हार और परिवार के संकट से घिरे तेजस्वी क्या उबार पाएंगे RJD को?
बिहार चुनाव के नतीजों और परिवार में मची कलह के बाद कहा जा रहा है कि लालू यादव का परिवार राजनीतिक खात्मे की तरफ बढ़ चुका है

बिहार चुनाव के नतीजे आने के तीन दिन बाद 17 नवंबर, 2025 को पटना में RJD के विधायक दल की बैठक होने वाली थी. इस बैठक में हार के कारणों की समीक्षा होनी थी लेकिन लालू परिवार में बीते दिनों हुए अंतर्कलह की प्रतिध्वनियां भी हर तरफ गूंज रही थीं. अपने सवाल उठा रहे थे और विरोधियों के स्वर में उपदेश भरा व्यंग्य था.
ये तीन दिन RJD नेता तेजस्वी यादव के जीवन के सबसे कठिन दिन रहे होंगे. उनके नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में पार्टी की सीटें एक तिहाई रह गईं और बड़ी बहन रोहिणी आचार्य ने यह इल्जाम लगाते हुए घर और पार्टी छोड़ दी कि उन्हें 'गंदी औरत' कहा गया और चप्पल से पीटने की धमकी दी गई.
इस दौरान तेजस्वी यादव पार्टी से लेकर परिवार तक हर मोर्चे पर असफल साबित बताए गए और उनको सवालों के घेरे में लाने की कोशिश हुई. अमूमन अपने करीबी सहयोगी संजय यादव के साथ कहीं जाने वाले तेजस्वी उस रोज एक बड़ी-सी कार में अपने पिता और राष्ट्रीय जनता दल के संस्थापक, राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव, अपनी मां और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी और अपनी सबसे बड़ी बहन मीसा भारती के साथ राबड़ी देवी के सरकारी आवास से निकले और पोलो रोड स्थित अपने सरकारी आवास पर पहुंचे. इशारा साफ था, इस संकट की घड़ी में लालू यादव ने मोर्चा संभाल लिया था और मीडिया, बिहार के लोग और पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच यह संदेश देने की कोशिश थी कि परिवार तेजस्वी के साथ है.
उनके आवास पर जहां विधायक दल की बैठक होने वाली थी, वहां नवनिर्वाचित विधायकों के साथ-साथ वे तमाम प्रत्याशी भी पहुंचे थे, जो चुनाव लड़े और हार गए. ये तमाम लोग जब बैठक के लिए जा रहे थे तो वहां सन्नाटा था और मीडिया के चुभते सवालों पर हर किसी ने चुप्पी साध ली थी. मगर बैठक के बाद जब वे निकले तो इस हार के लिए चुनाव आयोग की बेईमानी को जिम्मेदार ठहराया गया और जानकारी सामने आई कि उन लोगों ने फिर से तेजस्वी यादव को विधायक दल का नेता चुन लिया है.
RJD के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह ने तो मीडिया के सामने सनसनीखेज आरोप उछाल दिया. लालू के करीबी रहे जगदानंद जो पिछले कुछ महीनों से पार्टी गतिविधियों से दूर थे और रोहिणी आचार्य प्रकरण के बाद लालू से मिलने राबड़ी देवी के आवास में पहुंचे थे, ने कहा, “25 हजार वोट हर ईवीएम में पहले से मौजूद था. इसके बावजूद हमारे 25 विधायक जीत गए, हम लोग इसको सौभाग्य की बात मानते हैं.”
बैठक के बाद सामने आए RJD के मुख्य प्रवक्ता शक्ति सिंह यादव बोले, “अपनी बात रखने के बाद तेजस्वी यादव जी ने कहा कि अगर आप और किसी को नेता प्रतिपक्ष चुनना चाहते हैं तो आप चुनने के लिए स्वतंत्र हैं. लेकिन सभी लोगों ने एक सुर में तेजस्वी जी के नेतृत्व में ही आस्था व्यक्त की. राष्ट्रीय अध्यक्ष जी ने कहा कि हम इन्हें स्वतंत्र तौर पर काम करने की छूट देते हैं, इनके काम में किसी तरह का बाह्य या आंतरिक, घर या बाहर का दखल नहीं होगा और वे पार्टी को आगे लेकर जाएंगे. यह जनादेश मशीनरी मैनेजमेंट है. इसकी हम कई दौर की समीक्षा करेंगे. आम लोगों को भी लगता है कि हर विधानसभा में 25 से 30 हजार वोटों का करिश्मा हुआ है और इस करिश्मे से पार पा पाए, वही जीत पाए.”
