मायावती की दस साल बाद होगी कांशीराम स्मारक पर वापसी! क्या है BSP की नई रणनीति?

मायावती 9 अक्टूबर को कांशीराम स्मारक पर राज्यस्तरीय आयोजन के ज़रिए BSP की ताकत दिखाने जा रही हैं

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BSP प्रमुख मायावती (फाइल फोटो)

लखनऊ के ईगो गार्डन में बने 'मान्यवर कांशीराम स्मारक स्थल' पर इस साल 9 अक्टूबर को होने वाला आयोजन, बहुजन समाज पार्टी (BSP) के लिए सिर्फ़ एक श्रद्धांजलि कार्यक्रम नहीं है. यह मायावती के नेतृत्व में पार्टी की ताक़त दिखाने और 2027 के विधानसभा चुनावों से पहले संगठन को दोबारा संजीवनी देने की रणनीति का अहम हिस्सा है. 

BSP के संस्थापक कांशीराम की पुण्यतिथि के बहाने BSP अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को यह संदेश देना चाहती है कि वह अब भी राज्य की राजनीति में अप्रासंगिक नहीं हुई है और सत्ता में वापसी की तैयारी कर रही है. हालांकि पार्टी नेता लगातार ज़ोर देकर कहते रहे हैं कि यह आयोजन "रैली" नहीं बल्कि "श्रद्धा सुमन कार्यक्रम" है. 

पार्टी के मुताबिक़, यह दिवंगत संस्थापक कांशीराम को याद करने का गंभीर अवसर है. बूथ स्तर पर कार्यकर्ता नागरिकों से संपर्क कर रहे हैं, ताकि अधिक से अधिक लोग इसमें शामिल हों. लेकिन हक़ीक़त यह भी है कि इस श्रद्धांजलि को मायावती ने शक्ति प्रदर्शन का रूप देने की योजना बनाई है. करीब दस साल बाद वे खुद स्मारक स्थल पर राज्यस्तरीय कार्यक्रम का नेतृत्व करेंगी. 

वर्ष 2016 के बाद से मायावती कांशीराम की पुण्यतिथि अपने घर पर ही मनाती रही हैं, जबकि कार्यकर्ता स्मारक के बाहर कार्यक्रम करते थे. अब स्मारक स्थल पर प्रशासनिक तैयारी और मायावती की मौजूदगी दोनों मिलकर इसे "मेगा शो" का रूप देने वाले हैं. पार्टी के एक नेता के मुताबिक, "अगर यह सिर्फ़ श्रद्धांजलि होती, तो BSP लोगों के लिए परिवहन का इंतज़ाम नहीं करती. लेकिन मायावती चाहती हैं कि यह आयोजन चुनावी रैली जितना प्रभावी संदेश दे इसलिए कार्यकर्ता अपने संसाधनों से लोगों को लाने-ठहराने की तैयारी कर रहे हैं."
मायावती का बड़ा दांव

वर्ष 2027 विधानसभा चुनाव BSP के लिए जीवन-मरण जैसा है, क्योंकि 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली पार्टी पिछले एक दशक में लगातार हाशिए पर खिसकती रही है. वर्ष 2022 विधानसभा चुनाव में वह सिर्फ़ एक सीट पर सिमटी और 2024 के लोकसभा चुनाव में खाता भी नहीं खोल पाई. लगातार गिरते वोट शेयर और टूटते जनाधार ने पार्टी नेतृत्व को झकझोरा है. ऐसे में मायावती अब संगठन को नए सिरे से खड़ा करने में जुटी हैं. उन्होंने हाल ही में पार्टी का पुनर्गठन किया है और अपने भतीजे आकाश आनंद को राष्ट्रीय संयोजक बनाकर युवा चेहरा सामने किया है. 

