डॉक्टरों के लिखे पर्चे कैसे बन जाते हैं मौत का फरमान?
पंजाब और हरियाणा हाइकोर्ट के हालिया आदेश के बाद प्रिस्क्रिप्शन में डॉक्टरों की अपठनीय हैंडराइटिंग का मुद्दा फिर चर्चा में, इस पर गाइडलाइन्स के बावजूद नहीं सुधर रहा हाल

लखनऊ का वह दिन 6 सितंबर, 2022 अभी भी कई लोगों को याद है जब संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान के पास सरस्वतीपुरम का एक 6 वर्षीय मासूम बच्चा सिर्फ इसलिए जिंदगी से हार गया क्योंकि डॉक्टर ने पर्चे पर दवा साफ नहीं लिखी थी. तेज बुखार से पीडि़त बच्चे के लिए डॉक्टर ने सिरप लिखा था लेकिन मेडिकल स्टोर वाले ने उसे इंजेक्शन समझ लिया.
इंजेक्शन लगते ही बच्चा बेसुध हो गया और अस्पताल पहुंचने से पहले उसकी मौत हो गई. पिता हाथ में वही पर्चा लिए चिल्लाते रह गए कि अगर लिखावट साफ होती तो शायद उनका बेटा बच जाता. यह घटना सुनने में छोटी लग सकती है लेकिन देश की स्वास्थ्य व्यवस्था का कड़वा सच यही है कि डॉक्टरों की खराब लिखावट आज भी लाखों मरीजों के लिए खतरा बनी हुई है.
30 सितंबर को पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने इसी मुद्दे को सीधे जीवन के अधिकार से जोड़ दिया. संविधान के अनुच्छेद 21 में शामिल ‘राइट टू लाइफ’ को आधार मानते हुए अदालत ने कहा कि मरीज को साफ-सुथरा और सुपाठ्य प्रिस्क्रिप्शन मिलना उसका मौलिक अधिकार है. जस्टिस जसबीरप्रीत सिंह पुरी के सामने जब एक मेडिको-लीगल रिपोर्ट आई तो उसमें एक भी शब्द पढ़ने योग्य नहीं था.
अदालत ने लिखा कि इस रिपोर्ट ने न्यायपालिका की आत्मा को हिला दिया क्योंकि रिपोर्ट को पढ़कर समझना नामुमकिन था. जज ने यह रिपोर्ट फैसले के साथ संलग्न कर दी ताकि सब देख सकें कि यह समस्या कितनी गंभीर है. अदालत ने स्पष्ट आदेश दिया कि जब तक पूरी तरह डिजिटल प्रिस्क्रिप्शन सिस्टम लागू नहीं हो जाता, डॉक्टर दवाओं के नाम बड़े और साफ कैपिटल लेटर्स में लिखें.
यह कोई पहला मौका नहीं जब अदालत ने डॉक्टरों की लिखावट पर सवाल उठाए हों. इससे पहले नवंबर 2018 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने भी डॉक्टरों की खराब लिखावट पर सख्ती दिखाई थी. बहराइच के इमरजेंसी मेडिकल अफसर डॉ. रमाशंकर गुप्ता ने एक महिला की पोस्टमार्टम रिपोर्ट बनाई थी जो बिल्कुल अपठनीय थी. यह मामला हत्या से जुड़ा था और बेल पर सुनवाई कर रही अदालत ने रिपोर्ट देखकर कड़ा एतराज जताया. जस्टिस अनंत कुमार ने साफ कहा कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट पढ़ने योग्य न हो तो न्याय में देरी होगी और इसका सीधा असर आरोपी और पीड़ित दोनों पर पड़ेगा. अदालत ने डॉक्टर पर पांच हजार रुपये का जुर्माना लगाया और याद दिलाया कि डॉक्टरों को पहले भी कई बार निर्देश दिए गए हैं कि वे रिपोर्ट इस तरह लिखें कि पढ़ी जा सके. डॉ. गुप्ता ने बचाव में कहा कि काम का बोझ इतना होता है कि लिखावट खराब हो जाती है लेकिन अदालत ने इस तर्क को खारिज कर दिया और कहा कि यह बहाना अस्वीकार्य है.
असल समस्या यह है कि डॉक्टरों की लिखावट न सिर्फ अदालतों बल्कि मरीजों की जिंदगी के लिए भी संकट है. दवाओं के नामों में अक्सर बहुत मामूली फर्क होता है. “नुक्ते के हेरफेर से खुदा, जुदा हो जाता है” वाली कहावत यहां पूरी तरह फिट बैठती है. अगर डॉक्टर ने दवा का नाम साफ न लिखा और मेडिकल स्टोर वाला गलत समझ गया तो नतीजा घातक हो सकता है. इसे कुछ उदाहरणों से बखूबी समझा जा सकता है.
