मिल्कीपुर में बीजेपी की जीत समाजवादी पार्टी के लिए 'रियलिटी चेक' क्यों है?

मिल्कीपुर उपचुनाव बीजेपी और सपा के लिए महज एक विधानसभा सीट भर की लड़ाई नहीं थी, बल्कि अयोध्या पर एक राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई थी जिसे बीजेपी ने अपने नाम किया

सीएम योगी के साथ चंद्रभानु पासवान (फाइल फोटो)
सीएम योगी के साथ चंद्रभानु पासवान (फाइल फोटो)

फरवरी की 8 तारीख भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए हर तरह से मुफीद थी. भगवा दल ने जहां करीब 27 सालों बाद दिल्ली विधानसभा चुनावों में जीत हासिल कर प्रदेश की सत्ता में धमाकेदार वापसी की, वहीं उत्तर प्रदेश में 'प्रतिष्ठा की लड़ाई' का केंद्र बना मिल्कीपुर उपचुनाव भी उसने जबरदस्त तरीके से जीता.

8 फरवरी को दिल्ली चुनाव के साथ ही मिल्कीपुर उपचुनाव के भी नतीजे जारी हुए. इसमें बीजेपी के उम्मीदवार चंद्रभानु पासवान ने अपने प्रतिद्वन्द्वी और समाजवादी पार्टी (सपा) के उम्मीदवार अजीत प्रसाद को 61,710 मतों के भारी अंतर से हराया. जहां बीजेपी के लिए यह जीत कई मायनों में अहम है, वहीं सपा के लिए यह हार किसी रियलिटी चेक से कम नहीं?

असल में मिल्कीपुर उपचुनाव महज एक विधानसभा सीट भर के लिए लड़ाई नहीं थी, बल्कि यह अयोध्या पर एक राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई थी. बीजेपी के लिए अयोध्या उसके हिंदुत्व के नैरेटिव के लिए केंद्रबिंदु रहा है. पिछले साल 22 जनवरी को पीएम नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में राम मंदिर का भव्य उद्घाटन किया था, लेकिन इसके कुछ ही महीनों बाद हुए आम चुनावों में पार्टी को फैजाबाद लोकसभा सीट पर हार का मुंह देखना पड़ा था. अयोध्या इसी फैजाबाद सीट के तहत आता है.

तब इस हार से बीजेपी की बड़ी फजीहत हुई थी. आलोचकों ने कहा कि जिस हिंदुत्व और राम मंदिर नैरेटिव की बदौलत बीजेपी अपनी राजनीति साधती आई है, उसी नैरेटिव के हॉटस्पॉट यानी अयोध्या को समाहित करने वाली फैजाबाद लोकसभा सीट पर उसे करारी हार का सामना करना पड़ा. उस आम चुनाव में सपा के अवधेश प्रसाद ने फैजाबाद सीट से बीजेपी के लल्लू सिंह को हराया था. लल्लू सिंह लगातार दो बार वहां से सांसद रहे थे.

फैजाबाद लोकसभा सीट पर जीत हासिल करने से पहले अवधेश प्रसाद मिल्कीपुर से विधायक रहे थे. लेकिन उनके सांसद बनने से मिल्कीपुर सीट खाली हो गई थी. करीब सात महीनों बाद दिल्ली के साथ ही यहां पांच फरवरी को मतदान हुआ. बीजेपी की तरफ से उम्मीदवार चंद्रभानु पासवान थे, जबकि सपा की तरफ से अजीत प्रसाद चुनावी मैदान में थे जो सांसद अवधेश प्रसाद के ही बेटे हैं. वहीं कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) दोनों ने ही अपनी जीत की उम्मीदें कम होते देख कर इस दौड़ से बाहर रहने का फैसला किया था.

बीजेपी ने खोई हुई जमीन फिर से हासिल की

इंडिया टुडे के संवाददाता अवनीश मिश्र अपनी एक रिपोर्ट में लिखते हैं, "चंद्रभानु पासवान की यह जीत यहां के वोटरों की सोच में एक अहम बदलाव का संकेत देती है, जिसका प्रभाव इस सीट से कहीं आगे तक जाता है."  

