बिहार : कभी वंशवादी राजनीति के विरोध का प्रतीक बने एक नेता अब क्यों सवालों के घेरे में?

बिहार की रामगढ़ विधानसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव में राजद नेता जगदानंद सिंह के बेटे अजीत सिंह उनकी पार्टी की तरफ से उम्मीदवार हैं. दिलचस्प है कि एक समय राजद नेता ने इसी सीट पर अपने एक और बेटे सुधाकर सिंह की उम्मीदवारी का विरोध किया था और एक कार्यकर्ता अंबिका यादव को टिकट दिलाया था

अपने भाई अजीत सिंह की पगड़ी बांधते सुधाकर सिंह
अपने भाई अजीत सिंह की पगड़ी बांधते सुधाकर सिंह

झारखंड और महाराष्ट्र में हो रहे विधानसभा चुनाव के साथ-साथ बिहार में चार विधानसभा सीटों पर भी उपचुनाव हो रहे हैं. ये सभी सीटें अलग-अलग विधायकों के सांसद बनने से खाली हुई हैं. वैसे तो तरारी को छोड़कर सभी तीन सीटों पर नये सांसदों के परिवार के लोगों को ही टिकट मिला है. तरारी में भी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने एक बाहुबली पूर्व विधायक के पुत्र को टिकट दिया है. परिवारवाद ही बिहार के इन उपचुनावों की थीम है. मगर इनमें रामगढ़ विधानसभा खास है. 

रामगढ़ खास क्यों है यह समझने के लिए हमें इसी विधानसभा में 15 साल पहले इसी तर्ज पर हुए उपचुनाव तक जाना होगा. तब यहां के विधायक राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के जगदानंद सिंह हुआ करते थे, जो फिलहाल राजद के प्रदेश अध्यक्ष हैं. 2009 लोकसभा चुनाव में वे बक्सर से जीतकर सांसद बन गये थे और रामगढ़ की यह सीट खाली हो गई थी. उस वक्त उनके बेटे सुधाकर सिंह इस सीट से चुनाव लड़ना चाहते थे. पार्टी भी चाहती थी कि जगदानंद सिंह की खाली सीट उनके बेटे को दे दी जाये.

मगर कहा जाता है उस वक्त उन्होंने इस पेशकश को ठुकरा दिया और पार्टी के आंतरिक प्लेटफार्म पर कहा कि अगर हर कोई अपने बच्चे को ही चुनाव लड़ाता रहेगा तो कार्यकर्ताओं का क्या होगा.

फिर 2009 के विधानसभा उपचुनाव में रामगढ़ से जगदानंद सिंह के करीबी कार्यकर्ता अंबिका सिंह यादव को टिकट दिया गया. जगदानंद सिंह ने उनके चुनाव में जमकर प्रचार किया, अंबिका यादव चुनाव जीत गये. 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में रामगढ़ से जीते प्रत्याशी अंबिका को ही पार्टी ने फिर टिकट दिया. इस बार जगदानंद सिंह के बेटे सुधाकर सिंह से रहा नहीं गया. उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया.

उनके इस फैसले की खबर जब बीजेपी को मिली तो पार्टी ने उन्हें अपना टिकट दे दिया. इसके बावजूद जगदानंद सिंह अपने सहयोगी अंबिका यादव के पक्ष में मजबूती से खड़े रहे और उनका जमकर प्रचार किया. अंबिका फिर जीत गये. सुधाकर तीसरे स्थान पर रहे.

जगदानंद सिंह (दाएं) के साथ अंबिका यादव. अंबिका 40 साल तक जगदानंद सिंह के साथ मजबूती से खड़े रहे. अब बसपा के साथ हैं

2009 के रामगढ़ विधानसभा उपचुनाव और 2010 में रामगढ़ में हुए बिहार विधानसभा चुनाव की इस कहानी की चर्चा कई वर्षों तक बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में किंवदंती की तरह सुनाई जाती रही है. परिवारवाद और वंशवाद के खिलाफ राजद के इस बड़े राजनेता के स्टैंड को एक उदाहरण की तरह पेश किया जाता रहा है. मगर 2024 में रामगढ़ में हो रहे उपचुनाव को देखकर लगता है कि इस स्टैंड ने यू-टर्न ले लिया है.