डाइकालिस (DICALIS) का उपयोग मल्टी विटामिन सप्लीमेंट के तौर पर होता है. वहीं दूसरी दवा है डाइकारिस (DICARIS). इस दवा का उपयोग कीड़े मारने में किया जाता है. त्वचा पर संक्रमण के मामलों में भी यह दवा दी जाती है. दोनों के नाम में सिर्फ एक अक्षर का ही अंतर है. L के स्थान पर R आते ही दवा का नाम और इसका प्रभाव पूरी तरह बदल जाता है. डॉक्टर की हैंडराइटिंग या फिर फार्मासिस्ट की समझ में गड़बड़ी होते ही अर्थ का अनर्थ हो सकता है.
डेक्सिन (DEXIN) का उपयोग बैक्टीरिया के संक्रमण में होता है. आंख में संक्रमण से बचाव के लिए इसका आई ड्रॉप भी आता है. वहीं दूसरी ओर डेपिन (DEPIN) का उपयोग उच्च रक्तचाप में किया जाता है. इनके नाम में भले ही X और P का अंतर हो, लेकिन दोनों के उपयोग में जमीन आसमान का अंतर है. यहां भी जरा सी चूक मरीज के इलाज के बजाय गंभीर समस्या पैदा कर सकती है.
पेरिनॉर्म (PERINORM) का उपयोग उल्टी, मितली और अपच आदि के मामलों में किया जाता है. वहीं दूसरी ओर पायोनॉर्म (PIONORM) का उपयोग डायबिटीज के गंभीर मामलों में होता है. दवा की दुकान पर अप्रशिक्षित फार्मासिस्ट के लिए कई बार इनमें अंतर करना कठिन हो जाता है. इससे गंभीर नुकसान होने की आशंका रहती है.
लखनऊ के कृष्णा नगर इलाके की अनीता वर्मा बताती हैं कि कई बार डॉक्टर का पर्चा देखकर लगता है जैसे कोई गुप्त कोड लिखा हो, “हमें अक्सर एक ही दवा के लिए अलग-अलग दुकानों पर भटकना पड़ता है. डर यह रहता है कि कहीं गलत दवा हाथ में न आ जाए. कई बार मेडिकल स्टोर वाले खुद अंदाजा लगाते हैं और वही दे देते हैं. मरीज के लिए यह बहुत जोखिम भरा है.” दिल्ली के संगम विहार की शशि त्रिपाठी बताती हैं कि उनके पति डायबिटीज के मरीज हैं. एक बार डॉक्टर ने पर्चे पर दवा लिखी, मेडिकल स्टोर वाले ने गलत दवा दे दी, “ब्लड शुगर अचानक गिर गया और हालत गंभीर हो गई. सौभाग्य से पास बैठे एक फैमिली फार्मासिस्ट ने गलती पकड़ ली वरना अनहोनी हो जाती.”
इन घटनाओं से साफ है कि सिर्फ डॉक्टर की लिखावट नहीं बल्कि फार्मासिस्ट की गैरमौजूदगी भी बड़ी समस्या है. सरकार ने स्पष्ट नियम बनाए हैं कि हर मेडिकल स्टोर पर पंजीकृत फार्मासिस्ट की मौजूदगी जरूरी है. लेकिन दवा नियंत्रण विभाग की छापेमारी में अक्सर यह नियम टूटा मिलता है. दुकानों पर ऐसे लोग दवा बेचते हैं जिन्हें दवाओं के नाम और असर की बारीक जानकारी ही नहीं होती.
बस्ती मंडल के सहायक आयुक्त (औषधि) नरेश मोहन दीपक कहते हैं कि बिना फार्मासिस्ट के दवा बेचना गैरकानूनी है और ऐसी दुकानों पर कार्रवाई भी होती है. लेकिन हकीकत यह है कि छोटी-बड़ी दुकानों पर यह नियम कागज पर ही रह गया है. लखनऊ के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. एन. बी. सिंह बताते हैं कि सरकार ने सभी डॉक्टरों को निर्देश भेजा है कि वे पर्चे पर दवा का नाम कैपिटल लेटर में लिखें. इससे दवा का नाम पढ़ने में आसानी होगी और गलती की संभावना खत्म हो जाएगी. लेकिन जमीन पर इसका पालन ढंग से नहीं हो रहा.
