बिहार : क्या स्पीकर पद पर BJP-JDU में ठनी; आखिर दोनों को क्यों चाहिए यह पोस्ट?
सूत्रों का कहना है कि बिहार में BJP और JDU दोनों ही अपनी-अपनी पार्टी से विधानसभा अध्यक्ष बनाना चाहती हैं. लेकिन, क्या आपको पता है कि इसकी असल वजह क्या है?

20 नवंबर को बिहार में नई सरकार का शपथग्रहण होना है. एक तरफ पटना के गांधी मैदान में शपथग्रहण की तैयारियां जोरों पर हैं, तो दूसरी तरफ दिल्ली में नई NDA सरकार के गठन, मंत्रिमंडल विस्तार और प्रमुख विभागों के बंटवारे को लेकर ताबड़तोड़ बैठकें हो रही हैं.
इस बीच खबर है कि NDA गठबंधन में स्पीकर पद को लेकर मामला फंस गया है. सूत्रों की मानें तो इस बार BJP और JDU दोनों ही विधानसभा अध्यक्ष पद पर मजबूती से अपना दावा कर रहे हैं. JDU चाहती है कि स्पीकर उनकी पार्टी और विधान परिषद के सभापति BJP से हों.
हालांकि, पिछली बार की तरह BJP दोनों पद अपने पास रखना चाहती है. इसको लेकर दोनों दलों के बीच बातचीत चल रही है. इस बीच BJP की टॉप लीडरशिप से बात करने के लिए 17 नवंबर की आधी रात JDU के सीनियर लीडर ललन सिंह और संजय झा चार्टर्ड प्लेन से दिल्ली गए हैं.
संभव है कि दिल्ली में ललन सिंह और संजय झा की जेपी नड्डा और अमित शाह से स्पीकर के मुद्दे पर बात होगी. इसके अलावा, JDU के इन दोनों नेताओं की दिल्ली में ही मंत्रिमंडल विस्तार और प्रमुख विभागों के बंटवारे पर भी अमित शाह से बात हो सकती है. लेकिन, क्या आपको पता है कि स्पीकर पद पर ही दोनों दल क्यों दावा कर रहे हैं और यह कितना ताकतवर पद होता है?
नीतीश कुमार क्यों चाहते हैं अपना स्पीकर?
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई के मुताबिक, विधानसभा अध्यक्ष सदन के अंदर सबसे ताकतवर पद होता है. गठबंधन की राजनीति में हर दल इसे अपने पास रखना चाहता है. आमतौर पर यह परंपरा रही है कि मुख्यमंत्री जिस दल का होता है, स्पीकर का पद दूसरे बड़े दल को दिया जाता है ताकि सत्ता का संतुलन बना रहे. बिहार में पहले ऐसा ही होता रहा है.
2015 से 2020 तक विजय कुमार सिन्हा (BJP) और 2020 से 2025 तक नंदकिशोर यादव (BJP) स्पीकर रहे, जबकि दोनों बार मुख्यमंत्री का पद JDU के पास था. इस बार जब दोनों दल (BJP और JDU) स्पीकर पद पर अड़े हुए हैं, तो इसके पीछे तीन मुख्य कारण माने जा रहे हैं-
1. सरकार में बराबरी की हिस्सेदारी: चुनाव से पहले नीतीश कुमार की राजनीतिक पारी को लेकर तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही थीं. यहां तक कि कुछ लोग चुनाव के बाद उनकी विदाई तय मान रहे थे. JDU के भविष्य पर भी सवाल उठ रहे थे, लेकिन नतीजों ने सब उलट दिया. नीतीश एक बार फिर बिहार की राजनीति के सबसे ताकतवर नेता बनकर उभरे.
इस बार वे सरकार में बराबरी की हिस्सेदारी पर अड़े हैं. उन्होंने संकेत दिए हैं कि कैबिनेट बंटवारा संख्या के आधार पर नहीं, बल्कि गठबंधन की गरिमा के आधार पर होगा. इसी कड़ी में JDU विधानसभा अध्यक्ष का पद अपने पास रखना चाहती है, जबकि विधान परिषद् सभापति का पद BJP को देने को तैयार है.
