यूजीसी ने एम.फिल. का कोर्स खत्म क्यों किया, स्टूडेंट्स पर इसका क्या असर पड़ेगा?
साल 2020 में नई एजुकेशन पॉलिसी में भी एम.फिल. कोर्स को खत्म करने की सिफारिश की गई थी हालांकि उसके बाद भी कुछ कॉलेज और विश्वविद्यालय ऐसे थे जहां इस कोर्स में एडमीशन दिया जा रहा था

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ने 27 दिसंबर 2023 यानी बुधवार को एक बड़ा फैसला लेते हुए एम.फिल. की डिग्री को खत्म कर दिया. अब भारत की किसी भी यूनिवर्सिटी या फिर कॉलेज में स्टूडेंट्स इस कोर्स में एडमीशन नहीं ले पाएंगे. यूजीसी ने इसे लेकर सभी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को नोटिस जारी कर दिया है.
यूजीसी सेक्रेटरी ने छात्रों से भी यह आग्रह किया है कि वे इसमें एडमीशन ना लें. आयोग ने नोटिस जारी करते हुए कहा कि यह अब एक मान्यता प्राप्त डिग्री नहीं है. साल 2020 में नई एजुकेशन पॉलिसी में भी एम.फिल. कोर्स को खत्म करने की सिफारिश की गई थी. हालांकि कुछ कॉलेज और विश्वविद्यालय ऐसे थे जहां इस कोर्स में एडमीशन दिया जा रहा था और इसकी पढ़ाई हो रही थी.
'नई एजुकेशन पॉलिसी' का खाका साल 2020 में पेश किया गया था. जिसके बाद 'मानव संसाधन विकास मंत्रालय' का नाम बदल कर 'शिक्षा मंत्रालय' कर दिया गया. उस वक्त तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन और विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर और फिर उनकी जगह आए रमेश पोखरियाल निशंक ने ऐलान करते हुए कहा था कि सभी उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए एक ही नियामक बनाया जाएगा और एम.फिल. को खत्म किया जाएगा. इसके अलावा डिजिटल लर्निंग को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय प्रोद्यौगिकी मंच (NETF) बनाया जाएगा.
दिल्ली विश्वविद्यालय के 'राम लाल आनंद कॉलेज' में पत्रकारिता और जनसंपर्क विभाग के प्रोफेसर राकेश कुमार 'नई एजुकेशन पॉलिसी' के बारे में कहते हैं कि इसमें कुछ बेहद ही जरूरी पहलू हैं. 'नई एजुकेशन पॉलिसी' में ग्रेजुएशन को तीन साल के बजाय चार साल का बना दिया गया है. जिसमें आखिरी साल स्टूडेंट्स को रिसर्च वर्क कराया जाएगा. इसके बाद वो सीधे बिना पोस्ट ग्रेजुएशन किए भी पीएचडी के इंट्रेंस में शामिल हो सकता है. एम.फिल को हटाने के पीछे सरकार का तर्क है कि इससे रिसर्च करने या इसमें एडमीशन लेने में लगने वाले समय की बचत की जा सकेगी.
एम.फिल. कोर्स एक या दो साल का होता था, जो कि पोस्ट ग्रेजुएट एकेडमिक रिसर्च प्रोग्राम था और यह पीएचडी के लिए प्रोविजनल एनरोलमेंट की तरह से काम करता था. यानि अगर किसी को एम.फिल. में एडमीशन लेना है तो उसके पास मास्टर या पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री का होना जरूरी था. इसकी डिग्री आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, साइंस, मैनेजमेंट, साइकोलॉजी और कॉमर्स जैसे सब्जेक्ट्स में ली जाती थी.
प्रोफेसर राकेश कुमार ने बताते हैं कि 90 के दशक तक या फिर शुरुआती 2000 के सालों तक पीएचडी करने के लिए एम.फिल. करना अनिवार्य था. कोर्स की ड्यूरेशन लगभग डेढ़ से दो साल की होती थी और इसमें रिसर्च करने की बारिकियों के बारे में समझाया जाता था. एम.फिल. वालों को भी एक पेपर लिखना होता था. नौकरी में भी एम.फिल. वालों को वरीयता मिल जाती थी.
राकेश कुमार के मुताबिक इसे बंद करने से पहले यूजीसी को कुछ बुनियादी बातों पर गौर करना जरूरी था. मसलन एकेडमिक विषयों और प्रोफेशनल विषयों की एम.फिल में अंतर है. क्योंकि कई सारी नौकरियां ऐसी हैं जिनकी योग्यता में अभी भी यह अनिवार्य है. जैसे कि क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट बनने के लिए अनिवार्य योग्यता में यह शामिल है. ऐसे में यूजीसी को प्रोफेशनल कोर्स में इसकी मान्यता को बरकरार रखना चाहिए था.
दिल्ली विश्वविद्यालय 'दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट एंड कॉमर्स में असिस्टेंट प्रोफेसर अदिति नागर कहती हैं कि यह कोर्स उन लोगों के लिए जरूरी होता था जो एकेडमिया में जाना चाहते हैं, यानी रिसर्स या पीएचडी करना चाहते हैं. इसमें दो पेपर होते थे जिनमें पहले पेपर में यह सिखाया जाता था कि रिसर्स राइटिंग कैसे की जाए या फिर पेपर कैसे लिखा जाए. अदिति डिपार्टमेंट ऑफ इंग्लिश से जुड़ी हुई हैं और इसी विषय से खुद भी एम.फिल. कर चुकी हैं.
प्रोफसर अदिति के मुताबिक अब ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन में भी इस तरह के कोर्स डाल दिए गए हैं जिनके जरिए स्टूडेंट्स पेपर लिखने या रिसर्च करने की बारीकियां सीख सकते हैं. इस वजह से उच्च शिक्षा हासिल करने वाली नई जेनरेशन के लिए बिना एम.फिल किए भी रिसर्च करना आसान हो गया है. प्रो. अदिति आगे यह भी कहती हैं कि एमफिल खत्म होने से उन लोगों पर थोड़े समय के लिए असर जरूर पड़ेगा जो पीएचडी करना चाहते हैं पर जिन्होंने ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन में रिचर्स से जुड़ी जानकारी हासिल नहीं की है.