2024 लोकसभा चुनाव में जगदानंद सिंह के बड़े बेटे सुधाकर रामगढ़ विधानसभा से इस्तीफा देकर बक्सर से सांसद बने और अब उस सीट पर राजद ने जगदानंद सिंह के दूसरे बेटे अजीत कुमार सिंह को टिकट दे दिया है. भले इस उपचुनाव में जगदानंद सिंह रामगढ़ से दूरी बनाये हुए हैं, मगर सुधाकर अपने छोटे भाई को चुनाव जिताने में जी जान एक किये हुए हैं.

2009 में जगदानंद सिंह के करीबी कार्यकर्ता के रूप में रामगढ़ से चुनाव लड़ने वाले अंबिका सिंह यादव अब बसपा में शामिल हो चुके हैं. इस चुनाव में उनके बेटे तुल्य भतीजे सतीश यादव उर्फ पिंटू यादव बसपा से चुनावी मैदान में है.

अंबिका कहते हैं, "2009 में उनका सिद्धांत कितना सच्चा था, कितना दिखावा यह तो कह नहीं सकते. मगर 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में जब राजद ने सुधाकर सिंह को टिकट दे दिया और वे चुप रहे तो तभी से उनके सिद्धांतों का परदा उठने लगा था. 2023 में उनके दूसरे बेटे पुनीत सिंह को विधान पार्षद का चुनाव लड़ाया गया लेकिन वे चुनाव हार गये. 2024 में फिर सुधाकर सिंह को बक्सर लोकसभा का टिकट मिला. अब दूसरे बेटे को रामगढ़ से टिकट मिल गया है. यह कैसा समाजवाद है, कैसा सिद्धांत है."

वे आगे समझाते हुए बताते हैं, "हम 1972 में इंटर पास किये और 1974 से ही जगदा बाबू के साथ लगातार रहे. 2019 के लोकसभा चुनाव तक. हर चुनाव में मजबूती से उनके साथ रहते. पहले रामगढ़ से सच्चिदा बाबू (सच्चिदानंद सिंह) विधायक होते थे, जगदा बाबू उनके साथ थे. हम भी सचिदा बाबू के साथ थे. 1980 में जब जगदा बाबू उनके खिलाफ निर्दलीय चुनावी मैदान में उतर गये तो हम भी सचिदा बाबू को छोड़कर जगदा बाबू के साथ रह गये. यह साथ तब छूटा जब जगदा बाबू ने 2020 में अपने बेटे सुधाकर को पार्टी का टिकट दिला दिया, जो पार्टी के खिलाफ और लालू जी के खिलाफ भाजपा से चुनाव लड़ता रहा था. तब हम समझ गये कि जगदा बाबू का कोई सिद्धांत नहीं. बस दिखावा था. वे बस हमको हराकर बाहर करवाना चाहते थे, ताकि उनके बेटे को मौका मिल जाये."

बीजेपी प्रत्याशी अशोक कुमार सिंह मानते हैं कि जगदानंद सिंह ने सिद्धांत नहीं, मजबूरी की वजह से अंबिका का साथ दिया था

2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में अंबिका सिंह यादव को हार का सामना करना पड़ा था. उस बार बीजेपी ने सुधाकर सिंह के बदले अशोक कुमार सिंह को टिकट दिया था. अशोक कुमार सिंह बताते हैं कि 2014 में पार्टी विरोधी गतिविधियों की वजह से सुधाकर सिंह को बीजेपी से हटा दिया गया था. 2014 के लोकसभा चुनाव में सुधाकर ने अपने पिता जगदानंद सिंह की चुनाव प्रचार की कमान संभाल ली थी.

अंबिका कहते हैं, "2010 में जब सुधाकर भाजपा के टिकट पर हमारे खिलाफ चुनावी मैदान में थे तो जगदा बाबू हमारे मंच से कहा करते थे, बेटा हमारा बस में नहीं है. मगर 2014 में वही बेटा कैसे इनके बस में आ गया यह समझ नहीं आया. और यह भी कि 2010 में खुलेआम राजद विरोधी गतिविधि करने वाले अपने बेटे को उन्होंने 2014 में कैसे स्वीकार कर लिया. उन्हें क्यों नहीं कहा कि जाओ हमारे पास से, तुम पार्टी विरोधी, सिद्धांत विरोधी हो."