कांशीराम की पुण्यतिथि पर पांच लाख से अधिक भीड़ जुटाने और कई पुराने नेताओं की "घर वापसी" कराने की तैयारी इसी रणनीति का हिस्सा है. बीते एक दशक के भीतर BSP छोड़कर दूसरी पार्टी में जाने वाले नेताओं से मायावती के करीबी नेता लगातार संपर्क कर रहे हैं ताकि वे दोबारा हाथी पर सवार होकर बहुजन मूवमेंट को धार दें. पार्टी के नेता आश्वस्त हैं कि अति पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखने वाले कई नेता इस मौके पर BSP में शामिल होंगे. पार्टी के एक वरिष्ठ पदाधिकारी का दावा है “कुछ नाम चौकाने वाले भी हो सकते हैं.” एक अन्य वरिष्ठ BSP पदाधिकारी कहते हैं, "बहनजी चाहती हैं कि लखनऊ का यह कार्यक्रम पूरे राज्य को संदेश दे कि BSP न सिर्फ़ जिंदा है बल्कि अगले चुनाव में मजबूती से उतरने जा रही है."

कांशीराम स्मारक का महत्व

'मान्यवर कांशीराम स्मारक' पार्टी के लिए महज़ एक प्रतीक नहीं है. यही वह जगह है जहां मायावती अपने गुरु और BSP संस्थापक को श्रद्धांजलि देकर दलित राजनीति की "वैचारिक विरासत" को साधती हैं. कई सालों तक स्मारक के जीर्णोद्धार और प्रशासनिक रोकटोक के कारण यहां बड़ा आयोजन नहीं हो सका है. अब पहली बार स्मारक स्थल पर भव्य कार्यक्रम होने जा रहा है. प्रशासनिक अधिकारी लगातार निरीक्षण कर रहे हैं और व्यवस्था की समीक्षा की जा रही है. 

BSP  कार्यकर्ताओं ने स्मारक स्थल की सजावट, मंच निर्माण और स्मृति कार्यक्रम के लिए सामूहिक दान से लाखों रुपये इकट्ठा किए हैं. पार्टी ने राजधानी लखनऊ के रमाबाई रैली मैदान को कार्यकर्ताओं और समर्थकों के ठहरने के लिए बुक किया है. प्रदेश भर से हजारों BSP कार्यकर्ता एक दिन पहले ही लखनऊ पहुँचने वाले हैं. बताया जाता है कि कार्यकर्ताओं ने सामूहिक रूप से 10 लाख रुपये रमाबाई मैदान और 2.5 लाख रुपये स्मारक स्थल पर खर्च के लिए जुटाए हैं. पार्टी चाहती है कि यह आयोजन भीड़ के लिहाज़ से वर्ष 2007 की याद दिलाए, जब BSP ने "बहुजन से सर्वजन" की राजनीति कर बहुमत की सरकार बनाई थी. मायावती के एक करीबी नेता के मुताबिक, "इस आयोजन से कार्यकर्ताओं में यह विश्वास पैदा करना है कि BSP अब भी जनसमर्थन जुटाने में सक्षम है."

नारे, गीत और सोशल मीडिया पर जोर

BSP ने आयोजन को यादगार बनाने के लिए नए नारे और गीत तैयार किए हैं. "दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यकों की आवाज़, बहुजन समाज का नया आगाज़" और "राशन नहीं, शासन चाहिए... लखनऊ चलो" जैसे नारे कार्यकर्ताओं के बीच लोकप्रिय हो रहे हैं. गांव-गांव की दीवारों पर पेंटिंग कर लोगों को रैली में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है. पोस्टर, बैनर और सोशल मीडिया कैंपेन लगातार चल रहे हैं. 