अगस्त 2023 में नेशनल मेडिकल कमीशन (NMC) ने पर्चे को लेकर नई गाइडलाइन जारी की थी. इसमें साफ कहा गया था कि सभी डॉक्टर दवा का नाम कैपिटल लेटर में लिखेंगे. साथ ही पर्चे पर डॉक्टर का नाम, पंजीकरण संख्या, आपातकालीन नंबर और मरीज की पूरी जानकारी लिखना अनिवार्य होगा. जहां संभव हो दवाओं का नाम टाइप किया जाए. इसके अलावा डॉक्टरों को निर्देश दिया गया कि वे केवल जेनरिक दवाएं लिखें. जेनरिक दवाएं ब्रांडेड दवाओं से 30 से 80 प्रतिशत तक सस्ती होती हैं और आसानी से उपलब्ध भी रहती हैं. NMC ने यह भी साफ किया कि कई बार डॉक्टर महंगी ब्रांडेड दवाएं लिखते हैं जो हर जगह उपलब्ध नहीं होतीं और मरीज को दिक्कत होती है. लेकिन जेनरिक दवा हर मेडिकल स्टोर पर मिल सकती है और मरीज का खर्च भी कम होता है.
विशेषज्ञ मानते हैं कि समस्या का स्थायी समाधान डिजिटल प्रिस्क्रिप्शन है. केजीएमयू लखनऊ के गैस्ट्रोइंट्रोलॉजी विभागाध्यक्ष डॉ. सुमित रुंगटा कहते हैं कि अगर मरीज को किसी दवा पर जरा भी संदेह हो तो उसे तुरंत फार्मासिस्ट या डॉक्टर से दोबारा पूछना चाहिए. यह छोटी सी सावधानी जिंदगी बचा सकती है.
अब सवाल यह है कि आगे का रास्ता क्या है. विशेषज्ञ कहते हैं कि सबसे पहले डिजिटल प्रिस्क्रिप्शन लागू करना होगा. अस्पताल और क्लीनिक को तकनीक से जोड़ना होगा. दूसरे, मेडिकल स्टोर पर फार्मासिस्ट की मौजूदगी सुनिश्चित करनी होगी. तीसरे, डॉक्टरों और मेडिकल स्टोर पर कड़ा दंड लगाना होगा अगर वे नियमों का पालन न करें. और चौथे, मरीजों को भी जागरूक होना होगा. उन्हें दवा लेने से पहले उसका नाम दोबारा पढ़ना और समझना चाहिए. डॉक्टरों की लिखावट की समस्या लंबे समय से मजाक का विषय बनी हुई है. लोग अक्सर कहते हैं कि डॉक्टर की लिखावट सिर्फ डॉक्टर ही पढ़ सकता है. लेकिन अब यह मजाक नहीं, जिंदगी का गंभीर सवाल है. पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का हालिया आदेश पूरे देश के लिए चेतावनी है. सरकार और स्वास्थ्य व्यवस्था को अब इस पर सिर्फ दिशा-निर्देश देने से आगे बढ़कर सख्त कदम उठाने होंगे. क्योंकि एक अक्षर की गलती सिर्फ पर्चा खराब नहीं करती, वह जिंदगी भी छीन लेती है.
अन्य कुछ दवाओं के मिलते-जुलते नाम और उनके प्रभाव :
- SUSTEN GEL ( अनियमित माहवारी की दवा), SUSTANE-GEL- (आई ड्रॉप)
- AMITONE (न्यूरोपैथिक पेन की दवा), M2TONE- (महिलाओं में हॉर्मोन संतुलन की दवा)
- OMEN (बीपी की दवा), OMEZ (गैस की दवा)
- TERIBICIP (फंगल इंफेक्शन की दवा), TRAMACIP (भीषण दर्द की दवा)
- TRIFER ( आयरन और फॉलिक एसिड), TRIEXER (डायबिटीज की दवा)
- TICAFO (ब्लड थिनर), TADAFLO (नपुंसकता और पल्मोनरी हाइपरटेंशन की दवा)
- TELEACT ( हाई बीपी की दवा), TADACT (नसों में खून के बहाव के लिए)
- METOLOR (हाइपरटेंशन की दवा), MELTOR (सूजन कम करने के लिए)
- LEVOCET (एलर्जी की दवा, छींक-खांसी, नाक बहना और स्किन एलर्जी में दी जाती है.), LOSEC (पेट के अल्सर और एसिडिटी (ACID REFLUX) में दी जाने वाली दवा.)
- DIZIN (उल्टी और मोशन सिकनेस रोकने के लिए), DIGOXIN (हृदय रोग के इलाज में इस्तेमाल होती है)
- CEFRADINE (हल्के से मध्यम बैक्टीरियल संक्रमण में इस्तेमाल होने वाली एंटीबायोटिक), CEFTRIAXONE (गंभीर संक्रमणों में दी जाने वाली इंजेक्शन एंटीबायोटिक)
- AMOXICILLIN (आम बैक्टीरियल इंफेक्शन में इस्तेमाल होने वाली बेसिक एंटीबायोटिक),
- AMOXYCROME (अक्सर कॉम्बिनेशन ड्रग के तौर पर, अलग असर और अलग डोज में)