यूपी में ब्राह्मण, ठाकुर, कुर्मी और लोधी विधायकों की बैठकें कैसे बढ़ा रहीं BJP में खींचतान?

वर्ष 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले यूपी में अलग जाति समूह के विधायकों की बैठकें BJP के मूल चुनावी नैरिटिव पर भारी पड़ सकती हैं

up bjp rss coordination meeting rss
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य (फाइल फोटो)

लखनऊ में 23 दिसंबर की शाम बाटी-चोखा की खुशबू के साथ जो सियासी संदेश निकला, उसने साफ कर दिया कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में जाति की चर्चा फिर से केंद्र में लौट आई है. कुशीनगर के विधायक पीएन पाठक के बहुखंडी मंत्री आवास स्थित सरकारी आवास पर लगभग चार दर्जन ब्राह्मण विधायक और विधान परिषद सदस्य एक साथ जुटे. 

नाम भले ही डिनर का था, लेकिन वक्त और हालात इसे साधारण मुलाकात से कहीं आगे ले जाते हैं. खासकर तब, जब यह बैठक यूपी BJP की कमान कुर्मी नेता पंकज चौधरी को सौंपे जाने के कुछ ही दिनों बाद हुई हो और उससे पहले ठाकुर विधायकों की ‘कुटुंब परिवार’ बैठक राजनीतिक गलियारों में काफी हलचल पैदा कर चुकी हो.

इस डिनर में रत्नाकर मिश्रा, प्रकाश द्विवेदी, प्रेम नारायण पांडे, शलभ मणि त्रिपाठी, अंकुर राज तिवारी, विनय द्विवेदी, ऋषि तिवारी, विवेकानंद पांडे, कैलाशनाथ शुक्ला जैसे नाम शामिल थे. साथ ही तीन दर्जन से ज्यादा ब्राह्मण विधायक और एमएलसी मौजूद रहे. एमएलसी के तौर पर रिटायर्ड नौकरशाह नृपेंद्र मिश्रा के बेटे साकेत मिश्रा की मौजूदगी ने भी इस मुलाकात को खास बना दिया. आधिकारिक तौर पर इसे राजनीतिक बैठक मानने से इनकार किया गया, लेकिन इसमें शामिल एक विधायक ने यह जरूर माना कि प्रदेश के राजनीतिक हालात पर चर्चा हुई. जब एक ही जाति के इतने जनप्रतिनिधि एक साथ बैठें, तो यह मानना मुश्किल है कि बात सिर्फ खाने तक सीमित रही होगी.

राजनीतिक विश्लेषक इस बैठक को उस पृष्ठभूमि में देख रहे हैं, जिसमें BJP 2024 के लोकसभा चुनाव में यूपी में बड़ा झटका खा चुकी है. वर्ष 2019 में 62 सीटें जीतने वाली पार्टी 2024 में 33 सीटों पर सिमट गई. खासकर कुर्मी समुदाय समेत पिछड़ा वर्ग (OBC) के एक हिस्से के दूर जाने की चर्चा खुलकर हुई. पंकज चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर पार्टी ने साफ संकेत दिया कि वह कुर्मी और व्यापक OBC वोटबैंक को दोबारा साधना चाहती है. ऐसे में ब्राह्मण विधायकों का एक साथ जुटना कई लोगों को जवाबी दबाव की रणनीति लग रहा है. 

यह पहली बार नहीं है जब यूपी की राजनीति में ऐसी जातिगत गोलबंदी दिखी हो. मानसून सत्र के दौरान 11 अगस्त की रात राजधानी का राजनीतिक तापमान तब अचानक बढ़ गया था, जब ठाकुर समुदाय से जुड़े 40 से ज्यादा विधायकों और एमएलसी ने लखनऊ के एक फाइव स्टार होटल में बैठक की. इसके बाद ‘कुटुंब परिवार’ नाम से एक मंच बनाने की घोषणा हुई. इस बैठक में ज्यादातर BJP के जनप्रतिनिधि थे, लेकिन समाजवादी पार्टी के दो बागी विधायक राकेश प्रताप सिंह और अभय सिंह, और बसपा के इकलौते विधायक उमा शंकर सिंह की मौजूदगी ने इसे और दिलचस्प बना दिया.
सूत्रों के मुताबिक, इस बैठक का आयोजन कुंदरकी से BJP विधायक रामवीर सिंह और मुरादाबाद के एमएलसी जयपाल सिंह व्यस्त ने किया था. पोस्टरों पर साफ तौर पर ‘कुटुंब परिवार’ लिखा था, जिसने इसे एक तरह का शक्ति प्रदर्शन बना दिया. 