मायावती का यह कदम उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को भी परेशान कर रहा है. आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) के नेता चंद्रशेखर आज़ाद ने अपने कार्यकर्ताओं से हर जिले में अलग से कांशीराम की पुण्यतिथि मनाने का आह्वान किया है. उनका मक़सद यह जताना है कि "कांशीराम की असली विरासत" अब उनके पास है. कांग्रेस नेता और दलित चेहरे उदित राज ने भी मायावती पर आरोप लगाया है कि वह "बाबा साहेब अंबेडकर की बात करती हैं लेकिन दिल में कमल (बीजेपी का प्रतीक) रखती हैं." इन आरोपों पर BSP नेताओं का कहना है कि "कांशीराम के सच्चे उत्तराधिकारी मायावती ही हैं. बाकी लोग सिर्फ़ नाम का इस्तेमाल कर रहे हैं."

BSP की संगठनात्मक चुनौती

BSP के सामने सबसे बड़ी चुनौती संगठन को ज़मीनी स्तर पर सक्रिय करना है. पिछले चुनावों में उसका वोट बैंक बिखर गया और दलितों का बड़ा हिस्सा बीजेपी और अन्य दलों की ओर चला गया. अल्पसंख्यक वोट बैंक भी सपा और कांग्रेस के बीच बंट गया. मायावती ने अब संगठन में सुधार करते हुए दस सदस्यीय आयोजन समिति बनाई है, जो पूरे कार्यक्रम की देखरेख कर रही है. 

पार्टी चाहती है कि बूथ स्तर तक कार्यकर्ताओं को सक्रिय किया जाए और 2027 तक "कोर कैडर" को मजबूत किया जाए. BSP नेता बार-बार वर्ष 2007 का ज़िक्र करते हैं जब मायावती ने "सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय" का नारा देकर ब्राह्मण-दलित गठजोड़ बनाया और उत्तर प्रदेश में बहुमत की सरकार बनाई थी. आज पार्टी फिर से उसी "सोशल इंजीनियरिंग" की राह पकड़ने की कोशिश कर रही है. पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सतीश मिश्रा लगातार स्मारक स्थल का निरीक्षण कर रहे हैं और ब्राह्मण समाज से दोबारा जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं. BSP नेताओं का मानना है कि "अगर दलित, ओबीसी और अल्पसंख्यक फिर से एकजुट हो जाएं और कुछ ब्राह्मण समर्थन मिल जाए, तो 2027 में मायावती वापसी कर सकती हैं."

विपक्षी खेमे की निगाह

सपा, कांग्रेस और बीजेपी तीनों दल इस आयोजन पर नज़र रखे हुए हैं. बीजेपी को डर है कि दलित वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश तेज़ हो सकती है. सपा को चिंता है कि अल्पसंख्यक वोटों में बिखराव होगा. कांग्रेस को उम्मीद है कि उदित राज और अन्य दलित नेताओं के ज़रिए वह इस खेमे में जगह बना सकेगी. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अगर 9 अक्टूबर का आयोजन मायावती की उम्मीद के मुताबिक़ सफल रहा, तो BSP का ग्राफ़ कुछ हद तक सुधरेगा और विपक्षी समीकरण बदल सकते हैं. 

BSP के वरिष्ठ नेताओं के बीच ऐसी सुगबुगाहट है कि मायावती अपने भाषण में कार्यकर्ताओं को दो संदेश देंगी, पहला, BSP किसी की "बी टीम" नहीं है और न ही बीजेपी या कांग्रेस की छाया में काम कर रही है. दूसरा, BSP ही वह पार्टी है जिसने सत्ता में रहते हुए बेहतर शासन और कानून-व्यवस्था दी थी. मायावती का मकसद दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और वंचित वर्गों को यह विश्वास दिलाना है कि "BSP ही उनकी असली आवाज़ है."

दूसरी तरफ अगर भीड़ कम रही या संदेश प्रभावी नहीं हुआ तो पार्टी के सामने 2027 की राह और कठिन हो जाएगी. मायावती के सामने चुनौती सिर्फ़ संगठन को पुनर्जीवित करने की नहीं है, बल्कि यह भी साबित करने की है कि कांशीराम की विरासत अब भी उनके ही पास है. 9 अक्टूबर का लखनऊ कार्यक्रम इस सवाल का पहला बड़ा इम्तिहान होगा.

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