हड्डियों में कमजोरी से लेकर डिप्रेशन तक, सुनीता विलियम्स को आगे इन चुनौतियों से भी जूझना पड़ सकता है!

दरअसल, ISS की लंबे समय की यात्राएं इंसानी शरीर में अहम बदलाव लाती हैं. ऐसे में सुनीता विलियम्स और बैरी बुच विलमोर को भी इन मुश्किलों से गुजरना पड़ सकता है

करीब 9 महीने बाद ISS से वापस धरती पर लौटीं सुनीता विलियम्स
करीब 9 महीने बाद ISS से वापस धरती पर लौटीं सुनीता विलियम्स

नासा के अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम्स और बैरी बुच विलमोर नौ महीने तक अंतरिक्ष में फंसे रहने के बाद सुरक्षित रूप से पृथ्वी पर लौट आए हैं. 19 मार्च को उन्होंने दो अन्य एस्ट्रोनॉट के साथ स्पेसएक्स के ड्रैगन कैप्सूल के जरिए धरती पर सफल वापसी की.

सुनीता और विल्मोर को लेकर ड्रैगन यान अमेरिका के फ्लोरिडा के तट के पास उतरा, जिसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) पर उनके लम्बे प्रवास का अंत हो गया. लेकिन इन दोनों एस्ट्रोनॉट के लिए चुनौती अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है. आइए जानते हैं, कैसे?

असल में, बीते साल जून में सिर्फ आठ दिनों के लिए ISS पर गए ये दोनों एस्ट्रोनॉट नौ महीनों बाद लौट पाए हैं. उन्हें स्पेस में लंबा इंतजार इसलिए करना पड़ा, क्योंकि बोइंग का जो स्टारलाइनर यान उन्हें वापस धरती पर लाने वाला था, वो खराब हो गया था. उन्हें आखिरकार एलन मस्क की कंपनी स्पेसएक्स का ड्रैगन कैप्सूल ने फ्लोरिडा के तट पर सुरक्षित रूप से उतारा.

अब, अंतरिक्ष की परिस्थितियों में अप्रत्याशित रूप से करीब 9 महीने तक रहने से दोनों एस्ट्रोनॉट पर लंबे समय तक असर पड़ सकता है. ये असर दो तरीके से हो सकता है : अल्पकालिक और दीर्घकालिक (शॉर्ट-टर्म और लॉन्ग-टर्म).

अल्पकालिक प्रभाव

इनमें सबसे ज्यादा चिंताजनक प्रभाव हड्डियों और मांसपेशियों की कमजोरी है.

दरअसल, ISS पर 'माइक्रो ग्रेविटी' होती है. इसका मतलब है कि किसी वस्तु पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव बहुत कम होता है, या वह लगभग नगण्य होता है. इस स्थिति में भारहीनता का अनुभव होता है, और यही वजह है कि स्पेस में अंतरिक्ष यात्री तैरते हुए दिखते हैं. इसके चलते उनके शरीर में अहम बदलाव होते हैं.

इसके बरअक्स धरती पर, गुरुत्वाकर्षण लगातार मांसपेशियों और हड्डियों को एक्टिव रखता है, जिससे स्वाभाविक प्रतिरोध (नैचुरल रेजिस्टेंस) मिलता है. अंतरिक्ष में इस बल के बिना मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं, और हड्डियां घनत्व खोने लगती हैं क्योंकि वहां उन्हें कोई वजन नहीं सहन करना पड़ता.

अंतरिक्ष यात्री हर महीने करीब 1 फीसद बोन मास (हड्डी का भार) खो सकते हैं, खासकर निचली रीढ़, कूल्हों और फीमर में, जिससे वापसी पर फ्रैक्चर का जोखिम बढ़ जाता है. इसका मुकाबला करने के लिए वे मुश्किल एक्सरसाइज रूटीन का पालन करते हैं, जिससे उनके मिशन के दौरान ताकत और हड्डियों को मजबूत बनाए रखने में मदद मिलती है.

इसके अलावा एस्ट्रोनॉट अंतरिक्ष में भी अपनी रीढ़ की हड्डी के बढ़ने के कारण कुछ इंच लंबे हो सकते हैं. हालांकि, धरती पर वापस आने के बाद यह अस्थायी बढ़ोत्तरी गायब हो जाती है. लेकिन रीढ़ की हड्डी के 'रीएडजस्टमेंट' (पुन:संयोजन) के कारण अक्सर पीठ दर्द की शिकायत भी होती है.