इस बैठक के बाद यह करीब-करीब साफ हो गया कि जहां लालू यादव ने पारिवारिक विवाद की स्थिति में तेजस्वी का साथ दिया और साथ ही यह सुनिश्चित करने का वादा किया कि अब पार्टी को अकेले तेजस्वी ही अपने हिसाब से चलाएंगे. वहीं यह भी कहा कि अब परिवार की तरफ से कोई दखल उनके काम-काज में नहीं होगा. इसके साथ ही पार्टी ने हार की समीक्षा में इतना ही तय किया कि उनकी हार ईवीएम की गड़बड़ी की वजह से हुई है. हर विधानसभा क्षेत्र में औसतन 25 से 30 हजार वोटों की हेराफेरी हुई है.
मगर क्या इस संकट वाली स्थिति से RJD और उसके अब सर्वमान्य नेता तेजस्वी को उबारने के लिए इतना काफी है? सवाल यह भी है कि क्या लगभग 2010 वाली स्थिति में पहुंची पार्टी RJD फिर से इतनी मजबूत हो सकेगी कि वह बिहार की सत्ता हासिल कर सके? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इस बार के नतीजों के मुताबिक RJD राज्य में न सिर्फ तीसरे नंबर की पार्टी बन गई है, बल्कि तेजस्वी यादव को किसी तरह नेता-प्रतिपक्ष का पद हासिल हो सका है.
लालू यादव के बिना शर्त समर्थन के बाद तेजस्वी यादव भले ही पार्टी के निर्विवाद नेता बन गये हैं, मगर उनके सबसे करीबी सहयोगी संजय यादव के खिलाफ पार्टी समर्थकों का गुस्सा कम नहीं हो रहा. 17 नवंबर को ही राबड़ी आवास के बाहर पार्टी के कार्यकर्ता और समर्थक रोहिणी दीदी जिंदाबाद और संजय यादव मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे. रोहिणी आचार्य ने सोशल मीडिया में जो बातें सार्वजनिक तौर पर रखीं, उनका लब्बोलुआब यही था कि तेजस्वी के बहाने संजय यादव और रमीज का पार्टी पर कब्जा हो चुका है और अब वे परिवार के फैसलों में भी दखल देने लगे हैं.
इससे पहले लालू-राबड़ी के बड़े बेटे तेजप्रताप भी संजय यादव पर हमलावर हुए थे, जब उन्हें पार्टी और परिवार से बेदखल किया गया था. अभी-भी वे अपनी बहन रोहिणी आचार्य के साथ खड़े दिखते हैं. दरअसल इस घरेलू झगड़े की शुरुआत ही इस बात से हुई कि 14 नवंबर को हार के बाद रोहिणी ने इस हार की जिम्मेदारी संजय यादव पर डाल दी और तेजस्वी इस बात पर भड़क उठे और उनके मुंह से वह सब निकल गया जिसकी चर्चा रोहिणी ने सोशल मीडिया पर की है.
संजय यादव के खिलाफ गुस्सा आम पार्टी कार्यकर्ताओं में भी दिखता है. RJD दफ्तर में भी कई स्टाफ और कर्मचारी इस तरह की बातें करते नजर आते हैं. हालांकि विधायक दल की बैठक के वक्त अपने नेताओं के साथ राज्य के अलग-अलग कोनों से आए कार्यकर्ता कहते हैं, “हमारे लिए पार्टी का मतलब लालू, राबड़ी और तेजस्वी है. और कोई नहीं.” इन लोगों ने एक तरह से तेजप्रताप और रोहिणी को पार्टी का दुश्मन मान लिया है. मगर बड़ा सवाल पार्टी के भविष्य का है. क्या ईवीएम पर दोष डालकर और तेजस्वी और उनकी टीम को हर सवाल से परे करके पार्टी क्या फिर से उबर पाएगी? यह RJD के लिए सबसे बड़ा सवाल है.
इस संकट के बाद जहां जगदानंद सिंह पार्टी और परिवार के करीब आए हैं, वहीं उनके समकालीन RJD के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ज्यादा हमलावर नजर आते हैं. उन्होंने फेसबुक पर लिखा है, “इस चुनाव ने लालू यादव को धरती सुंघा दिया है. मैं लालू यादव का नाम ले रहा हूं, तेजस्वी का नहीं. क्योंकि तेजस्वी का अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है. वह लालू यादव की ही आधुनिक प्रतिकृति है. आपादमस्तक अहंकार से चूर. यह चुनाव लालू के राजनीति अवसान का भी स्पष्ट संकेत है.”