मिश्र अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि मिल्कीपुर उपचुनाव बीजेपी के लिए पिछले साल अवधेश प्रसाद के हाथों लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद वापसी का एक मौका था. अयोध्या में राम मंदिर के भव्य उद्घाटन के कुछ ही महीनों के भीतर हुई उस हार को एक प्रतीकात्मक झटके के रूप में देखा गया था. लेकिन अब फैजाबाद लोकसभा क्षेत्र में स्थित मिल्कीपुर सीट पर जीत से बीजेपी को अयोध्या में 'परसेप्शन वॉर' (धारणा युद्ध) जीतने में मदद मिलेगी और उसके हिंदुत्व के नैरेटिव को भी मजबूती मिलेगी जो अभी भी पार्टी के मजबूत चुनावी मुद्दों में से एक है.

मिल्कीपुर उपचुनाव यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व की भी परीक्षा थी, क्योंकि बीजेपी ने 2024 के आम चुनावों में राज्य में खराब प्रदर्शन किया था. पार्टी की 2019 में उसकी सीटों की संख्या 62 से घटकर 2024 आम चुनावों में 33 ही रह गई थी. और भगवा दल के भीतर, सीएम योगी की नौकरशाही पर अत्यधिक निर्भरता को लेकर सुगबुगाहट थी और ये भी कहा जा रहा था कि नेताओं और जमीनी कार्यकर्ताओं की बातों को अनसुना किया जा रहा है.

हालांकि, मिल्कीपुर उपचुनाव में सीएम योगी ने आक्रामक तरीके से प्रचार किया. उन्होंने पिछले छह महीनों में 20 से ज्यादा बार अयोध्या का दौरा किया. यह राज्य में पार्टी को फिर से खड़ा करने की उनकी क्षमता को बताता है. मिल्कीपुर की यह जीत सीएम योगी को 2027 में होने वाले यूपी विधानसभा चुनावों से पहले अपनी स्थिति मजबूत करने और राज्य बीजेपी के भीतर आलोचकों को फिलहाल चुप कराने में मदद करेगी.

लोगों ने सपा के अहंकार को नकार दिया - बीजेपी

इंडिया टुडे से बातचीत में बीजेपी के प्रवक्ता राकेश त्रिपाठी ने कहा कि आम चुनावों में उनकी पार्टी ने कुछ हद तक अति आत्मविश्वास दिखाया था, लेकिन इस बार राज्य इकाई ने 'डबल इंजन' सरकार की उपलब्धियों को लोगों तक पहुंचाने के लिए कड़ी मेहनत की. 

त्रिपाठी ने कहा, "बीजेपी कार्यकर्ताओं ने बहुत मेहनत की, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की उपलब्धियों को लोगों तक सफलतापूर्वक पहुंचाया, जिससे हमारी जीत तय हुई. जिस तरह से सपा ने अपने (फैजाबाद) सांसद को 'अयोध्या के राजा' के रूप में पेश किया, लोगों ने उस अहंकार को नकार दिया. लोकसभा चुनावों में हम अति आत्मविश्वास में थे और हमें सबक मिली. इस बार हमने कड़ी मेहनत की और हम 2027 के विधानसभा चुनावों तक ऐसा करना जारी रखेंगे."

मंडल बनाम हिंदुत्व की लड़ाई

अवनीश मिश्र अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "मिल्कीपुर सीट की लड़ाई मुख्य रूप से दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के समर्थन के लिए थी, जिसमें बीजेपी और सपा दोनों ने पासी समुदाय से उम्मीदवार उतारे थे. परंपरागत रूप से सपा को यादवों (राज्य की आबादी का 15 फीसदी) और मुसलमानों (8 फीसद) का मजबूत समर्थन हासिल रहा है. इस बार, सपा की रणनीति राज्य में 27 फीसद दलित वोट को मजबूत करने पर टिकी हुई थी. खासकर, आम चुनावों में पार्टी इस वर्ग तक सफलतापूर्वक पहुंचने में कामयाब रही थी, जिसे 'संविधान खतरे में है' की नैरेटिव से काफी बल मिला."

