बिहार में CAA के तहत सबसे पहले भारतीय नागरिकता पाने वालीं सुमित्रा की कहानी
बिहार में बीते करीब चार दशक से रह रहीं सुमित्रा को तब के नियमानुसार 33 साल पहले ही भारत की नागरिकता मिल जानी चाहिए थी लेकिन अब जाकर CAA कानून के जरिए वे वैध भारतीय बन पाई हैं

पिछले 40 साल से बिहार के आरा शहर में रह रहीं सुमित्रा रानी साहा को सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) के तहत नागरिकता मिल गई है. इस तरह वह बिहार में रहने वाली ऐसी पहली महिला बन गई हैं, जिन्हें केंद्र सरकार के इस अति महत्वाकांक्षी कानूनी संशोधन का लाभ मिला है.
2019 में लागू हुआ यह कानून अपने उन खास प्रावधानों के लिए काफी विवादित हुआ था जिसके तहत इस कानून का लाभ भारत के पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के वे अल्पसंख्यक उठा सकते हैं, जो अपने देशों में धार्मिक कारणों से प्रताड़ित हो रहे हों और भारत की नागरिकता लेना चाहते हों.
इस कानूनी संशोधन में हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को तो शामिल किया गया था, लेकिन मुसलमानों को इससे दूर रखा गया था. इस वजह से इस कानून के खिलाफ देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए थे.
सुमित्रा रानी साहा आरा में अब तक बांग्लादेश के नागरिक के तौर पर रह रही थीं. हालांकि वे भारत इसलिए नहीं आई थीं कि उन्हें धार्मिक अल्पसंख्यक होने की वजह से बांग्लादेश में प्रताड़ित किया जा रहा था. उनकी शादी आरा शहर के व्यवसायी परमेश्वर प्रसाद से हुई थी, इसी वजह से वे बांग्लादेश से भारत आईं.
इंडिया टुडे को अपनी कहानी बताते हुए 60 साल की सुमित्रा कहती हैं, "हमलोग भारत के ही रहने वाले थे. मेरे पिता मदन गोपाल चौधरी कटिहार में रहते थे. उनको पैसों की दिक्कत रहती थी, इसलिए जब हम चार-पांच साल के थे, तब उन्होंने हमको हमारी बुआ के पास बांग्लादेश के राजशाही शहर भेज दिया. वहीं दसवीं तक मेरी पढ़ाई लिखाई हुई. वहां का कागज भी बन गया तो हम बांग्लादेश के नागरिक भी बन गये."
भारत-बांग्लादेश की सीमा पर स्थित राजशाही शहर बांग्लादेश का बड़ा शैक्षणिक और व्यावसयिक केंद्र माना जाता है. यह बिहार के कटिहार से सिर्फ दो सौ किमी की दूरी पर है. अंग्रेजों के जमाने में कुछ अरसे के लिए कटिहार का इलाका राजशाही कमिश्नरी का हिस्सा हुआ करता था. सुमित्रा की बुआ भी भारत की ही रहने वाली थी, मगर राजशाही में ब्याही थी. इसलिए वहीं की नागरिक हो गई थीं.
सुमित्रा बताती हैं, "जब मेरी शादी की उम्र हुई तो मेरे पिता ने कहा, इसकी शादी भारत में ही करायेंगे. आरा में मेरी शादी हुई और 1985 में हम यहां आ गये. उस समय तक कानून बहुत टाइट हो गया था, इसलिए यहां आने के लिए हमको बांग्लादेश का पासपोर्ट बनवाना पड़ा और वीजा लेना पड़ा. तब जो यहां आये तो हम यहीं रह गये. सालों साल यहां का वीजा कराना पड़ता था. अब यहां के नागरिक हो गये तो हमको बहुत खुशी है. अब हम भी आप लोगों के तरह इंडियन हो गये हैं. हमको अब कोई यहां से भगा नहीं सकता."
तीन जनवरी, 2025 को सीएए के तहत मिली नागरिकता के प्रमाणपत्र में सुमित्रा देवी के भारत आने की तारीख 27 जनवरी 1985 दर्ज है. यह अपने आप में हैरत की बात है कि सुमित्रा देवी जो भारतीय नागरिक से 40 साल पहले विवाहित हुई थीं, उन्हें भारतीय नागरिकता के लिए चार दशक तक लंबा इंतजार करना पड़ा. इस बीच उनके पति भी गुजर गये और उनकी तीन बेटियां बड़ी हो गईं, उनमें दो की शादी भी हो गयी.