जगदानंद सिंह के सिद्धांतों पर अंबिका तो साफ-साफ कुछ नहीं कहते, मगर 2015 में रामगढ़ से बीजेपी के टिकट पर जीते और इस बार फिर से बीजेपी की तरफ से मैदान में उतरे अशोक कुमार सिंह कहते हैं कि "यह सब ढकोसला था. 2009 के लोकसभा चुनाव में जगदा बाबू चुनाव जीत जरूर गये थे, मगर तब उनके खिलाफ चुनाव लड़ रहे ददन पहलवान के साथ 75 फीसदी यादव वोटर एकजुट हो गये थे. उनकी मजबूरी थी, अंबिका यादव को टिकट दिलाना."

वे आगे कहते हैं, "आप देखिये, जगदानंद सिंह जब रामगढ़ से चुनाव लड़ते थे तो उनको 59 से 60 हजार वोट आता था. मगर 2010 में जब सुधाकर ने अंबिका यादव के खिलाफ चुनाव लड़ा तो अंबिका को 30 हजार के करीब वोट आए, सुधाकर को 18 हजार वोट मिले. उस बार मैं निर्दलीय मैदान में था. मुझे 27 हजार वोट मिले थे. यानी जगदानंद सिंह का जो 18 हजार अपना वोट था, सिर्फ वही सुधाकर के पक्ष में गया था."

अपनी बात जारी रखते हुए अशोक आगे बताते हैं, "जगदानंद सिंह के सारे सिद्धांत दिखावटी हैं. उन्होंने बिहार विभाजन से पहले अपने बेटों को मुख्यमंत्री के कोटे से इंजीनियरिंग की शिक्षा दिलवाई. बड़े बेटे को बिना विज्ञापन के विधान परिषद में नौकरी दिलवायी. उनके दो बेटे सुधाकर और पुनीत चुनाव लड़ चुके हैं. तीसरे अजीत मैदान में हैं. इनका परिवारवाद का विरोध यही है."

राजद प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह के इस बदलते स्टैंड से उनके प्रशंसक भी सन्न हैं. सोशल मीडिया पर उनकी इस सिद्धांतवादिता के पक्ष में लिखने वाले बिहार के वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर इस मसले पर कोई सार्वजनिक टिप्पणी करने से इनकार कर देते हैं. मगर यह जरूर कहते हैं कि हर कोई श्रीकृष्ण सिंह या कर्पूरी ठाकुर नहीं हो सकता.

वे इन दोनों की कहानी बताते हुए कहते हैं कि 1957 में चंपारण के कुछ लोगों ने बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह से कहा था कि चंपारण की किसी सीट से उनके बड़े बेटे शिवशंकर सिंह को चुनाव लड़ाया जाना चाहिए. तब श्रीबाबू ने कहा था, लड़ा लीजिये, तब मैं चुनाव नहीं लडूंगा. उसी तरह कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन में कभी अपने बेटे रामनाथ ठाकुर को चुनाव लड़ने नहीं दिया, जबकि उनकी चुनाव लड़ने की इच्छा थी.

इसी तरह भगत सिंह के साथी बेतिया से तीन बार सांसद रहे कमलनाथ तिवारी ने अपने छोटे बेटे शंभुनाथ तिवारी का गोविंदगंज विधानसभा का टिकट खुद कटवा दिया, जबकि पार्टी उनके नाम से टिकट जारी कर चुकी थी.

इस मसले पर जब हमने राजद प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह से बातचीत की तो उन्होंने अपना संक्षिप्त जवाब देते हुए कहा, "यह पार्टी को तय करना होता है कि वह किसको टिकट दे किसको नहीं दे. मेरी इसमें कोई भूमिका नहीं है. मैं पूरे बिहार का काम देखता हूं. वही काम कर रहा हूं. वहां (रामगढ़) में क्या हो रहा है, क्या नहीं इससे मुझे कोई मतलब नहीं."

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