हैं, विष्णुप्रिया भी हैं, वैष्णवी भी हैं. हम अहिंसक बलि को बढ़ावा देना चाहते हैं. पहले तो देवी को नरबलि भी दी जाती थी, बड़े पशुओं की बलि भी दी जाती थी. वह सब धीरे-धीरे बंद हुआ. बलि की परंपरा में कुम्हर(कोहड़ा) और नारियल की बलि भी दी जाती है. हमें अब उस तरफ लौटना चाहिए. यह सुधार की अनवरत प्रक्रिया है. हमें इसे स्वीकार करना चाहिए.”
दिलचस्प है कि इसी बिहार में यज्ञ बलि के विरोध में ढाई हजार साल पहले बौद्ध और जैन जैसे अहिंसक धर्मों का उदय और विकास हुआ था. मगर बलि जैसी परंपरा आज भी मिथिला और बंगाल के कई इलाकों में है. हालांकि कई लोग यह भी मानते हैं कि बलि प्रथा पर रोक लगाने की यह कोशिशें सनातन धर्म को एकरूप करने और इस पर वैष्णव धर्म का प्रभुत्व स्थापित करने की एक राजनीतिक कोशिश है. इस बार इस टकराव का केंद्र मिथिला है. अब देखना है कि आने वाले दिनों में इस टकराव के कैसे नतीजे सामने आते हैं.