'शादी के बाद बदल जाता है हिंदू लड़कियों का गोत्र', सुप्रीम कोर्ट ने यह क्यों कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15(1)(बी) पर याचिका की सुनवाई के दौरान कहा कि विवाह के बाद हिंदू महिलाओं का गोत्र बदल जाता है

24 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि हिंदू समाज में कन्यादान की परंपरा है. इसके तहत शादी के बाद महिला का गोत्र या वंश बदल जाता है. ऐसे में साफ है कि विधवा और निस्संतान हिंदू महिला की मौत के बाद उसकी संपत्ति पर अधिकार उसके पति के परिवार को मिलेगा और महिला के माता-पिता के परिवार का उसकी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होगा.
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी उस समय आई, जब शीर्ष अदालत हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15(1)(बी) को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी. इसके मुताबिक, अगर किसी हिंदू महिला की बिना वसीयत के मृत्यु हो जाती है, तो उसकी संपत्ति उसके पति के उत्तराधिकारियों के हिस्से चली जाती है, बशर्ते उसका कोई पति या बच्चे न हों.
सुप्रीम कोर्ट की एकमात्र महिला जज जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा कि हमारे हिंदू समाज की एक सांस्कृतिक संरचना है, उसे भी ध्यान रखिए. इसमें कोई दो राय नहीं कि महिलाओं के अधिकार जरूरी हैं, लेकिन सामाजिक संरचना और महिलाओं को अधिकार देने के बीच संतुलन होना चाहिए.
जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने कहा कि इस संरचना को हम खत्म नहीं कर सकते. ऐसे में हम नहीं चाहते हैं कि हमारा फैसला हजारों सालों से चली आ रही किसी चीज को तोड़ दे. न्यायमूर्ति नागरत्ना ने दक्षिण भारत में प्रचलित रीति-रिवाजों का उल्लेख करते हुए कहा, "दक्षिण भारत के विवाहों में एक रीति-रिवाज के तहत यह घोषणा भी की जाती है कि वह एक गोत्र से दूसरे गोत्र में जा रही है. आप इन सब को नकार नहीं सकते."
सुप्रीम कोर्ट की इस पीठ ने कहा कि एक बार जब महिला विवाहित हो जाती है, तो कानून के तहत उसकी जिम्मेदारी उसके पति और पति के परिवार पर आ जाती है. न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा, "एक विवाहित महिला अपने माता-पिता या भाई-बहनों से भरण-पोषण की मांग नहीं करेगी. अधिनियम के तहत विवाहित महिला की देखरेख के लिए कौन जिम्मेदार होता है? उसका पति, ससुराल वाले, बच्चे, पति का परिवार. वह अपने भाई के खिलाफ भरण-पोषण की याचिका दायर नहीं करेगी."
याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15(1)(बी) को मनमाना और भेदभावपूर्ण बताया था. उन्होंने दलील दी थी, "अगर किसी पुरुष की बिना वसीयत के मृत्यु हो जाती है, तो उसकी संपत्ति उसके परिवार को मिलती है. बच्चों के बाद, एक महिला की संपत्ति सिर्फ उसके पति के परिवार को ही क्यों मिलनी चाहिए?"
इस पर अदालत ने कहा, "कठोर तथ्यों के आधार पर खराब कानून नहीं बनने चाहिए. हम नहीं चाहते कि हजारों सालों से चली आ रही कोई चीज हमारे फैसले से टूटे." साथ ही, अदालत ने यह भी कहा कि कई विवादों में समझौते या मध्यस्थता का विकल्प चुना जा सकता है.