हालांकि जयपाल सिंह व्यस्त ने इसे गैर-राजनीतिक और शिष्टाचार भेंट बताया, लेकिन जिस तरह से 2024 के चुनाव के बाद ठाकुर समुदाय में टिकट वितरण को लेकर असंतोष की बातें सामने आई थीं, उसे देखते हुए इस दावे पर यकीन करना सबके लिए आसान नहीं था. यूपी विधानसभा में ठाकुर समुदाय के करीब 50 विधायक हैं, जिनमें से 43 BJP के टिकट पर चुने गए हैं. ऐसे में उनकी सामूहिक मौजूदगी अपने आप में संदेश देती है.

ठाकुरों के बाद कुर्मी विधायकों की सक्रियता भी सामने आई. ‘सरदार पटेल वैचारिक मंच’ के बैनर तले कुर्मी नेता और विधायक एकजुट हुए. यह वही समुदाय है, जिसे साधने के लिए BJP ने हाल ही में पंकज चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि यह सिर्फ संयोग नहीं है. 2024 के नतीजों ने पार्टी को यह सोचने पर मजबूर किया है कि उसका पारंपरिक सामाजिक समीकरण दरक रहा है. यादवों के अलावा कुर्मी, राजभर, निषाद जैसी जातियां अब खुद को अलग पहचान के साथ देखना चाहती हैं. 

इसी कड़ी में लोध समुदाय की बैठकों ने भी सबका ध्यान खींचा. पशुपालन मंत्री धर्मपाल सिंह के निर्वाचन क्षेत्र आंवला में आयोजित एक कार्यक्रम में लोध समुदाय के नेता और विधायक जुटे थे. इस बैठक की खास बात यह रही कि इसमें पूर्व केंद्रीय मंत्री और BJP की वरिष्ठ नेता उमा भारती भी मौजूद थीं. उमा भारती लंबे समय से सक्रिय राजनीति में वापसी की कोशिश कर रही हैं और उनका इस तरह के कार्यक्रमों में दिखना कई संकेत देता है.

इसके अलावा दिल्ली में अवंती बाई लोधी की जयंती पर हुई बैठक में भी कई BJP विधायक और सांसद शामिल हुए. चरखारी से BJP विधायक बृजभूषण राजपूत ने इन बैठकों को समुदाय के मुद्दों पर चर्चा का मंच बताया. उन्होंने साफ कहा कि देश में कहीं भी लोध समुदाय का मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री नहीं है और यह सवाल बार-बार उठता है. उनके मुताबिक, इन मुद्दों को पार्टी नेतृत्व तक पहुंचाने के लिए ऐसे मंच जरूरी हैं. दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने ठाकुरों की बंद कमरे की बैठकों का जिक्र करते हुए कहा कि लोधों की बैठक सभी के लिए खुली थी. 

