नीतीश के मास्टर स्ट्रोक शराबबंदी को तेजस्वी कैसे बना रहे चुनावी हथियार?
नीतीश कुमार ने 2016 में शराबबंदी का फैसला किया था और तब तेजस्वी यादव उनके साथ थे, लेकिन अब वे इस फैसले को एक चुनावी मुद्दा बनाते दिख रहे हैं

अप्रैल 2016 में नीतीश सरकार ने शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का जो साहसिक फैसला लिया, वह विधानसभा चुनाव से पहले एक बार फिर सरकार के लिए बड़ी समस्या बन गई है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कभी अपने इस फैसले को नैतिक जीत बताते हुए कहा था, “इससे सामाजिक हिंसा पर लगाम लगेगी और महिलाओं का जीवन बेहतर होगा.”
हालांकि, अब शराबबंदी विपक्ष के लिए राजनीतिक हथियार बन गई है. चुनाव से पहले रैलियों और मीडिया ब्रीफिंग के जरिए विपक्षी दल शराबबंदी से होने वाले फायदे पर सवाल उठा रहे हैं और साथ ही शराबबंदी को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
9 साल पहले बिहार में शराब पर लगा था पूर्ण प्रतिबंध
अप्रैल 2016 में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली महागठबंधन सरकार ने बिहार में शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का ऐलान किया. राज्य सरकार के इस फैसले के बाद शराब ठेके और बार बंद हो गए. महिलाओं ने शराबबंदी के समर्थन में गीत गाते हुए गांव-गांव जुलूस निकाले.
नीतीश कुमार ने खुद शराबबंदी को बिहार के लिए एक "नई सुबह" बताया और कहा, “शराबबंदी से गरीब परिवारों की बचत बढ़ेगी. ये परिवार अपनी बचत के पैसे को शिक्षा, पोषण और अधिक सम्मानजनक जीवन जीने पर खर्च कर सकेंगे.”
उस समय राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के तेजस्वी यादव सरकार में उप-मुख्यमंत्री थे, इसलिए उनकी पार्टी ने भी इस फैसले को नैतिक तौर पर अनिवार्य और चुनाव के लिहाज से मास्टरस्ट्रोक बताया था. लेकिन समय के साथ शराबबंदी पर राजद का स्टैंड भी बदल गया.
पिछले 8 साल यानी अगस्त 2024 तक शराबबंदी कानून के तहत 12 लाख से ज्यादा गिरफ्तारियां हुई हैं. इसका मतलब ये हुआ कि शराबबंदी कानून के तहत हर घंटे औसतन 18 लोग गिरफ्तार किए गए, जिनमें सबसे ज्यादा संख्या पिछड़े और दलित समाज के लोगों की है.
एक ओर जहां पुलिस शराब पकड़ने के लिए छापेमारी में व्यस्त है. वहीं, प्रदेश की जेलें शराबबंदी कानून तोड़ने वाले आरोपियों से भरी हुई थी. अदालतों में भी शराब से संबंधित मुकदमों की भरमार लगी हुई हैं. इन सबके बीच पड़ोसी राज्यों से अवैध शराब का बिहार आना लगातार जारी है.
शराबबंदी के वक्त सरकार में शामिल राजद अब विपक्ष में है. ऐसे में राजद नेता तेजस्वी यादव ने आरोप लगाते हुए कहा, “नकली शराब के कारण राज्य में कम से कम 2,000 लोगों की जानें गई हैं. यह एक भयावह आंकड़ा है, जिसका शराबबंदी के समर्थक भी खंडन नहीं कर सकते.”
बिहार की भौगोलिक स्थिति के कारण शराबबंदी कानून को सही से लागू करवा पाना प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती रही है. इसकी वजह ये है कि बिहार के 38 जिलों में से 22 उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल और नेपाल से सीमा साझा करते हैं.
ये वे राज्य या पड़ोसी देश हैं, जहां शराब वैध है. बिहार अपनी 601 किलोमीटर लंबी उत्तरी सीमा नेपाल के साथ साझा करता है. यहां से प्रदेश में होने वाले शराब की सप्लाई को रोक पाना प्रशासन के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.
सिर्फ शराब नहीं बल्कि कई अवैध चीजों के लिए तस्कर इस गलियारे का इस्तेमाल करते हैं. केंद्रीय सशस्त्र सीमा बल और बिहार पुलिस की संयुक्त तैनाती के बावजूद सीमा को पूरी तरह से सील करने की उम्मीद करना अति आशावादी होना है.
ताड़ी पर पाबंदी का तेजस्वी ने किया विरोध
इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले तेजस्वी ने एक बार फिर से इस मुद्दे को उठाया है. 27 अप्रैल को तेजस्वी ने पासी समुदाय द्वारा पारंपरिक मादक पेय ताड़ी इकट्ठा करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले मिट्टी के बर्तन को हाथ में लेकर फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट किया.
अपने इस पोस्ट में उन्होंने ताड़ी पर लगी पाबंदी खत्म करने की मांग की. साथ ही ताड़ी बेचने वालों के खिलाफ सभी लंबित मामलों को रद्द करने की मांग की. ताड़ी पर प्रतिबंध को विरासत और आजीविका का अपमान बताते हुए, तेजस्वी ने नीतीश के नेक इरादे वाले सुधार पर सवाल उठाया है. तेजस्वी के मुताबिक उनका मानना है कि शराबबंदी से उन्हीं लोगों को ज्यादा नुकसान हुआ है, जिन्हें बचाने का लक्ष्य रखा गया था.
