बांग्लादेश की ‘आयरन लेडी’ या निरंकुश शासक! क्या है शेख हसीना की विरासत?
बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना देश के शीर्ष पद पर कुल मिलाकर 20 साल तक रहीं और जिस तरह के उतार-चढ़ाव उन्होंने इस दौरान देखे, अब भी नहीं कहा जा सकता ताजा घटनाक्रम उनकी राजनीति का अंत है

तारीख थी 15 अगस्त, 1975. हम भारत के लोग तकरीबन दो महीने पहले आपातकाल में झोंके जा चुके थे. एक 'कद्दावर' नेता, जिन्होंने चार साल पहले ही दुश्मन मुल्क के दो टुकड़े किए थे, वही इस असंवैधानिक कालचक्र की जिम्मेदार थीं. मगर यह कहानी इस नेता की नहीं, दुश्मन मुल्क के एक 'टुकड़े' की है, जिसने अलग होने को आजादी का पर्याय कहा - बांग्लादेश.
1975 में 15 अगस्त को बांग्लादेश के पहले प्रधानमंत्री और देश के सबसे बड़े नेता शेख मुजीबुर रहमान की ढाका स्थित उनके आवास में हत्या कर दी गई थी. सिर्फ शेख मुजीब की नहीं बल्कि तख्तापलट के दौरान उनकी पत्नी, भाई, तीन बेटे, दो बहुएं और कई अन्य रिश्तेदार, निजी कर्मचारी, पुलिस अधिकारी, बांग्लादेश सेना के एक ब्रिगेडियर जनरल और कई अन्य लोग मारे गए.
मुजीब की हत्या के वक्त शेख हसीना पश्चिम जर्मनी में थीं. वे और उनकी बहन रेहाना उस नरसंहार में बच गईं जिसमें उनके छोटे भाई शेख रुसेल सहित उनका पूरा परिवार मारा गया था. इस हत्याकांड के बाद हसीना ने छह साल तक भारत में शरण ली. इस दौरान उन्होंने भारतीय कांग्रेस नेता प्रणब मुखर्जी और गांधी परिवार खूब करीबी बढ़ाई.
1981 को जब शेख हसीना बांग्लादेश लौटीं तब तक अवामी लीग ने उनकी अनुपस्थिति में ही उन्हें अपना महासचिव चुन लिया था. बांग्लादेश के विशेषज्ञ शेख हसीना और पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की राजनीतिक यात्रा के बीच एक अनोखी समानता देखते हैं. जिस तरह कांग्रेस के दिग्गज नेता के. कामराज ने इंदिरा गांधी को 'गूंगी गुड़िया' के रूप में प्रधानमंत्री बनाया था, उसी तरह अवामी लीग के दिग्गजों की भी हसीना के लिए ऐसी ही योजना थी.
चटगांव विश्वविद्यालय के बंगबंधु अध्यक्ष मुंतस्सिर मामून ने इंडिया टुडे से बातचीत में कहते हैं, "अवामी लीग में विभाजन था और दिग्गजों ने उन्हें वापस लाकर और उन्हें एक डमी प्रमुख के रूप में रखकर सत्ता में बने रहने की योजना बनाई थी, लेकिन आगे चलकर वे पार्टी की सबसे बड़ी नेता बन गईं."
शेख हसीना के बांग्लादेश लौटने के वक्त मिलिट्री शासक मोहम्मद इरशाद देश की सत्ता पर काबिज थे. इरशाद के शासन के खिलाफ लड़ाई मुश्किल तो थी ही, इधर जिया सरकार के खिलाफ लड़ाई भी कम नहीं थी. पूर्व सैन्य शासक जिया-उर रहमान की विधवा खालिदा जिया ने बीएनपी (बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी) की स्थापना की थी.
10 नवंबर 1987 को सैन्य शासक मोहम्मद इरशाद के नेतृत्व में पुलिस ने शेख हसीना पर हमला किया, जिसमें अवामी लीग के तीन युवा सदस्य मारे गए. फिर वो हुआ जो बांग्लादेश की जनता ने कभी सोचा ना था. इरशाद के असफल शासन की दुहाई देते हुए देखते ही देखते, हसीना और उनकी विरोधी खालिदा जिया ने हाथ मिला लिया और लोकतंत्र की मांग करते हुए एक गठबंधन बनाया. 1990 के अंत में, दोनों नेताओं के बुलावे पर लाखों की भीड़ ढाका में घुस गई.
आखिरकार दबाव में आकर 4 दिसंबर, 1990 को इरशाद को इस्तीफ़ा देना पड़ा. फरवरी 1991 में आम चुनाव हुए जिसमें बीएनपी ने जीत हासिल की और खालिदा जिया प्रधानमंत्री के पद पर बैठीं. इधर शेख हसीना मुख्य विपक्षी नेता बन गई थीं.
