नेहरू क्यों चाहते थे कि राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन में न जाएं?

गुजरात का सोमनाथ मंदिर 1951 में बनकर दोबारा तैयार हुआ था और तब कांग्रेस के नेता केएम मुंशी ने डॉ राजेंद्र प्रसाद से इसके उद्घाटन में शामिल होने का आग्रह किया

जवाहरलाल नेहरू और डॉ राजेंद्र प्रसाद/तस्वीर - गेटी
जवाहरलाल नेहरू और डॉ राजेंद्र प्रसाद

22 जनवरी, 2024 को राम मंदिर में होने वाले प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्य यजमान की भूमिका में पूजा में शामिल होंगे. आजाद भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार है जब कोई राष्ट्राध्यक्ष इतने बड़े धार्मिक सम्मलेन में इस भूमिका में शामिल हो रहा हो.

लेकिन आज से 73 साल पहले, 1951 में एक वाकया और हुआ था जब राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद गुजरात के सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में शामिल हुए थे. खास बात ये है कि इस आयोजन में शामिल होने को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनसे आपत्ति जताई थी. लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री ने ऐसा क्यों किया था? 

दिसंबर 1950 में वल्लभभाई पटेल की मौत के बाद नेहरू के कद का कोई नेता कांग्रेस में नहीं बचा था. पार्टी में शक्ति का केंद्र भी केवल नेहरू ही रह गए थे. हालांकि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पुरुषोत्तमदास टंडन और भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद काफी हद तक नेहरू की विचारधारा से इतर सोचने वाले व्यक्ति थे. ये 'इतर सोचना' उस वक्त नेहरू के सामने बड़ी मुश्किल बन गया जब 1951 में गुजरात के सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन में राजेंद्र प्रसाद को बुलाया गया. सोमनाथ का जैसा इतिहास रहा है, उसकी वजह से यह सिर्फ एक मंदिर नहीं बल्कि खोए हुए गर्व को पाने का प्रतीक और काफी हद तक एक सांप्रदायिक मुद्दा भी था. 

लोग अक्सर सोमनाथ के बारे में इतना ही कहते हैं कि महमूद गजनी के अलावा कई मुस्लिम आक्रांताओं ने इसे कई बार लूटा. सिर्फ उन आक्रांताओं तक ही सोमनाथ की कहानी नहीं है. मंदिर और इसके इतिहास को एक सांप्रदायिक रंग रंगने के लिए अंग्रेज भी उतने ही जिम्मेदार हैं. इस मंदिर को सबसे पहले ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड एलेनबरो ने हिंदुओं पर इस्लाम की ज्यादतियों के प्रतीक के रूप में उजागर किया था. 1842 में ब्रिटिश सेना को पहले अफगान युद्ध में मुंह की खानी पड़ी थी. अफगानिस्तान से लौटते (पढ़िए - भागते) वक्त अंग्रेज गजनी इलाके से चंदन की लकड़ी से बने एक जोड़ी दरवाजे लेकर वापस लाए. उनका दावा था कि वे आक्रमणकारी द्वारा छीने गए सोमनाथ के असली दरवाजे थे. बाद में पता चला कि सोमनाथ मंदिर से इन दरवाजों का वही रिश्ता था जो अदरक से बंदर का होता है. 

हालांकि एलेनबरो ने ये दरवाजे उखाड़कर 'बदला लेने' की बात हिंदुस्तान में कर दी थी. उनकी बात का लब्बोलुआब यही था कि वो हिन्दुस्तानियों (पढ़िए हिन्दुओं) के हितैषी हैं और सोमनाथ के दरवाजे वापस लाकर उन्होंने अफगानों से हिन्दुओं का बदला ले लिया है. भले ही उनकी बात के तले कोई जमीन नहीं थी लेकिन वो सांप्रदायिक जहर बोने का अपना काम कर गई थी. हिन्दू संप्रदाय के कुछ धड़े तभी से सोमनाथ मंदिर की मरम्मत कर उसे फिर से खोलने की मांग करने लगे थे. आजादी के बाद जूनागढ़ (अब गुजरात) में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए वल्लभभाई पटेल ने भी ये वादा कर दिया था कि सोमनाथ मंदिर की मरम्मत कर उसका उद्घाटन जल्द ही होगा. सोमनाथ मंदिर को लेकर आवाज उठाने वालों में एक कांग्रेस नेता केएम मुंशी भी थे. 

जब पटेल, मुंशी और अन्य लोगों ने मिलकर गांधी से सरकारी फंड से सोमनाथ मंदिर की मरम्मत करवाने की बात की तो गांधी ने कहा कि अगर लोग खुद से चंदा करके अगर ये कर लें तो ज्यादा बेहतर होगा. यही हुआ और केएम मुंशी की अध्यक्षता में सोमनाथ मंदिर के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना कर दी गई. 

1951 में जब मंदिर दोबारा तैयार हुआ तो केएम मुंशी ने डॉ राजेंद्र प्रसाद से इस उद्घाटन में शामिल होने का आग्रह किया. जब नेहरू को इस बात की जानकारी मिली तो वो बहुत नाराज हुए. उन्होंने चिट्ठी लिखकर राष्ट्रपति से इस आयोजन में शामिल ना होने का आग्रह भी किया. रामचंद्र गुहा की किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' में इस पत्र का जिक्र भी है. बकौल गुहा, नेहरू ने लिखा था, "सोमनाथ मंदिर के इस भव्य उद्घाटन के कई निहितार्थ हैं. व्यक्तिगत रूप से, मैंने ऐसा सोचा था कि यह सोमनाथ में बड़े पैमाने पर निर्माण कार्यों पर जोर देने का समय नहीं था. इसे बाद में और अधिक प्रभावी ढंग से किया जा सकता था. हालांकि, अब तो ये हो गया है. फिर भी मुझे लगता है कि बेहतर होगा अगर आप इस समारोह में शिरकत न करें."

डॉ राजेंद्र प्रसाद फिर भी गए और ये बात नेहरू को बहुत नागवार गुजरी. उन्होंने फिर से राजेंद्र प्रसाद को चिट्ठी लिखी और पूछा कि राजेंद्र बाबू एक सेक्युलर सरकार कैसे इस तरह के धार्मिक आयोजनों से अपने आप को जोड़ सकती है?

सिर्फ यही नहीं, सोमनाथ मंदिर के आयोजन पर होने वाले खर्चे की बातें जब अख़बारों में तैरने लगीं तो नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को दोबारा चिट्ठी लिखकर कहा कि वैसे तो किसी भी काल में ये सही नहीं होता मगर इस वक्त जब हमारा देश भीषण गरीबी और भुखमरी के दौर से गुजर रहा है, इस तरह की शाहखर्ची वाले आयोजन से सरकार का जुड़ना मेरे लिए चौंका देने वाला है. दरअसल अख़बारों में ये बात आ गई थी कि तब की सौराष्ट्र सरकार ने इस आयोजन में 5 लाख का चंदा दिया है. नेहरू ने उन भारतीय राजदूतों को भी चिट्ठी लिखकर रोका था जिनसे ये कह दिया गया था कि आप जिस भी मुल्क में हैं वहां की नदियों से पानी सोमनाथ मंदिर के लिए लेकर आइए. 

कुल जमा सरकार और धर्म के हाथ में हाथ डालकर चलने को लेकर नेहरू हमेशा विरोध के स्वर में नजर आते थे और इसी बुनियादी सोच ने सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन के समय उन्हें चौतरफा सक्रिय कर दिया था.  

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