राजनीतिक जानकारों का मानना है कि ये सारी गतिविधियां 2027 के विधानसभा चुनाव की आहट हैं, भले ही चुनाव 12 महीने दूर हों. एक राजनीतिक विश्लेषक के मुताबिक, ऐसी डिनर मीटिंग्स और जातिगत जमावड़े अक्सर पार्टी नेतृत्व पर दबाव बनाने का तरीका होते हैं. मकसद यह होता है कि टिकट वितरण, संगठनात्मक नियुक्तियों और सत्ता में हिस्सेदारी तय करते समय उनकी जाति को नजरअंदाज न किया जाए. लखनऊ के प्रतिष्ठ‍ित अवध कालेज की प्राचार्य और राजनीतिक विश्लेषक बीना राय कहती हैं, “यूपी की राजनीति अब उस दौर से आगे निकल चुकी है, जब सिर्फ बड़े वर्गों की बात होती थी. पहले OBC, दलित, ऊंची जातियां और मुसलमान जैसे बड़े खांचे थे. अब OBC के भीतर MBC और EBC, दलितों में जाटव और गैर-जाटव, और ऊंची जातियों के भीतर भी अलग-अलग पहचान उभर रही है. यादवों के वर्चस्व के बीच कुर्मी, राजभर और निषाद अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में जाति आधारित बैठकें एक तरह से अपनी ताकत दिखाने का जरिया बन जाती हैं.” 

शि‍या कालेज में राजनीतिक शास्त्र विभाग के प्रोफेसर अमित राय कहते हैं, “इन बैठकों का सीधा असर BJP के वैचारिक नैरेटिव पर पड़ेगा. उनके मुताबिक, BJP लंबे समय से यह कहती रही है कि OBC, दलित और ऊंची जाति के लोग सबसे पहले हिंदू हैं. लेकिन जब एक ही पार्टी के भीतर अलग-अलग जातियां अपनी अलग पहचान के साथ जुटने लगें, तो यह दावा कमजोर पड़ता है.” 

अमित राय यह भी कहते हैं कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव का PDA यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक का नैरेटिव इन गतिविधियों के पीछे एक बड़ी वजह है. वर्ष 2024 के चुनाव में इसका असर दिखा और BJP को नुकसान उठाना पड़ा था. अमित राय के मुताबिक, “यह पहली बार है जब किसी पार्टी ने जाति और समुदाय के प्रतीकों का इतना खुला इस्तेमाल किया है. इससे पहले बहुजन समाज पार्टी ने भी ऐसा किया था, लेकिन वह बहुजन की पार्टी बनने के बजाय दलितों तक सीमित रह गई.” उनके मुताबिक, PDA एक प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल हो रहा है, जिसने दूसरी पार्टियों को भी मजबूर कर दिया है कि वे अपने-अपने सामाजिक आधार को नए सिरे से परिभाषित करें. 

BJP के भीतर यह चुनौती और बड़ी है क्योंकि पार्टी खुद को सबसे बड़ी हिंदू पार्टी के तौर पर पेश करती रही है. लेकिन जमीनी सियासत में जब टिकट, पद और सत्ता की बात आती है, तो जाति का सवाल खुद-ब-खुद सामने आ जाता है. यही वजह है कि ब्राह्मण विधायकों की बैठक को सिर्फ संयोग नहीं माना जा रहा. खासकर तब, जब यह कुर्मी प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति के तुरंत बाद हुई हो. हालांकि, इस डिनर के मेजबान पीएन पाठक से संपर्क नहीं हो सका, लेकिन उनके आवास पर हुई इस मुलाकात ने साफ कर दिया कि यूपी BJP के भीतर सब कुछ सहज नहीं है. एक तरफ पार्टी OBC आधार को मजबूत करने की कोशिश में है, दूसरी तरफ ऊंची जातियों के भीतर भी यह भावना है कि उनकी अनदेखी न हो. ठाकुरों की ‘कुटुंब परिवार’ बैठक और अब ब्राह्मण विधायकों का जमावड़ा इसी संतुलन की खींचतान को दिखाता है. 

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि आने वाले महीनों में ऐसी और बैठकें देखने को मिल सकती हैं. सवाल यह नहीं है कि ये मुलाकातें होंगी या नहीं, सवाल यह है कि पार्टी नेतृत्व इन्हें कैसे संभालता है. अगर जातिगत असंतुलन बढ़ा, तो इसका सीधा असर चुनावी रणनीति पर पड़ेगा. 2027 का चुनाव नजदीक आते ही BJP के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि वह अपने पारंपरिक सामाजिक गठजोड़ को कैसे बनाए रखे और नए सियासी समीकरणों से कैसे निपटे. 

Read more!