क्यों अमेरिकी डॉलर के आगे लुढ़का रुपया; इस गिरावट से आम लोगों के जीवन पर क्या असर पड़ेगा?

अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय करेंसी की वैल्यू पहली बार 86 रुपए के पार चली गई है. डोनाल्ड ट्रंप के शपथ ग्रहण से पहले ही भारतीय रुपए का कमजोर होना देश की अर्थव्यवस्था के लिहाज से सही नहीं है

भारतीय रुपया का वैल्यू डॉलर के मुकाबले लगातार गिर रहा है
भारतीय रुपया का वैल्यू डॉलर के मुकाबले लगातार गिर रहा है

1947 में देश की आजादी के वक्त भारत का एक रुपया अमेरिका के एक डॉलर के बराबर था. साल खत्म होते-होते अमेरिका का एक डॉलर भारत के 3 रुपया के बराबर हो गया. अब देश की आजादी के करीब 77 साल बाद भारतीय करेंसी रुपया अपने सबसे निचले स्तर पर है. फिलहाल एक अमेरिकी डॉलर भारत के 86.04 रुपए के बराबर है.

इसके साथ ही पीएम नरेंद्र मोदी का 15 अगस्त 2013 को दिया गया एक बयान चर्चा में है. दरअसल, गुजरात के सीएम रहते हुए उन्होंने तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर तंज कसते हुए कहा था, "एक समय था जब भारतीय रुपया बहुत शोर मचाता था, लेकिन आज इसकी आवाज खत्म हो गई है. इसी तरह हम अपने प्रधानमंत्री की आवाज भी नहीं सुन पा रहे हैं. दोनों ही गूंगे हो गए हैं."

पूर्व पीएम मनमोहन सिंह की तुलना में पीएम नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत करीब 8 रुपए ज्यादा घटी है. आखिर डॉलर के आगे कैसे हमारा रुपया कमजोर होता है, दुनिया में सबसे कमजोर करेंसी किस देश की है, रुपए की कीमत या वैल्यू घटने से हमारे देश के आम लोगों की जिंदगी पर क्या असर होगा. एक-एक कर ऐसे सभी जरूरी सवालों के जवाब आसान भाषा में जानते हैं…

अमेरिकी डॉलर के आगे हमारा रुपया कितना लुढ़का है?

10 जनवरी को अमेरिकी सरकार ने रोजगार को लेकर एक डेटा जारी किया. यह डेटा अमेरिकी सरकार की उम्मीद से भी ज्यादा अच्छा है. दरअसल, दिसंबर महीने में अमेरिका की बेरोजगारी दर घटकर 4.1% हो गई है. यहां स्थानीय स्तर पर नई नौकरियों में भी बढ़ोत्तरी हुई है. इसका मतलब ये हुआ कि अमेरिकी श्रम बाजार पहले से ज्यादा मजबूत हुआ है. इसके बाद से ही ये उम्मीद लगाई जा रही है कि जल्द ही अमेरिकी फेडरल रिजर्व बैंक अपने ब्याज दरों में कटौती करेगा. 

इस खबर के सामने आते ही भारतीय रुपए में ऐतिहासिक गिरावट हुई और डॉलर की तुलना में रुपया 86 के पार चला गया. 13 जनवरी को रुपया डॉलर के मुकाबले 86.12 के रिकॉर्ड निचले स्तर पर खुला. कुछ देर बाद ही ये और ज्यादा गिरकर 86.31 के पार पहुंच गया.

डॉलर के मुकाबले रुपए का वैल्यू लगातार घट रहा है

अब आप सोच रहे होंगे कि अमेरिका के रोजगार डेटा और ब्याज दर घटने-बढ़ने से भला भारतीय रुपए का वैल्यू कैसे घट सकता है! अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार के मुताबिक दुनियाभर के देशों का बाजार एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है. 1990 में डिग्री ऑफ ओपननेस 7, 8 या 9 फीसद होती था. डिग्री ऑफ ओपनेस यानी एक देश का बाजार दुनिया के दूसरे देशों से कितना जुड़ा है. देश के कुल निर्यात और आयात को जोड़कर देश के GDP से भाग देकर उस देश की डिग्री ऑफ ओपनेस निकाला जाता है.

