RSS के 'गुरूजी' गोलवलकर क्यों चाहते थे कि हिंदी भारत की आधिकारिक भाषा बने?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की पूरी विचारधारा पर गहरा असर डालने वाले एम.एस. गोलवलकर के लिए संस्कृत ‘राष्ट्रीय एकीकरण के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त भाषा’ थी और अंग्रेजी को वे उपनिवेशवाद की छाया मानते थे

गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने को लेकर लगातार जारी विवाद के बीच बीजेपी के आलोचकों का दावा है कि अन्य बोली-भाषाओं की कीमत पर हिंदी को आगे बढ़ाना पार्टी और उसके वैचारिक स्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के एजेंडे का एक अहम पहलू है.
माधव सदाशिव गोलवलकर यानी ‘गुरुजी’ के कार्यों का अध्ययन बताता है कि 1940 से 1973 तक संगठन के शीर्ष पर रहे और RSS की विचारधारा पर गहरा असर डालने वाले दूसरे सरसंघचालक हिंदी को भारत की आधिकारिक भाषा बनाने के पक्षधर थे.
गोलवलकर का मानना था कि हिंदी के संस्कृतनिष्ठ शब्दों को तब तक इस्तेमाल किया जाना चाहिए जब तक संस्कृत एकदम आम बोलचाल की भाषा न बन जाए. उनकी नजर में संस्कृत “भाषाओं की सिरमौर” थी और “हमारे राष्ट्रीय जीवन में संयोजन का सबसे बड़ा आधार” भी थी. वे इस पर भी जोर देते थे कि भारत को गुलामी भरे अतीत की याद दिलाने वाली अंग्रेजी को स्कूलों में अनिवार्य भाषा न बनाया जाए.
हिंदी RSS के हिंदुत्व प्रोजेक्ट का केंद्रबिंदु है. जैसा, आलोक राय अपनी किताब “हिंदी नेशनलिज्म” में कहते हैं: “आधुनिक ‘हिंदी’ और ‘हिंदू समुदाय’ के निर्माण की प्रक्रिया जटिल ढंग से परस्पर जुड़ी हुई है. इसका यह मतलब कतई नहीं है कि मुझे हिंदी के तौर पर एक ऐसी कुंजी मिल जाएगी जो इस सदी में अखिल भारतीय स्तर पर ‘हिंदुत्व’ दृश्यमान होने का आधार बन सकती है...” यह बात गोलवलकर के लेखन में स्पष्ट नजर आती है, जो राष्ट्र-राज्य के यूरोपीय विचारों से काफी प्रभावित थे जो एक साझा धर्म, राष्ट्रीय पहचान, भाषा और संस्कृति पर आधारित हैं.
गोलवलकर ने अपनी पुस्तक 'बंच ऑफ थॉट्स' (1966) में लिखा है, “बहुभाषियों के बीच संपर्क की भाषा की समस्या के समाधान के तौर पर जब तक संस्कृत अपनी उचित जगह नहीं बना लेती तब तक हमें सुविधा के आधार पर हिंदी को प्राथमिकता देनी होगी. स्वाभाविक है कि हमें हिंदी के उस रूप को प्राथमिकता देनी होगी जो अन्य सभी भारतीय भाषाओं की तरह संस्कृत-निष्ठ हो और भविष्य में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी जैसे आधुनिक ज्ञान के सभी क्षेत्रों में अपने विकास के लिए संस्कृत से पोषण प्राप्त करती हो. इसका अर्थ यह नहीं है कि हिंदी एकमात्र राष्ट्रभाषा है या यह हमारी सभी भाषाओं में सबसे प्राचीन या सबसे समृद्ध है. वास्तव में, तमिल कहीं अधिक समृद्ध और प्राचीन भाषा है. लेकिन हिंदी हमारे देश के लोगों के एक बड़े वर्ग की बोलचाल की भाषा बन गई है और सीखने-बोलने के लिहाज से हमारी सभी भाषाओं में सबसे आसान है.”
