महिलाओं के संपत्ति में अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट ने कैसे बढ़ा दी आदिवासियों की उलझन?

सुप्रीम कोर्ट ने 22 अक्टूबर को अपने एक फैसले में कहा है कि आदिवासी महिलाओं के लिए पैतृक संपत्ति में अधिकार हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम से तय नहीं हो सकता

झारखंड की एक आदिवासी महिला अपने बच्चे के साथ
झारखंड की एक आदिवासी महिला अपने बच्चे के साथ

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से देशभर की आदिवासी महिलाओं को बड़ी उम्मीद बंधी थी. उन्हें लग रहा था कस्टमरी लॉ (आदिवासियों के परंपरागत कानून) के नाम पर पैतृक संपत्ति के अधिकार से बेदखली खत्म हो जाएगी. लेकिन एक बार फिर उनकी उम्मीदों पर पानी फिरता नजर आ रहा है. बीते 17 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि आदिवासी महिलाओं को पिता की संपत्ति में अधिकार मिलना चाहिए. 

तब जस्टिस संजय करोल और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि भले ही हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता, इसका मतलब यह नहीं है कि आदिवासी महिलाओं को स्वतः ही विरासत से बाहर कर दिया जाए. 

अब इसी तरह के एक दूसरे मामले की सुनवाई के दौरान बीते 22 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शेड्यूल  ट्राइब्स यानी अनुसूचित जनजाति के कानून अलग होते हैं और इसीलिए उन्हें हिंदू एक्ट्स के तहत नहीं चलना होता. जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की बेंच ने कहा, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के सेक्शन 2 में साफ़ लिखा है कि इस एक्ट का कोई भी प्रावधान अनुसूचित जनजातियों पर अप्लाई नहीं होगा. इसलिए ऐसा करने के लिए पूरे हिंदू सक्सेशन एक्ट में बदलाव करना होगा जो अभी संभव नहीं है. दूसरा कि इस देश में अलग-अलग धर्मों और संस्कृतियों से आने वाले लोग अलग-अलग कानून से संचालित किए जाते हैं और उनके अपने कानून का महत्व है. 

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के एक आदेश के खिलाफ आया है. जिसमें हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा था कि, हिमाचल प्रदेश राज्य के जनजातीय क्षेत्रों की बेटियां अब संपत्ति की उत्तराधिकारिणी हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अनुसार होंगी, न कि परंपराओं और प्रथाओं के अनुसार. इसका उद्देश्य महिलाओं को सामाजिक अन्याय और शोषण से बचाना है. कोर्ट का कहना था कि समाज को आगे बढ़ाने के लिए कानूनों को समय के साथ विकसित होना चाहिए. 

कहीं निराशा, कहीं यथास्थितिवाद 

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद आदिवासी समाज की महिलाओं में कहीं निराशा के भाव हैं, तो कहीं यथास्थितिवाद की पैरवी हो रही है. आदिवासी महिलाओं के अधिकार को लेकर मुखर रहनेवाली झारखंड की रजनी मुर्मू सिदो कानू मुर्मू यूनिवर्सिटी में सामाजिक विज्ञान की प्रोफेसर हैं. वे कहती हैं, “कोर्ट का इस तरह से फैसला बदलना, आदिवासी मर्दों की उग्रता और विरोध का परिणाम है. मर्दों ने कोर्ट के पूर्व के फैसले के खिलाफ मुखर होकर बोला. उसे चैलेंज करने की बात कही, इसी वजह से कोर्ट बैकफुट पर आ गया. सत्ता औरतों के पक्ष में स्टैंड नहीं ले पाती. खास कर तब, जब धर्म और पुरूषों की भावना आहत होने का खतरा हो.” 

ओडिशा की महिला अधिकार कार्यकर्ता पद्मश्री तुलसी मुंडा कहती हैं, “कोर्ट बार-बार अपने फैसले क्यों बदल रही है ये मुझे नहीं पता. लेकिन देशभर में आदिवासी महिलाएं अब पैतृक संपत्ति में हिस्सा लेने के लिए आवाज उठा रही हैं, उन्हें सुना जाना चाहिए. आदिवासी परिवार में अब धीरे-धीरे जमीन को लेकर भाई-बहन में विवाद उठने लगा है.’’  

आदिवासी समाजों में परंपरा रही है कि अगर बेटी ने शादी नहीं किया तो उसे पिता की संपत्ति में हिस्सा मिलता रहा है. हां, शादी के बाद उसे पति की संपत्ति का हिस्सेदार माना जाता है. इस बात का जिक्र करते हुए तुलसी कहती हैं, “यह अधिकार कागजी तौर पर नहीं है, लेकिन आदिवासी महिलाएं साधिकार अपने पति की संपत्ति की हिस्सेदार रहती हैं. लेकिन मैं एक बात जरूर कहूंगी, बदलाव समाज तय करेगा, कोर्ट नहीं.’’ 

वहीं राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की सदस्य और रांची की पूर्व मेयर आशा लकड़ा के मुताबिक, “आदिवासी अपने समाज के बनाए नियमों से चलता है. संविधान भी इसकी अनुमति देता है. जहां तक बात आदिवासी महिलाओं की तरफ से उनके पैतृक संपत्ति में हिस्सा मांगने की है तो ये मांग लगातार उठती रही है. वर्तमान नियम में अगर बदलाव करना है तो पहले समाज और फिर संसद अगर इसे बदलती है, तो मेरे लिए ये बड़ी बात होगी.’’ लेकिन क्या इन महिलाओं को संपत्ति में अधिकार मिलना चाहिए, इस सवाल का सीधा जवाब आशा लकड़ा नहीं देतीं. 

इधर आदिवासी समाज के पुरुषों के लिए यह राहत भरा फैसला हो सकता है. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व के फैसले के बाद कई बड़े नेताओं ने इस पर चिंता जाहिर की थी. छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ आदिवासी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम ने कहा था कि ट्राइबल कस्टमरी लॉ देश के सामान्य कानून से बड़ा है. संविधान ने भी यही माना है, अगर दोनों में विवाद हो तो कस्टमरी लॉ बड़ा है. वहीं झारखंड के सरना धर्मगुरू बंधन तिग्गा ने कहा था कि वही महिलाएं आवाज उठा रही हैं जिन्होंने किसी गैर-आदिवासी से शादी कर ली है या फिर धर्म परिवर्तन कर लिया है. उसमें भी जो धर्म परिवर्तन के बाद दूसरे समाज या धर्म से सताई गई महिलाएं हैं, वो पैतृक संपत्ति में अधिकार मांग रही है. फिलहाल दोनों ही कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हैं. 

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