आज के समय में डिग्री ऑफ ओपननेस 22% से भी ज्यादा है. यानी पहले से 3 गुना या कहें इससे भी ज्यादा हमारे देश का बाजार दूसरे देशों के बाजार से जुड़ा हुआ है. इसके अलावा अमेरिका दुनिया की सबसे ताकतवर इकोनॉमी है. उसके मजबूत होते ही हमारे देश का पैसा वहां जाने लगता है. इससे अमेरिकी इकोनॉमी और करेंसी मजबूत होती है और हमारे देश की करेंसी की वैल्यू कम हो जाती है.

प्रोफेसर अरुण कुमार के मुताबिक पिछले एक महीने में हमारे देश के फॉरेन रिजर्व में 6 बिलियन डॉलर तक की कमी आई है. यह ज्यादातर पैसा भारतीय बाजार से अमेरिकी बाजार में पहुंचा है. साफ है कि अमेरिका में कुछ भी होगा, उसका असर हमारी करेंसी और हमारे देश की इकोनॉमी पर पड़ेगा. 

क्या सिर्फ अमेरिका के रोजगार रिपोर्ट की वजह से भारतीय करेंसी की वैल्यू घटी या कुछ और भी वजहें हैं?

प्रोफेसर अरुण कुमार अमेरिकी डॉलर के आगे भारतीय करेंसी के लुढ़कने के पीछे 3 मुख्य वजह बताते हैं…

1. भारतीय बाजार से विदेशी निवेशकों का पैसा निकालना: विदेशी निवेशकों ने अकेले जनवरी 2025 में भारतीय बाजार से लगभग 4.2 बिलियन डॉलर निकाल लिए. उन्होंने ये पैसा अमेरिका या दूसरे देशों के बाजार में लगाया. विदेशी निवेशकों के ऐसा करने की मुख्य वजह यह है कि उन्हें अमेरिकी बाजार में पैसा लगाने में फिलहाल जोखिम कम और फायदा ज्यादा नजर आ रहा है. 

सितंबर 2024 से ही विदेशी निवेशक लगातार भारतीय बाजार से पैसा निकाल रहे हैं. यही वजह है कि फॉरेन रिजर्व में कमी की वजह से भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर हुआ है. 

फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व भी घट रहा है


2. कच्चे तेल की कीमत बढ़ना: प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि कच्चे तेल की कीमत में हो रही भारी वृद्धि की वजह से रुपए की परेशानी बढ़ी है. 30 सितंबर 2024 को क्रूड ऑयल (ब्रेंट) की वैश्विक बाजार में कीमत 71.78 डॉलर प्रति बैरल थी, जो 6 जनवरी 2025 को बढ़कर करीब 77 डॉलर प्रति बैरल हो गई. 13 जनवरी 2025 को खबर लिखने तक क्रूड ऑयल (ब्रेंट) की कीमत 82 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई. 

भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक है. यही वजह है कि कच्चे तेल की कीमत में जब भी वृद्धि होती है, इसका सीधा असर भारतीय रिजर्व बैंक के खजाने पर होता है. इस तरह तेल खरीदने में ज्यादा पैसा खर्च होने की वजह से देश की करेंसी कमजोर होती है. 

3. डोनाल्ड ट्रंप का चुनाव जीतना: 20 जनवरी 2025 को डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के नए राष्ट्रपति के तौर पर शपथ लेंगे. अमेरिका फर्स्ट का नारा देने वाले डोनाल्ड ट्रंप के शपथ लेने से पहले विदेशी निवेशकों को अमेरिकी बाजार में ज्यादा भरोसा दिख रहा है. संभव है कि सत्ता संभालने के बाद अमेरिकी इकोनॉमी को लेकर वो जो फैसला लेंगे, उसका प्रेशर फिलहाल भारतीय बाजार को झेलना पड़ रहा है. 

क्या डॉलर के मुकाबले अभी रुपया और नीचे जा सकता है?

