देश में असली किसान कौन हैं; अब यह तय करना क्यों हो गया है जरूरी?
देश में 1.25 करोड़ लोग जमीन नहीं होने के बावजूद पट्टे पर खेत लेकर फसल उपजाते हैं. लेकिन, क्या हम इन्हें असली किसान मानेंगे?

देश में असली किसान कौन है? जमीन के मालिक को हम असली किसान मानेंगे या फिर उसे जिसके पास जमीन नहीं है, लेकिन उसकी आमदनी खेती से होती है? हालांकि, इन सवालों पर लंबे समय से बहस होती रही है.
इसके बावजूद इन सवालों का सही जवाब अब तक नहीं मिला है. खास तौर पर अब जब ग्रामीण अर्थव्यवस्थाएं गैर-कृषि गतिविधियों पर तेजी से निर्भर हो रही हैं तो एक बार फिर से यह बहस का मुद्दा बन गया है.
कृषि जनगणना 2015-16 और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम-किसान) योजना में उस व्यक्ति को किसान माना गया है, जिसके पास खेत है. भले ही उसकी आय का मुख्य स्रोत कृषि न हो.
इस सरकारी मापदंड के आधार पर देखें तो देश में किसानों की अनुमानित संख्या 11 करोड़ से लेकर 14.65 करोड़ के बीच है. लेकिन, यहां एक पेच है. इस परिभाषा में भारत के 1.25 करोड़ भूमिहीन किसान शामिल नहीं हैं.
ये भूमिहीन किसान सबसे ज्यादा हाशिये पर हैं, जो पट्टे पर जमीन लेकर खेती करते हैं और यही उनकी आजीविका का मुख्य स्रोत होता है. चूंकि वे तकनीकी रूप से जमीन के मालिक नहीं हैं, इसलिए उन्हें ज्यादातर सरकारी सब्सिडी, कल्याणकारी योजनाओं और यहां तक कि किसानों को सहायता देने के उद्देश्य से बीमा कार्यक्रमों से भी बाहर रखा गया है.
तब असली किसान वाला यह सवाल क्यों मायने रखता है? दरअसल भारत में किसान के रूप में वर्गीकृत होने से बहुत सारे लाभ मिलते हैं. गैर-लाभकारी संस्था ‘पीपल रिसर्च ऑन इंडियाज कंज्यूमर इकोनॉमी’ (PRICE) के सीईओ और प्रबंध निदेशक राजेश शुक्ला कहते हैं कि किसानों को इनपुट सब्सिडी, उर्वरक, बिजली, सिंचाई आदि के लिए सरकारी सहायता मिलती है. लेकिन, इसका लाभ पट्टे पर खेती करने वाले किसानों को नहीं मिल पाता.
PRICE संस्था ने अपनी रिपोर्ट में बताया है, ‘लगभग 6.84 करोड़ यानी करीब 20.7 फीसद ग्रामीण परिवार पूरी तरह से कृषि पर निर्भर हैं. इसके अलावा करीब 14 करोड़ ग्रामीण परिवारों यानी 42.4 फीसद की आमदनी का स्रोत कृषि है, लेकिन वह पूरी तरह से उस पर निर्भर नहीं हैं.’
2011 की जनगणना के मुताबिक देश में कुल परिवारों की संख्या तब करीब 25 करोड़ थी. पिछले 13 सालों में परिवारों की संख्या और ज्यादा बढ़ी होगी. PRICE संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक, कृषि पर पूरी तरह से निर्भर 6.84 करोड़ परिवारों में से 5.59 करोड़ परिवारों के पास ही कृषि भूमि है.
शेष 1.25 करोड़ परिवार काश्तकार हैं, जो भूमिहीन हैं पर कृषि से जुड़े हैं. इन लोगों तक अक्सर सरकारी फायदे नहीं पहुंच पाते और उन्हें नीतिगत ढांचों से बाहर रखा जाता है. यह कृषि क्षेत्र से जुड़ा सबसे कमजोर सामाजिक समूह है.
यह मुद्दा तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब आप इस बात पर विचार करते हैं कि खेती पर पूरी तरह से निर्भर परिवारों की संख्या पिछले कुछ दशकों में लगातार घट रही है. 1975-76 में देश के कुल परिवारों में से 42 फीसद पूरी तरह से कृषि पर निर्भर रहने वाले परिवार थे. 2024-25 तक यह आंकड़ा घटकर सिर्फ 20 फीसद से 21 फीसद रह जाने का अनुमान है.
आंकड़ों पर ध्यान दें तो 1975-76 में देश में लगभग 4.1 करोड़ अन्नदाता परिवार थे. 2024-25 तक यह संख्या 6.84 करोड़ तक पहुंच गई है.
PRICE संस्था के निदेशक राजेश शुक्ला कहते हैं कि पूर्णकालिक कृषि परिवारों की कहानी कुछ हद तक मिलेजुले हैं. एक तरफ उनके हालात सुधरे हैं, लेकिन कई परिवार अब गैर-कृषि आय के कारण अधिक कमाते हैं.
हालांकि, खेती पर बढ़ती लागत, कर्ज और छोटी जोत की वजह से अब भी किसानों की हालत अच्छी नहीं है. इतना ही नहीं क्षेत्रीय और जाति-आधारित असमानताएं भी अलग-अलग समुदाय के किसानों के बीच की गहरी खाई को दिखाती है, जिसे पाटना बेहद मुश्किल है.
चूंकि कृषि से जुड़े परिवार अब अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए अलग-अलग व्यवसाय को अपनाते जा रहे हैं. ऐसे में कौन असली किसान है और किसे सरकारी मदद की जरूरत है, इसकी अधिक समावेशी और लचीली परिभाषा तय करने की आवश्यकता है.
अगर ऐसा संभव होता है, तभी सरकारी योजनाएं सही लोगों तक पहुंच पाएंगी और यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि कोई भी योग्य समूह सरकार लाभ से वंचित न रह जाए.