2. राजनीतिक अनिश्चितताओं का सामना करने के लिए: वर्तमान में JDU और BJP दोनों गठबंधन से अलग हटकर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं हैं. लेकिन, बिहार में NDA ने पिछले दशक में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. 2022 में नीतीश ने BJP छोड़ी थी, 2024 में वापसी की. ऐसे में राजनीतिक अनिश्चितता को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता.
अगर भविष्य में ब्रेकअप होता है, तो स्पीकर का पद बहुमत परीक्षण और सदन नियंत्रण के लिए अहम साबित होगा. यही वजह है कि दोनों दल इसे अपने पास रखना चाहते हैं. BJP लंबे समय से बिहार में अपना CM चाहती रही है, और उसके पास चिराग पासवान (LJP-RV), जीतन राम मांझी (HAM) व उपेंद्र कुशवाहा (RLM) जैसे सहयोगियों का समर्थन है. BJP ने पहले भी दूसरे दलों को तोड़कर सरकारें बनाई हैं. ऐसे में साल-दो साल बाद अगर कोई संकट आता है, तो नीतीश कुमार अभी से इसकी पूरी तैयारी करके रखना चाहते हैं.
3. नीतीश कुमार ही बिहार के सर्वेसर्वा: कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया जा रहा है कि JDU चाहती है कि BJP की ओर से जिसे भी उपमुख्यमंत्री बनाया जाएगा, उसकी नियुक्ति से पहले नीतीश कुमार की स्वीकृति ली जाए. मतलब साफ है कि स्पीकर पद पर पेंच फंसाकर नीतीश BJP से वे सभी शर्तें मनवाना चाहते हैं, ताकि आने वाले समय में बिहार सरकार सही से चले और सरकार में पहले की तरह इस बार भी वे ही सर्वेसर्वा रहें.
कितना ताकतवर है स्पीकर पद और क्या इसके फैसले की समीक्षा हो सकती है?
1985 में संविधान में 52वां संशोधन करके 10वीं अनुसूची जोड़ी गई. इसमें विधायकों और सांसदों के पार्टी बदलने पर लगाम लगाने के प्रावधान थे. बताया गया कि दल-बदल की वजह से किनकी सदस्यता खत्म हो सकती है. पार्टी लाइन से बाहर जाने वाले विधायकों की अयोग्यता पर फैसला इसी आधार पर होता है.
विधानसभा स्पीकर की ताकत का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि 10वीं अनुसूची के पैराग्राफ 6 में बताया गया है कि स्पीकर या चेयरपर्सन का दल-बदल को लेकर फैसला आखिरी होगा. पैराग्राफ 7 में कहा गया है कि कोई कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता. हालांकि 1991 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने 10वीं अनुसूची को वैध तो ठहराया, लेकिन पैराग्राफ 7 को असंवैधानिक करार दे दिया. यानी अब स्पीकर के फैसले की भी समीक्षा हो सकती है.
बावजूद इसके अभी भी सदन में किसी दल में टूट की स्थिति में यही पद सबसे अहम और ताकतवर होता है. सदन चलाने में स्पीकर की तीन अहम भूमिका होती है-
1. अयोग्यता का अधिकार (10वीं अनुसूची) → स्पीकर तय करता है कि बागी विधायक अयोग्य होंगे या नहीं. अगर वह देरी करता है या अयोग्य करार नहीं देता तो सरकार बच सकती है. अगर तुरंत अयोग्य कर दे, तो सरकार गिर जाती है.
2. फ्लोर टेस्ट की तारीख → स्पीकर तय करता है कि विश्वास मत कब होगा. कई बार देरी से फ्लोर टेस्ट कराने के कारण सरकार को बहुमत साबित करने का समय मिलता है.