तो क्या सचमुच इस चुनाव के बाद RJD और लालू परिवार की राजनीति का अवसान हो जाएगा? राजनेता और विचारक प्रेम कुमार मणि भी कुछ-कुछ ऐसी ही राय रखते हैं. उनके मुताबिक, “आने वाले दिनों में RJD का हाल वैसा ही हो जाएगा जैसा उत्तर प्रदेश में BSP का हो गया है. इस चुनाव में RJD अपने लिए वोट तो जोड़ नहीं पाई बल्कि उनका आधार वोट बैंक माने जाने वाले यादव और मुस्लिम वोटों में भी बिखराव हुआ है. मुसलमानों ने बड़ी संख्या में AIMIM को वोट दिया है और यादवों समाज की महिलाओं ने महिला रोजगार योजना की वजह से NDA को. दूसरी बात RJD के वर्तमान नेतृत्व में संघर्ष की वह क्षमता नहीं दिखती कि वह पार्टी को उबार सके. ऐसी क्षमता कुछ हद तक राहुल गांधी में दिखती है, मगर तेजस्वी में नहीं.”
वहीं राजनीतिक टिप्पणीकार फैजान अहमद कहते हैं, "तेजस्वी लालू नहीं हैं. 2010 में जब RJD 22 सीटों पर सिमट गई थी तो उसे लालू ने रिवाइव किया था. मगर तेजस्वी में न उतनी समझ है, न सलाहियत. लालू ने जो बनाया अपने हाथों से बनाया, लेकिन उनके बच्चों को जो मिला, वह सजाकर तश्तरी पर मिला है. इसलिए वे अपनी विरासत को बचाने के लिए उतनी मेहनत नहीं कर रहे. मुझे अब बहुत उम्मीद नहीं है कि ये लोग RJD को आगे ले जा पाएंगे. उनका परिवार भी जिस तरह बिखर रहा है और उसके झगड़े लगातार सड़कों पर आ रहे हैं, यह भी इस बात का संकेत है कि पार्टी बिखर सकती है. मुझे लगता है कि लालू भी अब बहुत मजबूत नहीं हैं, किन परिस्थितियों में उन्होंने बिना शर्त सारे अधिकार तेजस्वी को सौंप दिए हैं, यह कहना मुश्किल है. अहमद यह भी कहते हैं कि ईवीएम में 25 हजार वोट पहले से पड़े थे, इसे पार्टी कैसे साबित करेगी? अगर उनको ऐसा अंदेशा था तो उन्हें पहले ही चुनाव का बहिष्कर करना चाहिए था.
हालांकि इस मसले को लेकर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के पूर्व प्राध्यापक पुष्पेंद्र का नजरिया थोड़ा अलग दिखता है. वे कहते हैं, “RJD ने सीटें जरूर गंवाई है, मगर हमें यह देखना होगा कि उसका वोट परसेंटेज बरकरार है. 2010 में भी RJD 22 सीटों पर आ गई थी, तब भी वह उस संकट से उबरी. इस बार भी उसे अपने साथ दूसरे समाज को जोड़ना है. अभी एक संकट जरूर है कि उनका आधार वोट दरक रहा है, मुस्लिम वोटों के मामले में AIMIM के रूप में एक प्रतिद्वंद्वी खड़ा हो गया है, यादवों के वोट में भी थोड़ी सेंधमारी हुई है. फिर भी RJD ठीक से मेहनत करे, आने वाली सरकार के बड़े-बड़े वादों की निगरानी करे, रोजगार के मुद्दे पर डटी रहे तो आने वाले दिनों में वह फिर पुरानी स्थिति में लौट सकती है.”
पारिवारिक विवादों पर पुष्पेंद्र की राय है, "अभी भले ही लालू परिवार के लिए शर्मिंदगी की स्थिति बनी हो, लेकिन लंबी अवधि में यह RJD के लिए बेहतर है कि लालू परिवार के लोग एक-एक कर दूर हो जाएं और पार्टी भी परिवारवाद के ठप्पे से बाहर निकले. मगर साथ ही पार्टी को अपनी छवि पर काम करना होगा क्योंकि उसकी छवि को लेकर कई शिकायतें हैं.”
पुष्पेंद्र कहते हैं, “जहां तक पार्टी के ईवीएम को दोष देने की बात है, उसे मैं तात्कालिक बयान के तौर पर देख रहा हूं. पार्टी हार गई है तो उसे अपने बचाव के लिए कुछ कहना है, वह कहा जा रहा है. मुझे लगता है पार्टी के सीनियर नेता अंदर ही अंदर हार के असली कारणों की भी समीक्षा कर ही रहे होंगे.”