सीआर फॉरेक्स एडवाइजर्स के प्रबंध निदेशक अमित पबारी एक इंटरव्यू में बताते हैं कि आने वाले समय में रुपया 85.80-86.50 के बीच कारोबार करेगा. हालांकि, इसमें फिलहाल रुपए की वैल्यू में अस्थिरता बढ़ने की संभावना है. इसकी असल वजह यह है कि 20 जनवरी को राष्ट्रपति के रूप में कार्यभार संभालने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की घोषणाओं को लेकर बाजार डाउट में है.

अगर भारतीय रुपया इसी तरह गिरता रहा तो आम लोगों पर इसका क्या असर पड़ेगा?
  
2018 में दिए एक इंटरव्यू में करेंसी एक्सपर्ट एस. सुब्रमण्यम ने बताया कि जब डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होता है तो विदेश से सामान खरीदना महंगा हो जाता है. कच्चा तेल खरीदने पर भी ज्यादा पैसा देना होता है. साफ है कि कच्चे तेल की कीमत बढ़ेगी और इससे देश में माल ढुलाई से लेकर सब्जियों और खाने-पीने की चीजें भी महंगी हो जाएंगी.

देश से ज्यादा पैसा बाहर जाएगा. विदेश में ट्रैवल करना और पढ़ाई करना भी महंगा हो जाएगा. कंपनियों को विदेश से कच्चा माल खरीदने में ज्यादा पैसा खर्च करना होगा. उनके तैयार माल को ऊंची कीमत पर खरीदने के लिए बाजार में कम लोग होंगे. इससे रोजगार के मौके भी घटेंगे. 

प्रोफेसर अरुण कुमार के मुताबिक भारत के वे बिजनेसमैन जो दूसरे देशों में माल बेचते हैं, उन्हें डॉलर मजबूत होने का फायदा मिलता है. इसकी वजह यह है कि उन्हें डॉलर में पैसा मिलता है, जिसे वह भारतीय बाजार में कन्वर्ट करके अच्छा मुनाफा कमाते हैं. 

डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होगा या मजबूत, ये बाजार तय करता है या सरकार?

प्रोफेसर अरुण कुमार के मुताबिक दोनों ही तरह से डॉलर के मुकाबले रुपए का वैल्यू तय होती है. ज्यादातर संभावना यह होती है कि बाजार से पैसों का फ्लो जिस ओर है, वो करेंसी मजबूत होती है. दुनिया की किसी करेंसी की तुलना में अमेरिकी करेंसी पर लोगों का ज्यादा भरोसा है. इसलिए बाजार में मची उथल-पुथल के बीच निवेशक पैसा वहां लेकर जाते हैं. 

हालांकि, भारत में दो मौके ऐसे भी रहे हैं, जब भारत सरकार ने खुद अपनी करेंसी की वैल्यू घटाई थी. पहली बार 1966 में इंदिरा गांधी की सरकार में एक डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 4.76 थी. सरकार ने सूखा और पाकिस्तान-चीन युद्ध से ऊपजे संकट की वजह से अपनी ही करेंसी की वैल्यू घटाकर 7.50 कर दी. इसका मतलब यह हुआ कि अब एक डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 7.50 हो गई. कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने कई एजेंसियों के दबाव में ऐसा किया था ताकि रुपए और डॉलर का रेट स्थिर रहे. यह अवमूल्यन 57.5 फ़ीसदी का था.

दूसरा मौका 1991 में आया, जब उस समय के पीएम नरसिम्हा राव की सरकार ने डॉलर की तुलना में रुपए का 18.5 फीसदी से 25.95 फीसदी तक अवमूल्यन किया था. ऐसा विदेशी मुद्रा के संकट से उबरने के लिए किया गया था. इसके बाद से हर सरकार के कार्यकाल में रुपए की गिरावट जारी है.

अब आखिर में जानिए कि दुनिया में सबसे कमजोर करेंसी किस देश की है और भारतीय रुपए उसके मुकाबले कहां है… 

ईरानी करेंसी दुनिया में सबसे ज्यादा कमजोर

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