30 अप्रैल, 1991 को बांग्लादेश में एक भयंकर चक्रवात आया, जिससे भारी बाढ़ आई और कम से कम 1,40,000 लोग मारे गए. अवामी लीग की विपक्षी नेता शेख हसीना, बीएनपी सरकार के प्रतिक्रिया देने से पहले चटगांव के पास प्रभावित क्षेत्रों में पहुंच गईं. हसीना ने मांग की कि प्रधानमंत्री खालिदा जिया सहायता में देरी के लिए नैतिक जिम्मेदारी लें और इस्तीफा दें. तबाह हुए इलाकों में हसीना के दौरे ने उन्हें जनता की नजरों में जगह दिला दी थी, जिसकी वजह से अगले कुछ महीनों में बीएनपी ने उन पर हिंसक हमले भी करवाए. मगर अप्रैल 1991 का वह चक्रवात हसीना के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ, जो उनके राजनीतिक पुनरुत्थान का प्रतीक बना.
ज़िया सरकार को चक्रवात के प्रभाव से उबरने में काफी संघर्ष करना पड़ा और 1996 के चुनाव में जनता ने शेख हसीना को प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठाया. यह पहला मौका था जब शेख हसीना अपने पिता की ताकत को खुद में महसूस कर पा रही थीं. अपने पांच साल के शासन के दौरान हसीना ने देश-विदेश दोनों को साधे रखा. एक तरफ जहां अपने देश में उन्होंने चकमा समुदाय से शांति समझौता किया तो वहीं दूसरी ओर भारत के साथ 30 साल के लिए गंगा जल संधि पर हस्ताक्षर किए.
इन सब के बावजूद, शेख हसीना 2001 का चुनाव हार गईं और बीएनपी, जमात-ए-इस्लामी, जातीय पार्टी (मंजू) और इस्लामिक ओइक्यो जोटे के नेतृत्व वाले चार-दलीय गठबंधन की सरकार बनी.
बीएनपी के नेतृत्व वाली इसी सरकार ने आगे चलकर भारत के पूर्वोत्तर में अलगाववादी समूहों (जैसे उल्फा) का कथित रूप से समर्थन किया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खूब आलोचना झेली. इधर देश में व्यापक भ्रष्टाचार की वजह से लोग सड़कों पर उतर आए. जनवरी 2007 में बांग्लादेश की सेना ने सत्ता संभाली और आपातकाल लागू कर दिया. चुनाव स्थगित हो गए. इसी दौरान शेख हसीना को भी भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में डाल दिया गया मगर इससे जनता में उनकी छवि और मजबूत हुई.
सैनिक शासन हटने के बाद हसीना को इस छवि का फायदा मिला और 2008 का चुनाव जीतकर वे एक बार फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गई थीं. इस बार वाली हसीना 1996 से काफी अलग थीं. इस बार वे एक लंबे अरसे के लिए सत्ता संभालने आई थीं और उन्होंने ऐसा किया भी. भारत के साथ संबंधों को मजबूत करने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत लगा दी. तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे को लेकर जहां उन्होंने भारत से समझौता किया तो वहीं ऐतिहासिक भूमि सीमा समझौते पर भी बातचीत शुरू कर दी.
2014 के चुनावों में जब हसीना वापस सत्ता में लौटीं तो अगले ही साल उन्होंने भारत के साथ भूमि सीमा समझौता पक्का कर दिया था. दरअसल 1947 में भारत-पाकिस्तान के दौरान भारत और पूर्वी-पाकिस्तान की सीमा से सटे कुछ एन्क्लेव (किसी देश की जमीन का टुकड़ा जो दूसरे देश के भूभाग से घिरा हो) दोनों देशों के बीच सीमा रेखा की अस्पष्टता की वजह बने हुए थे. समझौते के तहत, भारत को 71 बांग्लादेशी एन्क्लेव में से 51 मिले जो कि भारत के अंदर थे, जबकि बांग्लादेश को 103 भारतीय एन्क्लेव में से 95 से 101 प्राप्त हुए जो कि बांग्लादेश के अंदर थे.
2014 में विपक्षी पार्टी बीएनपी ने विपक्ष को कमजोर करने का आरोप लगते हुए चुनावों का बहिष्कार किया था. इन सब से बेफिक्र हसीना ने इस्लामिक अतिवादियों के खिलाफ जंग छेड़ी और उनका लगभग सफाया कर दिया. वरिष्ठ पत्रकार स्वदेश रॉय बताते हैं, "हसीना ने अपनी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के कार्ड बहुत ही चतुराई से खेले, जबकि उनके विरोधी 1980 और 1990 के दशक में ही अटके रहे और मौजूदा हालात को समझ नहीं पाए. वे कोई भी चालाकी नहीं दिखा पाए और मात खा गए."