प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने इस मुद्दे को एक नया मोड़ दिया है. किशोर ने वादा किया है कि अगर उनकी पार्टी या गठबंधन की सरकार सत्ता में आती है, तो वह शराबबंदी कानून को पूरी तरह से खत्म कर देंगे.
उन्होंने कहा कि सिर्फ शराब नहीं बल्कि ताड़ी समेत दूसरे पेय पदार्थों की बिक्री को वैध कर दिया जाएगा. उन्होंने कहा कि वह शराब से होने वाले राजस्व को बिहार में विश्व स्तरीय शिक्षा देने के लिए खर्च करेंगे. उन्होंने दावा किया कि शराबबंदी से राज्य को 20 हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ है.
हालांकि, शराबबंदी पर सत्ता पक्ष पूरी तरह से एकजुट है. उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी ने तेजस्वी और उनके परिवार पर शराब विक्रेताओं का समर्थन करने और विपक्ष पर अवसरवादिता का आरोप लगाया है.
नीतीश सरकार का मानना है कि शराब पर पूर्ण प्रतिबंध सम्मानजनक और साहसिक फैसला है, जिसने अपराध पर अंकुश लगाने में अहम भूमिका निभाई है.
लोग घरेलू बजट पर खर्च करने लगे शराबबंदी से बचा पैसा
आंकड़ों को देखने पर पता चलता है कि शराबबंदी के बाद बिहार में घरेलू बजट पर लोगों का खर्च बढ़ा है. ऐसा माना जाता है कि शराब पर होने वाले खर्च में बचत से शराबबंदी के शुरुआती साल में शहद की बिक्री में लगभग 400 फीसद की वृद्धि हुई. जबकि प्रीमियम साड़ी बाजार में 1,700 फीसद से ज्यादा का उछाल आया.
राज्य सर्वेक्षणों से यह भी पता चलता है कि शराबबंदी के बाद प्रदेश के हर पांचवें परिवार ने शराब की बचत को टिकाऊ संपत्तियों जैसे- टीवी, मोबाइल, पशुधन और शिक्षा में निवेश किया है.
हालांकि, इन आकंड़ों पर सवाल उठाते हुए अर्थशास्त्री कहते हैं कि क्या शराबबंदी के बाद वास्तव में ग्रामीण समृद्ध हुए हैं या उन्होंने सिर्फ जरूरत की चीजें खरीदीं, जिन्हें वो लंबे समय से टाल रहे थे. उन हजारों लोगों का क्या होगा जो शराब बंदी कानून के कारण अभी भी कानूनी पचड़े में फंसे हुए हैं.
एक्सपर्ट्स का मानना है कि इन आंकड़ों की मानवीय लागत बचत के किसी भी सीधे-सादे व्याख्या को झुठलाती है. जबकि शराबबंदी के पक्षधर लोग घरेलू हिंसा और समाज में होने वाले हिंसक अपराधों में कमी को शराबबंदी की सफलता का सबसे बड़ा उदाहरण मानते हैं.
यह भी सच्चाई है कि सरकार के इस फैसले के बाद कई गांवों में अस्थायी शराब बनाने वाली भट्टियां शुरू हो गई हैं. राज्य में शराब की तस्करी तेजी से बढ़ी है. ताड़ी पर बैन लगाए जाने से दलित पासी समुदाय को बहुत नुकसान उठाना पड़ा है. उनकी वैध आजीविका छीन ली गई है.
विधानसभा चुनाव में शराबबंदी की होगी असली परीक्षा
शराबबंदी बिहार सरकार के लिए एक तरह से चुनावी परीक्षा बन गई है. तेजस्वी सरकार के इस नैतिक फैसले के बजाय रोजी-रोटी और रोजगार का मुद्दा उठाते हैं. वहीं प्रशांत किशोर का शराबबंदी को पूरी तरह से खत्म करने का फैसला व्यावहारिक और आर्थिक यथार्थवाद पर आधारित है.
इसके विपरीत नीतीश के नेतृत्व वाला खेमा इस बात पर जोर देता है कि यह कानून चाहे कितना भी असुविधाजनक क्यों न हो, लेकिन सामाजिक सुरक्षा के लिए यह जरूरी है.
सीएम नीतीश के लिए शराबबंदी कानून का मतलब कभी भी केवल शराबबंदी नहीं था, बल्कि यह उनके इस विश्वास का प्रमाण था कि इससे समाजिक स्तर पर नया बदलाव देखने को मिलेगा.
इन सबके बीच मतदाताओं के सामने एक गहरी दुविधा है कि क्या सरकार की इस तरह की नीतियां स्थायी लाभ दे सकती हैं या इस तरह के फैसले केवल कमजोर लोगों पर मुश्किलें थोपती हैं? क्या बिहार के मतदाता शराबबंदी के प्रयोग को मान्यता देंगे या वे इसे नकार देंगे?
शराबबंदी को चाहे नीतीश सरकार की नैतिक शासन की जीत के रूप में सराहा जाए या इसे गलत तरीके से लिया गया एक फैसला बताकर ठुकरा दिया जाए. ये सबकुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि जनता किसे ज्यादा सही मानती है.