इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फैसले से झारखंड के आदिवासी समाज में कैसे मची हलचल?
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ईसाई बन चुके अनुसूचित जाति के लोगों से जुड़ा एक फैसला सुनाया है जिसकी बुनियाद पर झारखंड के आदिवासी समाज में खासी हलचल देखी जा रही है

बीते दो दिसंबर को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा कि राज्य में जो लोग ईसाई बन गए हैं, वे अनुसूचित जातियों (SC) के फायदे लेना जारी न रखें. कोर्ट ने अपने आदेश का पालन सुनिश्चित करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को चार महीने का वक्त दिया है. जस्टिस प्रवीण गिरी ने अपने फैसले में कहा कि ऐसे मामलों की पहचान कर उसे रोकने की व्यवस्था की जाए. अब इस फैसले का असर झारखंड में देखने को मिल रहा है.
कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए राज्य के पूर्व सीएम चंपाई सोरेन ने कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फिर एक बार स्पष्ट किया है कि धर्म बदलने वालों को आरक्षण समेत अन्य सुविधाएं पाने का कोई अधिकार नहीं है. हाई कोर्ट ने ईसाई धर्म अपनाने के बावजूद SC/ST एक्ट समेत अन्य लाभ लेने की कोशिश को "संविधान के साथ धोखा" बताते हुए उस पर कड़ी नाराजगी जताई.
सोरेन ने दलील दी कि पहले भी दूसरे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट कह चुके हैं कि ईसाई धर्म में जाति व्यवस्था नहीं होती इसलिए धर्मांतरण के बाद इन लोगों को आरक्षण एवं SC/ST एक्ट समेत अन्य सुविधाओं का लाभ नहीं मिलना चाहिए. हालांकि चंपाई सोरेन ने यह नहीं बताया कि सुप्रीम कोर्ट और देश के अन्य हाई कोर्ट ने कब ऐसा कहा था!
वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोगी संगठन बजरंग दल ने एक कदम आगे बढ़ते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले का पालन झारखंड में भी कराने की बात कही. प्रदेश संयोजक रंगनाथ महतो ने कहा कि झारखंड में भी बड़ी संख्या में हिंदुओं को अवैध रूप से ईसाई बनाया गया है. महतो के मुताबिक ये सभी ईसाई बनने के साथ-साथ ST समाज को मिलने वाले सभी लाभ ले रहे हैं और इससे असली हकदार इन फायदों से वंचित रह जाते हैं.
तीन धड़ों में बंटा आदिवासी समाज
झारखंड में लंबे समय से यह बहस चल रही है कि जो आदिवासी ईसाई बन चुके हैं उनको ST कैटेगरी के फायदों से वंचित किया जाना चाहिए या नहीं. इसी बहस को केंद्र में रखते हुए झारखंड का आदिवासी समाज बीते कई सालों में तीन धड़ों में बंट चुका है. एक धड़ा खुद को हिंदू धर्म का हिस्सा मानता है. दूसरा धड़ा खुद को केवल आदिवासी मानता है और सरना धर्मकोड की मांग कर रहा है. तीसरा धड़ा आदिवासी है, लेकिन ईसाई धर्म में धर्मांतरित हो चुका है. वह खुद को आदिवासी मानता है और ईसाई भी. हालांकि ये लोग सरना धर्मकोड का विरोध नहीं करते.
जो धड़ा आदिवासी और खुद को हिंदू धर्म का हिस्सा मानता है, उसे BJP, संघ और संघ से जुड़े अन्य सहयोगी संगठनों जैसे वनवासी कल्याण केंद्र, विश्व हिंदू परिषद का समर्थन हासिल है. हालांकि यह धड़ा सरना धर्मकोड का सीधे तौर पर समर्थन नहीं करता.
राज्य में क्रिसमस का माहौल है. रांची सहित पूरे राज्य में ईसाई बहुल आदिवासी इलाकों में धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजनों के साथ यह बहस भी चल रही है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के समर्थन में उठ रही आवाजों का विरोध कैसे करना है. प्रतिकार में उठ रही प्रमुख आवाजों में से एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंड कहते हैं कि इलाहाबाद हाई कोर्ट का आदेश सिर्फ "अनुसूचित जातियों" के संदर्भ में है जो 11 अगस्त 1950 को जारी किए गए "संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950" पर आधारित है. इसका आदिवासियों से कोई लेना देना नहीं है.