स्वदेश रॉय और मुंतस्सिर ममून दोनों ने ही हसीना के काम को बांग्लादेश में उनके निर्विवाद नेतृत्व का कारण बताया और कहा कि कम से कम फिलहाल तो बांग्लादेश में विपक्ष अप्रासंगिक हो गया है. वहीं बीएनपी के सूचना एवं प्रौद्योगिकी मामलों के सचिव एकेएम वहीदुज्जमां ने इंडिया टुडे को बताया, "शेख हसीना 1996 में एक ऐसी पार्टी की नेता थीं, जिसके पास संसद में स्पष्ट बहुमत नहीं था. उसके पास 140 सीटें थीं, जबकि बीएनपी के पास 116 सीटें. इसलिए, संसद को रबर स्टैंप के रूप में इस्तेमाल करना और न्यायपालिका, पुलिस और प्रशासन को भ्रष्ट करना मुश्किल था, लेकिन 2023 में संसद में उस प्रचंड बहुमत के कारण, जिसका आनंद वे 2009 से उठा रही हैं, उन्होंने व्यावहारिक रूप से संसद को एक रबर स्टैंप में बदल दिया है और इसका उपयोग न्यायपालिका और कार्यपालिका को भ्रष्ट करने के लिए किया ताकि धीरे-धीरे एक निरंकुश सरकार स्थापित हो सके."
इसी साल 2024 में भी बीएनपी ने चुनाव का बहिष्कार किया था. राजनीति विज्ञान विशेषज्ञ मुंतस्सिर ममून कहते हैं कि हसीना ने अपने शासन के दौरान जो अभूतपूर्व विकास किया है, वह गेम-चेंजर रहा. वे राजमार्गों, पुलों, बंदरगाहों और मेट्रो रेल परियोजना की ओर इशारा करते हैं. ममून कहते हैं कि यह व्यापार समर्थक, गरीब समर्थक और विकास की ओर उन्मुख शासन है जिसने शेख हसीना को घरेलू समर्थन दिलाया और विपक्ष को अप्रासंगिक बना दिया.
31 जुलाई, 2024 को शेख हसीना बांग्लादेश की सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने वाली प्रधानमंत्री बनीं, जिनका कार्यकाल कुल 20 साल रहा. मगर इस बार नौकरी कोटा को लेकर चल रहे छात्रों के विरोध प्रदर्शनों ने शेख हसीना की दो दशक पुरानी सत्ता को मात दे दी. इस प्रदर्शन में 200 लोगों की मौत हो गई.
दरअसल 1971 में हुई आजादी की लड़ाई के बाद से बांग्लादेश में स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चों के लिए 30 प्रतिशत नौकरी कोटा है. यह एक ऐसा समूह है जो पारंपरिक रूप से हसीना की अवामी लीग का समर्थन करता रहा है. अक्टूबर 2018 में, हसीना ने छात्र विरोध के जवाब में सभी कोटा खत्म करने पर सहमति भी जता दी थी मगर ढाका उच्च न्यायालय ने 5 जून, 2024 को कोटा बहाल कर दिया.
इसके बाद छात्रों ने फिर से विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया और हसीना सरकार ने कोटा प्रणाली को जारी रखने के अपने विरोध को दर्शाते हुए बांग्लादेश की सुप्रीम कोर्ट में अपील की. बांग्लादेश में भारत की पूर्व उच्चायुक्त वीणा सीकरी बताती हैं, "इस प्रदर्शन के बीच वे राजनीतिक दल हैं जिन्होंने जनवरी 2024 के चुनावों में भाग नहीं लेने का फैसला किया (बीएनपी) या जिन्हें भाग लेने से रोक दिया गया (जमात-ए-इस्लामी). वे शेख हसीना से इस्तीफा दिलवाकर सत्ता परिवर्तन के लिए छात्रों के आंदोलन को अपने कब्जे में लेने की कोशिश कर रहे हैं."
5 अगस्त, 2024 की खबर के मुताबिक इसका कुछ हिस्सा सही हो भी गया. शेख हसीना पीएम के पद से इस्तीफ़ा देकर देश छोड़ चुकी हैं. सूत्रों के हवाले से खबर है कि वे भारत में शरण ले सकती हैं. शेख हसीना के देश छोड़ने से भारत की सीमा पर स्थित देश में और भी अस्थिरता पैदा होने का खतरा है, जो पहले से ही बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से लेकर जलवायु परिवर्तन तक कई संकटों से जूझ रहा है. हसीना को टीवी पर अपनी बहन के साथ सैन्य हेलीकॉप्टर पर चढ़ते हुए देखे जाने के कुछ घंटों बाद, देश के सैन्य प्रमुख जनरल वकर-उज-जमान ने कहा कि वे अंतरिम सरकार बनाने के लिए राष्ट्रपति से मार्गदर्शन मांगेंगे.
इसी के साथ फिलहाल तो शेख हसीना के लगातार 15 के शासन का दौर ख़त्म हो चुका है. मगर बांग्लादेश की 'आयरन लेडी' कही जाने वाली शेख हसीना का क्या वाकई यह राजनैतिक अंत है? यह कहना अभी-भी मुश्किल है. इसका जवाब तो वक्त ही देगा मगर जो खत्म हो किसी जगह, ये ऐसा सिलसिला नहीं लगता.