उन्होंने अपनी किताब में आगे लिखा है, “इसलिए हमें राष्ट्रीय एकता और स्वाभिमान के हित में हिंदी को अपनाना होगा और खुद को 'हिंदी साम्राज्यवाद' या 'उत्तर का प्रभुत्व' जैसे नारों के आगे विचलित नहीं होने देना होगा. हिंदी अन्य भाषाओं के वर्चस्व को खत्म कर देगी, ऐसी आशंकाएं स्वार्थी राजनेताओं की गढ़ी कोरी कल्पनाएं हैं. वास्तविकता यही है कि हिंदी के उत्थान के साथ हमारी सभी सहयोगी भाषाएं भी फले-फूलेंगी. हमारी सभी भारतीय भाषाओं की दुश्मन तो सिर्फ अंग्रेजी है.”
वे यह भी कहते हैं, “चाहे तमिल हो या बंगाली, मराठी हो या पंजाबी, हमारी सभी भाषाएं राष्ट्रीय भाषाएं हैं. ये सभी भाषाएं और बोलियां हमारी राष्ट्रीय संस्कृति की समृद्ध सुगंध बिखेरने वाले फूलों के गुच्छे के समान हैं. इन सबकी प्रेरणा स्रोत भाषाओं की रानी, देवभाषा संस्कृत रही है. यह इतनी समृद्ध और पवित्र है कि हमारे राष्ट्रीय संवाद का सामान्य माध्यम भी बन सकती है. संस्कृत का व्यावहारिक ज्ञान हासिल करना भी कठिन नहीं है. संस्कृत राष्ट्रीय जीवन में हम सबको जोड़ने वाला एक सबसे बड़ा माध्यम है. लेकिन, दुर्भाग्य से अब आम बोलचाल की भाषा नहीं बन पाई और न ही हमारे वर्तमान शासकों में इसे प्रचलन में लाने का नैतिक साहस ही है.”
गोलवलकर के मुताबिक, “कुछ लोग चाहते हैं कि बहुभाषियों के बीच अंग्रेजी हमेशा संपर्क की भाषा बनी रहे. भाषा मानवीय संवाद का जीवंत माध्यम होती है और विदेशी भाषा अंग्रेजी अपने साथ अंग्रेजी संस्कृति और अंग्रेजी जीवन पद्धतियों को भी लाती ही है. अगर हमने विदेशी जीवन पद्धति को यहां जड़ें जमाने दीं तो यह अपनी संस्कृति और धर्म को कमजोर करने जैसा होगा.” उन्होंने अंग्रेजी के इस्तेमाल को “अंग्रेजी का प्रभुत्व बढ़ाने वाला और कृत्रिम ढंग से थोपा गया बताया” और कहा-अब जब हम स्वतंत्र हो गए हैं तो हमें इसे उखाड़ फेंकना चाहिए.”
गोलवलकर तमिल और द्रविड़ उप-राष्ट्रवाद के भी आलोचक थे. उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है, “आजकल हम तमिल के बारे में बहुत कुछ सुन रहे हैं. कुछ तमिल समर्थक दावा करते हैं कि यह एक अलग भाषा है जिसकी अपनी अलग संस्कृति है. वे वेदों में आस्था नहीं रखते और कहते हैं कि तिरुक्कुरल ही उनका विशिष्ट धर्मग्रंथ है. हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि तिरुक्कुरल दो हजार साल से भी ज्यादा पुराना एक महान धर्मग्रंथ है.” साथ ही, उन्होंने तिरुक्कुरल को “एक विशुद्ध हिंदू ग्रंथ के रूप में पवित्र हिंदू भाषा में महान हिंदू विचारों का प्रतिपादन करने वाला ग्रंथ” बताते हुए इसकी सराहना भी की.