डुंगडुंग के मुताबिक, “कुडमी महतो बनाम आदिवासी के बाद अब सरना बनाम ईसाई का विवाद जोरों से चल रहा है. अब यह विवाद ‘डीलिस्टिंग (आरक्षित श्रेणी की सूची से हटाना), धर्मांतरण और आरक्षण’ पर केंद्रित हो चुका है. जबकि धर्मांतरण, आरक्षण और डीलिस्टिंग देश के आदिवासियों का मुद्दा कभी नहीं रहा है. जहां तक डीलिस्टिंग का सवाल है, जब SC की सूची में लिस्टिंग ही धर्म के आधार पर नहीं हुई है तो फिर आदिवासियों की डीलिस्टिंग धर्म के आधार पर कैसे हो सकती है? 1961 के लोकुर कमेटी रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है कि आदिवासी कोई भी धर्म को मानता है लेकिन उनकी जीवन शैली नहीं बदलती है. धर्म और नस्ल के आधार पर लिस्टिंग और डीलिस्टिंग को समझने के लिए हमें संविधान के अनुच्छेद 341 एवं 342, संविधान अनुसूचित जाति/जनजाति आदेश 1950 एवं लोकुर कमेटी की रिपोर्ट को पढना होगा.’’
वहीं दूसरा धड़ा, जो खुद को हिंदू धर्म के नजदीक मानता है, उसके नेताओं में से एक ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ के झारखंड प्रदेश मीडिया प्रभारी सोमा उरांव कहते हैं, ‘’शायद ग्लैडसन डुंगडुंग ने पूरा ऑर्डर पढ़ा नहीं है. ऑर्डर के 21वें प्वाइंट में ST समुदाय का भी जिक्र साफ तौर पर किया गया है. कोर्ट ने तो केंद्रीय कैबिनेट सचिव तक को आदेश दिया है कि देशभर में अगले चार महीने में कोर्ट के आदेश का पालन हो, इसे सुनिश्चित किया जाए. अब को कैबिनेट सचिव से पूछा जाना चाहिए कि अब भी धर्मांतरित लोगों को SC या ST के दर्जे का लाभ क्यों मिल रहा है.’’
सोमा उरांव अपनी बात को विस्तार देते हैं, “संविधान के आर्टिकल 25 के दूसरे खंड के भाग ख में इस धारा और धारा 4 के प्रयोजनों के लिए बौद्ध, सिख या जैन धर्म के मानने वाले व्यक्ति या हिंदू धर्म के किसी भी रूप या विकास को मानने वाले व्यक्ति जिनके अंतर्गत लिंगायत, आदिवासी, प्रार्थना समाज, आर्य समाज और स्वामी नारायण समाज के लोग हिंदू समझे जाएंगे. संविधान ही कहता है कि सभी आदिवासी हिंदू हैं. तो क्या इस देश में रहनेवाले कोई भी व्यक्ति संविधान से बाहर है क्या. मैं तो कहता हूं जिन्होंने धर्मांतरण कर लिया है उनको आदिवासी होने के नाते मिलने वाले अधिकार बहुत पहले छीन लिए जाने चाहिए थे. आदिवासी समाज के लोग इस वक्त कुड़मियों के ST दर्जे के मांग के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं. लेकिन ईसाई समाज के लोग बीते 70 सालों से उनके अधिकार छीन रहे हैं, असली आंदोलन तो उसके खिलाफ होना चाहिए.’’
वहीं तीसरा धड़ा जो हिंदू या ईसाई धर्म से इतर रखते हुए खुद केवल आदिवासी मानता है और सरना धर्मकोड की पुरजोर वकालत करता है, उसके नेताओं में से एक सरना धर्मगुरू बंधन तिग्गा कहते हैं, ‘’आरक्षण का लाभ मूल संस्कृति को मानने वालों को मिलना चाहिए. जो इसे नहीं मानते उनको निश्चित तौर पर नहीं मिलना चाहिए. धर्मांतरण किसी का व्यक्तिगत अधिकार है, इसका मतलब ये नहीं कि दोनों तरफ का लाभ लेंगे. ईसाईयों या हिंदूओं, सबका अपना कानून है. इसी तरह हम आदिवासियों का भी अपना कस्टमरी लॉ है. सबको एक साथ जोड़ने की जरूरत नहीं है.’’
हालांकि आदिवासियों में धर्मगुरू का कॉनसेप्ट पहले नहीं देखा गया. बीते कुछ वर्षों में बंधन तिग्गा ने खुद को और फिर बाद में लोगों ने उन्हें धर्मगुरू कहना शुरू किया है.
इन सब के बीच इन मुद्दों पर चल रही सामाजिक बहस और उसके किसी नतीजे पर न पहुंचने की प्रक्रिया में इन समाजों से आनेवाले युवाओं के बीच आपसी वैमनस्यता तेजी से बढ़ रही है. यह इन शांतिपूर्ण समाजों के लिए खतरे की बड़ी चेतावनी है.