मिल्कीपुर के चुनावी अभियान में बीजेपी ने कल्याणकारी योजनाओं के जरिए दलितों को लुभाने और पुष्पेंद्र पासी जैसे स्थानीय दलित नेताओं को तैनात करके इसका मुकाबला किया. इस वोट बेस में सेंध लगाने की पार्टी की क्षमता से पता चलता है कि उसका एक जातिगत गठबंधन विकसित हो रहा है. अगर यह ट्रेंड जारी रहता है, तो यह आगामी विधानसभा चुनावों में सपा की उम्मीदों को कमजोर कर सकता है और यूपी की 'मंडल' राजनीति को झटका दे सकता है.

हिंदुत्व से प्रेरित अपनी 'मैसेजिंग' को जारी रखते हुए बीजेपी ने अयोध्या में विकास पर भी काफी जोर दिया. पार्टी ने इस इलाके को शासन के एक मॉडल के रूप प्रदर्शित किया. मिल्कीपुर में पार्टी को मिली ये जीत बताती है कि धर्म को केंद्र में रखकर की जाने वाली भावनात्मक राजनीति और विकास का मेल एक अहम चुनावी महत्व रखता है. बीजेपी जनता को साधने के लिए धर्म के साथ-साथ कल्याणवाद का भी सहारा ले रही है. 

बीजेपी के लिए मिल्कीपुर एक 'झूठी जीत' - अखिलेश

मिल्कीपुर उपचुनाव में बीजेपी की जीत को सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भगवा दल द्वारा रची गई साजिश करार दिया. उन्होंने कहा, "बीजेपी पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) की बढ़ती ताकत का वोटों के मामले में सामना नहीं कर सकती, इसलिए वह चुनावी प्रणाली का दुरुपयोग करके जीतने की कोशिश करती है. चुनावी धोखाधड़ी करने के लिए जिस स्तर के अधिकारियों की जरूरत होती है, वह एक विधानसभा में तो संभव है, लेकिन 403 विधानसभाओं में यह धोखाधड़ी नहीं चलेगी. बीजेपी के लोग भी यह जानते हैं, इसीलिए बीजेपी के लोगों ने मिल्कीपुर का उपचुनाव लगातार टाला."

अखिलेश ने इसे "झूठी जीत" बताते हुए कहा कि बीजेपी कभी भी इसका वास्तविक जश्न नहीं मना पाएगी क्योंकि उनका अपराध बोध और भविष्य की हार का डर उन्हें बेचैन रखेगा. उन्होंने कहा, "चुनावी धोखाधड़ी का अपराध करने वाले अधिकारियों को उनके लोकतांत्रिक अपराध की सजा आज नहीं तो कल मिलेगी. सच्चाई एक-एक करके सामने आएगी. न तो ईश्वर और न ही कानून उन्हें बख्शेगा...लोकसभा चुनाव में अयोध्या में पीडीए की सच्ची जीत मिल्कीपुर विधानसभा में इस झूठी जीत से कई गुना भारी है और हमेशा रहेगी."

यूपी में कुल 403 विधानसभा सीटें हैं और यहां 2027 में अगला विधानसभा चुनाव होना है. अवनीश मिश्र अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, मिल्कीपुर उपचुनाव के नतीजों को आगामी विधानसभा चुनावों से पहले हवा के रुख के शुरुआती संकेत के तौर पर देखा जा रहा है.

अगर बीजेपी यहां हारती तो यह संकेत मिलता कि उसका हिंदुत्व आधार कमजोर हो रहा है और ओबीसी और मुस्लिम सपा के पीछे लामबंद हो रहे हैं. इसके बजाय यह जीत बताती है कि बीजेपी का 'पुनर्संयोजन' यानी हिंदुत्व को साधते हुए जातिगत पहुंच और इसे विकास के साथ बैलेंस करना, काम कर रहा है.

वहीं, सपा के लिए यह हार व्यापक और टिकाऊ नैरेटिव तैयार किए बिना मंडल राजनीति पर निर्भर रहने की उसकी रणनीति पर सवाल उठाती है. मिल्कीपुर उपचुनाव एक छोटी सी लड़ाई होने के बावजूद, आगे की बड़ी लड़ाई की झलक पेश करता है जो कि यूपी में 2027 तक की चुनावी राजनीति के अगले दौर के लिए स्पष्ट रूप से माहौल तैयार कर रहा है.

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