1955 के भारतीय नागरिकता कानून की धारा 5(1)(सी) के मुताबिक, कोई भी विदेशी महिला अगर किसी भारतीय नागरिक से शादी करती है और सात साल तक भारत में रहती है तो वह भारतीय नागरिकता की पात्र हो जाती है. इस लिहाज से सुमित्रा बहुत पहले भारतीय नागरिक होने की पात्र हो गई थीं, फिर भी उन्हें इसके लिए सीएए कानून का सहारा लेना पड़ा. जो कानून पड़ोसी देशों में धार्मिक आधार पर प्रताड़ित होने वाले अल्पसंख्यकों (गैर मुस्लिम) को नागरिकता देने के लिए बना था.
इस मसले पर बात करने पर पटना स्थित चाणक्य लॉ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रोफेसर फैजान मुस्तफा कहते हैं, "सुमित्रा का जो मामला आपने बताया है, उस लिहाज से उन्हें नागरिकता के लिए सीएए कानून का सहारा लेने की नौबत नहीं आनी चाहिए थी. यह विशेष कानून है और विशेष परिस्थितियों के लिए बना है. उन्हें तो सिटिजनशिप एक्ट के तहत ही काफी पहले नागरिकता मिल जानी चाहिए थी."
मगर हैरत की बात है कि सीएए कानून के तहत जिस पहले व्यक्ति को भारत की नागरिकता मिली, वह भी सामान्य नागरिकता कानून के जरिये भारत की नागरिकता पा सकता था. असम के सिलचर में पिछले 35 साल से रह रहे उक्त हिंदू व्यक्ति ने भी काफी पहले भारतीय महिला से शादी की. उसे सामान्य नियम के तहत नागरिकता मिल सकती थी, मगर उसने इसके लिए सीएए का सहारा लिया.
सुमित्रा की छोटी बेटी ऐश्वर्या प्रसाद जिसने अपनी मां को भारत की नागरिकता दिलाने के लिए सीएए कानून के तहत ऑनलाइन आवेदन किया, बताती हैं, "मैंने कभी सामान्य नागरिकता कानून के तहत अपनी मां के लिए आवेदन नहीं किया. हमें इसके बारे में पता ही नहीं था. हम मजबूरी में हर साल अपनी मां का वीजा बनवाते थे. इसके लिए काफी परेशानी झेलनी पड़ती थी. वीजा का टाइम खत्म होने लगता था, तो सीआईडी से और विदेश शाखा से अधिकारी आकर पूछताछ करने लगते थे. एक बार तो आरा टाउन थाने की पुलिस ने मुझे कह दिया कि आप अपनी मां को लेकर बांग्लादेश चले जाइये."
मगर किसी अधिकारी ने कभी सुमित्रा या उनकी बेटी को यह सलाह नहीं दी कि वे भारतीय नागरिकता कानून की धारा 5(1)(सी) के तहत आवेदन करें, उन्हें भारत की नागरिकता मिल जायेगी.
ऐश्वर्या आगे बताती हैं, "मां को भारत की नागरिकता नहीं थी, इस वजह से हमलोगों को काफी परेशान होना पड़ा. हमलोग तीन बहने हैं, हमारे रिश्तेदारों की हमारी संपत्ति पर नजर थी. मेरे पिता की मृत्यु 2010 में हो गई. इसके बाद रिश्तेदार मेरी मां से कहते, तीनों बेटी की शादी कर दो और सारी जायदाद हमलोगों को दे दो. मगर मेरी मां तैयार नहीं थी. ऐसे में गोतिया लोग हमको धमकाने लगे. चाचा के लड़के ने कहा, तुमलोगों को बांग्लादेश भिजवा देंगे. नहीं जाओगी तो तुम्हारी मां को जेल भिजवा देंगे."