3. सदन की कार्यवाही → स्पीकर पक्ष-विपक्ष को बोलने के लिए कितना समय देना है, यह तय करता है. वह चाहे तो किसी विधायक या मंत्री का माइक बंद कर सकता है. किसी मुद्दे को नहीं उठाने दे सकता है या सदन जल्दी स्थगित कर सकता है.
क्या इस पद के लिए गठबंधन में लंबा पेंच फंस सकता है?
रशीद किदवई कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि फिलहाल इस पद के लिए NDA गठबंधन में कोई बड़ा पेंच फंसने वाला है. भविष्य को ध्यान में रखकर दोनों ही दल इस पद की मांग कर रहे हैं, जिसमें किसी एक को झुकना होगा."
वह मौका जब स्पीकर के कारण सरकार गिरने से बच गई
सी.पी. जोशी, अशोक गहलोत और सचिन पायलट राजस्थान में कांग्रेस पार्टी के तीन बड़े नेता हैं. जुलाई 2020 में सचिन पायलट ने अशोक गहलोत सरकार के खिलाफ खुली बगावत कर दी. उस समय विधानसभा स्पीकर सी.पी. जोशी गहलोत कैंप के ही विश्वसनीय नेता थे और उन्होंने अपनी चतुराई से सरकार बचा ली.
जुलाई 2020 में राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार पर सबसे बड़ा संकट तब आया, जब उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट ने 18-19 विधायकों के साथ बगावत कर दी. पायलट अपने समर्थक विधायकों को लेकर पहले दिल्ली गए, फिर गुरुग्राम-मानेसर के एक होटल में ठहर गए. पायलट और गहलोत के बीच पहले से तनातनी चल रही थी और माना जाता है कि सरकार गिराने के लिए वे विधायकों को अपने साथ ले गए थे.
अगर ये 19 विधायक (पायलट सहित) इस्तीफा दे देते या BJP जॉइन कर लेते, तो 200 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस का बहुमत (101 से घटकर 82) खत्म हो जाता और सरकार गिर जाती. BJP ने तुरंत विधानसभा सत्र बुलाने की मांग की और राज्यपाल ने भी 23 जुलाई से सत्र बुला लिया.
अब सबकी नजरें विधानसभा स्पीकर सी.पी. जोशी पर टिकी थीं. ऐसा इसलिए क्योंकि 10वीं अनुसूची (दल-बदल कानून) के तहत यही स्पीकर तय करते हैं कि बागी विधायकों को अयोग्य ठहराया जाए या नहीं. स्पीकर ने सचिन पायलट गुट के 19 विधायकों को अयोग्यता का नोटिस तो 14 जुलाई को ही भेज दिया था, लेकिन जानबूझकर सुनवाई की तारीख बार-बार टालते रहे.
स्पीकर अगर इन विधायकों को अयोग्य ठहराते तो बहुमत चला जाता. इसी बीच राज्यपाल कलराज मिश्र ने 23 जुलाई से विधानसभा सत्र बुलाने का आदेश दिया. स्पीकर ने कानूनी दांव खेला और संविधान के अनुच्छेद 174(1) का हवाला देकर कहा कि सत्र बुलाने के लिए 21 दिन का नोटिस जरूरी है. इसलिए सत्र 14 अगस्त से शुरू होगा.
इन पूरे 30 दिनों में गहलोत को अपने विधायकों को होटल से रिसॉर्ट में ले जाकर एकजुट रखने का समय मिल गया. कांग्रेस हाईकमान ने सचिन पायलट से बातचीत की. कई बागी विधायक डर गए और वापस लौट आए. नतीजा ये हुआ कि 14 अगस्त को गहलोत सरकार ने आसानी से विश्वास मत जीत लिया. स्पीकर ने एक भी विधायक को अयोग्य नहीं ठहराया. बाद में सचिन पायलट भी मान गए. इस तरह स्पीकर जोशी ने गहलोत सरकार बचाने में अहम भूमिका निभाई.