दिसंबर 1957 में ऑर्गनाइजर को दिए एक साक्षात्कार में गोलवलकर से जब यह पूछा गया कि क्या चार भाषाएं-मातृभाषा, हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी- सीखना छात्रों के लिए कुछ ज्यादा बोझ नहीं हो जाएगा. इस पर गोलवलकर का जवाब था कि “इन चारों में अंग्रेजी सबसे गैर-जरूरी है. इसे अनिवार्य भाषा नहीं बनाया जाना चाहिए.” यह वाकया महाराष्ट्र के स्कूलों में पहली कक्षा से ही हिंदी को तीसरी भाषा के तौर पर शामिल करने को लेकर उपजे विवाद की याद दिलाता है.
अप्रैल 1966 में दिल्ली में पत्रकारों से बातचीत के दौरान गोलवलकर से पूछा गया कि क्या हिंदी को थोपना देश की एकता के लिए नुकसानदेह होगा. तब उनका जवाब था, “वैसे, अगर आपको लगता है कि हमारी किसी भी एक भाषा को लागू करना देशहित में नहीं है तो क्या इससे ये समझा जाए कि विदेशी भाषा अच्छी है? अगर ऐसा नहीं है तो क्या हमें अपने विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने और आपसी संवाद के लिए अपनी एक भाषा की जरूरत नहीं है, जो पूरे देश में सभी के लिए समान हो? इस नजरिए से हिंदी सीखना सबसे सरल है और ये देश के विभिन्न हिस्सों में पहले से ही बोली और समझी जाती है. इसलिए, हमारा मानना है कि हिंदी होनी चाहिए. ये बात एकदम बेमानी है कि एक भाषा दूसरी भाषा से श्रेष्ठ है.”
अपनी पुस्तक “वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड” (1939) में गोलवलकर ने लिखा कि “केवल संस्कृत ही एक ऐसी भाषा है, जिससे ये कई भाषाएं निकली हैं.” साथ ही जोड़ा, “आधुनिक भाषाओं में भी हिंदी सबसे ज्यादा समझी जाती है और विभिन्न प्रांतों के लोगों के बीच इसका इस्तेमाल अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम के रूप में होता है.” गोलवलकर ने यह भी लिखा, “मौजूदा समय में 'राष्ट्र' की आधुनिक परिभाषा को अगर हम अपने देश की स्थिति पर लागू करें तो ये निष्कर्ष निर्विवाद रूप से हम पर लागू होगा कि इस देश यानी हिंदुस्तान में हिंदू जाति, हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति और हिंदू भाषा (संस्कृत और उससे निकली भाषाओं का परिवार) मिलकर राष्ट्र की अवधारणा को पूरा करते हैं...वे सभी जो राष्ट्रीयता यानी हिंदू जाति, धर्म, संस्कृति और भाषा से ताल्लुक नहीं रखते, स्वाभाविक रूप से वास्तविक 'राष्ट्रीय' जीवन से बाहर हो जाते हैं.”
हालांकि, हिंदी बहुसंख्यक भारतीयों की भाषा होने की धारणा को कई लोगों ने खारिज किया है. इनमें एक हैं लेखक और सांस्कृतिक कार्यकर्ता जी.एन. देवी. उनके मुताबिक, 2011 की जनगणना बताती है कि देश में 52.8 करोड़ लोग हिंदी बोलते थे. इसमें 20.61 करोड़ लोग ऐसे भी थे जिनकी मातृभाषा को हिंदी की अन्य बोलियों के तौर पर वर्गीकृत किया गया है. इनमें भोजपुरी (5.05 करोड़ से अधिक लोग), छत्तीसगढ़ी (1.62 करोड़) और कुमाऊंनी (20.8 लाख) शामिल थे. इसलिए, यदि इन 20.61 करोड़ लोगों को हिंदी बोलने वालों की संख्या से घटा दिया जाए तो ये संख्या घटकर लगभग 32 करोड़ रह जाती है. यह देखते हुए कि जनगणना का आधार 121 करोड़ था, इसका मतलब है कि आबादी का बमुश्किल एक चौथाई हिस्सा ही हिंदीभाषी है.