मगर सुमित्रा की तीनो बेटियों ने तय किया कि वे अपनी मां को भारत की नागरिकता दिला कर रहेंगी. ऐश्वर्या के ही शब्दों में, "जब मुझे सीएए कानून का पता चला तो यू-ट्यूब से देखकर मैंने अक्तूबर, 2024 में इसके लिए अप्लाई किया. पहली बार में रिजेक्ट हो गया, तो फिर नवंबर में दुबारा अप्लाई किया और अब मेरी मां को भारतीय नागरिकता मिल गई है."
अपनी मां को नागरिकता मिलने के बाद वे भोजपुर जिले के ही एक पाकिस्तानी परिवार को नागरिकता दिलाने में मदद कर रही हैं. वे बताती हैं, "वे लोग काफी गरीब हैं. उनकी पत्नी भी मेरी मां की तरह पाकिस्तान से आई हैं. मुसलमान हैं. लेकिन फिर भी उनको नागरिकता मिलनी चाहिए. हमसे जितना संभव होगा, उनकी मदद करेंगे."
यह बताने पर कि मुस्लिम व्यक्ति को सीएए कानून के जरिये भारत की नागरिकता नहीं मिल सकती है, ऐश्वर्या कहती हैं, "ऐसा क्यों है? कानून तो सबके लिए बराबर होना चाहिए. इसमें हिन्दू-मुस्लिम का भेद नहीं होना चाहिए."
ऐश्वर्या जिस मुस्लिम महिला का जिक्र कर रही हैं, उनकी कहानी भी कमोबेश ऐश्वर्या की मां की कहानी जैसी ही है. अंसारी बेगम जो पाकिस्तान की पंजाब की रहने वाली थीं, 1989 में अपने भारतीय रिश्तेदारों से मिलने भोजपुर आई थीं. तभी उनकी यहां आलमगीर कुरैशी से शादी हो गई. शादी के बाद वे पाकिस्तान लौट गईं, मगर फिर वहां से 1994 में उनके घर वालों ने उन्हें ससुराल के लिए विदा कर दिया. वीजा करवाकर.
आलमगीर बताते हैं, "तब से मेरी बीवी लगातार मेरे साथ रह रही है. बीच-बीच में थोड़े दिनों के लिए मायके जाती है, फिर लौट आती है. हमको भी बार-बार उसका वीजा करवाना पड़ता है. पहले एक साल पर वीजा होता था, अब दो साल पर होता है. हमलोगों को सबसे अधिक मुसबीत तब होती है, जब हमें उसका पासपोर्ट अपडेट करवाना होता है, उसके लिए हमें या तो दिल्ली के पाकिस्तान दूतावास में जाना पड़ता है, या पाकिस्तान. वहां कोई नियम बदलता है, तो फिर दौड़ कर हमें पाकिस्तान जाना पड़ता है. हमको पहले मालूम नहीं था कि उसको भारत की नागरिकता मिल सकती है. दो साल पहले पता चला तो एक साइबर कैफे से ऑनलाइन अप्लाई किया है. मगर अभी तक कोई जवाब नहीं आया है."
तय नियमों के मुताबिक अंसारी बेगम को भारतीय नागरिकता मिल जानी चाहिए थी. मगर उन्हें आज भी भारतीय नागरिकता का इंतजार है.
इस मसले पर बात करते हुए टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, पटना के पूर्व निदेशक पुष्पेंद्र कहते हैं, "नागरिकता का मामला काफी जटिल है, धर्म इसका आधार नहीं है. इस केस में हम देखते हैं कि ऐश्वर्या की सहानुभूति अंसारी बेगम से इसलिए है, क्योंकि उसकी मां और अंसारी दोनों एक तरह की परेशानी झेलती रहीं."
वे आगे कहते हैं, "वहीं यह भी समझ आता है कि जो काम नागरिकता के सामान्य कानून से हो सकता था, उसके लिए सीएए जैसे विशेष प्रावधान का सहारा लिया जा रहा है जो धार्मिक उत्पीड़न के शिकार अल्पसंख्यकों के लिए बना था. मुझे लगता है कि अगर विदेश सेवा के अधिकारियों ने इन महिलओं को बार-बार वीजा बनवाने के लिए मजबूर करने के बदले समय से इन्हें नागरिकता का आवेदन करने कहा होता तो सुमित्रा और अंसारी जैसी महिलाएं दशकों से परेशान न हुई होती."