हिंदी पर जोर RSS के इतिहास से प्रभावित है
हिंदू दक्षिणपंथ पर काफी कुछ लिखने वाले लेखक और पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि RSS की तरफ से हिंदी को बढ़ावा देने के पीछे की वजह जानने के लिए हमें RSS के आरंभ और विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी ध्यान में रखना होगा. RSS की स्थापना 1925 में महाराष्ट्र में हुई थी लेकिन 1930 के दशक के अंत में यह अपनी शाखाओं के विस्तार पर विचार कर रहा था. और हिंदी भाषी क्षेत्र संघ के लिए सबसे आसानी से सुलभ था.
मुखोपाध्याय ने कहा, “उस समय, सिंधु-गंगा के मैदानों में उर्दू को लेकर जबर्दस्त भाषाई राजनीति जारी थी. इस दौर में द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का समर्थन भी बढ़ रहा था, जिसमें उर्दू को मुसलमानों की भाषा और हिंदी को हिंदुओं की भाषा के तौर पर देखा जा रहा था. RSS ने भाषा, धर्म और संस्कृति के बीच एक मजबूत संबंध पाया. इससे 'हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान' के नारे लगे, जहां हिंदुस्तान को एक काव्यात्मक कल्पना के तौर पर नहीं, बल्कि हिंदुओं की भूमि के तौर पर देखा गया.” यह नारा आजादी के बाद और ज्यादा बुलंद हुआ, जब संविधान सभा में राष्ट्रभाषा पर बहस चल रही थी और तमिलनाडु में हिंदी थोपने के खिलाफ आंदोलन हो रहा था. यही वो दौर भी था जब वर्तमान बीजेपी के पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ ने हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की पुरजोर तरीके से वकालत की थी.
राम मंदिर आंदोलन शुरुआत में एक उत्तर भारतीय आंदोलन था और विरोध प्रदर्शनों के दौरान भाषण और नारेबाजी में ठेठ हिंदी शब्दावली छाई रहती थी. लेकिन जब बीजेपी ने सोची-समझी रणनीति के साथ अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश की और कर्नाटक जैसे दक्षिणी राज्यों में पैठ बनाने की दिशा में कदम बढ़ाया तो उसे हिंदी पर जोर देना बंद करना पड़ा. मुखोपाध्याय के कहते हैं, “हिंदी का प्रचार उत्तर और पश्चिमी भारत से ताल्लुक रखने वाले अधिकांश बीजेपी नेताओं की राजनीतिक आदत रही है.”
वे और स्पष्ट तरह से समझाते हैं, “यह उनकी मूल प्रतिबद्धता है लेकिन अखिल भारतीय पार्टी होने के अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हिंदी पर एक सीमा से आगे जोर नहीं दिया जा सकता. हिंदी उनके सामूहिक राष्ट्र के विचार का हिस्सा बनी हुई है, जो कहता है कि हम धर्म, भाषा और संस्कृति के लिहाज से एक हैं. उनकी नजर में धर्म और संस्कृति दो अलग-अलग बातें नहीं है. वे हिंदी को धर्म के रूप में नहीं बल्कि संस्कृति के रूप में हिंदू धर्म की भाषा के तौर पर देखते हैं.”
दो खंड में अटल बिहारी वाजपेयी की जीवनी लिखने वाले अभिषेक चौधरी का कहना है, “RSS का ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ आदर्श राष्ट्रवाद के यूरोपीय मॉडल से काफी हद तक प्रेरित है.” चौधरी के मुताबिक, “संघ परिवार सिद्धांत और व्यवहार दोनों ही दृष्टि से राज्यों के भाषाई पुनर्गठन का विरोधी रहा. 1950 के दशक के आरंभ में जब पृथक राज्य से जुड़े आंदोलनों की पहली लहर उठी-जो आजाद भारत में उप-राष्ट्रवाद की पहली अभिव्यक्ति थी तब वाजपेयी ने देशभर का दौरा किया और आगाह किया कि भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन से राष्ट्र विखंडित हो सकता है. इस मुद्दे पर हिंदू राष्ट्रवादियों और कांग्रेस के भीतर रूढ़िवादी तत्वों ने हिंदी को बढ़ावा देने के प्रति समर्थन का एक समान आधार पाया.”