चूंकि अंतरिक्ष यात्री चलने के बजाय तैरते हैं, इसलिए उनके पैरों पर कम घर्षण या दबाव पड़ता है. इससे प्रोटेक्टिव कॉलस नरम हो जाते हैं. नतीजतन, उनके पैरों की त्वचा संवेदनशील हो जाती है और छिल जाती है, जो "बच्चे के पैरों" जैसी दिखती है.

इससे उबरने के लिए एस्ट्रोनॉट को धीरे-धीरे रीकंडिशनिंग (पुनर्वास प्रक्रिया) से गुजरना पड़ता है. इसमें बनावट वाली सतहों पर नंगे पैर चलना, मुश्किलों से राहत के लिए पैरों की मालिश करवाना और पैरों की मांसपेशियों और त्वचा को मजबूत करने के लिए रीहैबिलिटेशन एक्सरसाइज करना शामिल है.

ISS की लंबे समय की यात्राएं, जैसे सुनीता विलियम्स ने की, भी हृदय-संवहनी प्रणाली (कार्डियोवैस्कुलर सिस्टम) में अहम बदलाव लाती हैं. जैसे, धरती पर ग्रेविटी शरीर के तरल पदार्थ जैसे रक्त, पानी और लसीका को नीचे की ओर खींचता है, जिससे वे समान रूप से वितरित रहते हैं. 

हालांकि, माइक्रो ग्रेविटी में (जैसे स्पेस में) कोई गुरुत्वाकर्षण खिंचाव नहीं होता है, जिससे तरल पदार्थ सिर की तरफ ऊपर की ओर खिसक जाते हैं. इसके चलते चेहरे पर सूजन, नाक बंद होना और खोपड़ी के अंदर दबाव बढ़ जाता है. साथ ही, शरीर के निचले हिस्से में तरल पदार्थ की कमी हो जाती है, जिससे अंतरिक्ष यात्रियों के पैर पतले और कमजोर दिखाई देते हैं. इस घटना को "पफी-हेड बर्ड-लेग्स सिंड्रोम" कहा जाता है.

इनसे निपटने के लिए एस्ट्रोनॉट को रीहैबिलिटेशन से गुजरना पड़ता है. इसमें रक्त प्रवाह को बढ़ाने के लिए शारीरिक व्यायाम शामिल हैं, जैसे निचले शरीर की ताकत बढ़ाने वाली ट्रेनिंग और सहनशक्ति बढ़ाने वाली कसरतें.

स्पेस में लंबे समय तक रहने के चलते हृदय में भी ढांचागत बदलाव होते हैं. क्योंकि ISS के माइक्रो ग्रेविटी वाले वातावरण में हृदय को गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध रक्त पंप करने के लिए धरती पर जैसे कड़ी मेहनत नहीं करनी पड़ती. इस कम वर्कलोड के चलते हृदय में संरचनात्मक बदलाव होते हैं. स्टडी बताती हैं कि विस्तारित अंतरिक्ष मिशनों के दौरान एस्ट्रोनॉट के हृदय करीब 9.4 फीसद अधिक गोलाकार हो जाते हैं.

हालांकि हृदय की इस साइज में बदलाव से तत्काल स्वास्थ्य जोखिम पैदा नहीं होता है, लेकिन यह हृदय की पंपिंग क्षमता को कम कर सकता है, जिससे धरती पर लौटने पर हृदय संबंधी समस्याओं का जोखिम बढ़ सकता है. हालांकि, ये परिवर्तन आम तौर पर अस्थायी होते हैं, और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के संपर्क में आने के बाद हृदय धीरे-धीरे अपने सामान्य आकार में वापस आ जाता है.

दीर्घकालिक प्रभाव

धरती के विपरीत, अंतरिक्ष हाई एनर्जी कॉस्मिक रेडिएशन के खिलाफ कोई स्वाभाविक सुरक्षा प्रदान नहीं करता है. अंतरिक्ष यात्री सूर्य से आने वाले उच्च स्तर के रेडिएशन के संपर्क में आते हैं. इसके उच्च स्तर को ऐसे समझें कि यह स्पेस में रहने के दौरान रोजाना लगभग एक चेस्ट एक्स-रे के बराबर है.

सोचिए कि करीब नौ महीनों में सुनीता विलियम्स को लगभग 270 चेस्ट एक्स-रे के बराबर विकिरण स्तर का सामना करना पड़ा होगा. अब रेडिएशन के इतने उच्च स्तर के संपर्क में लम्बे समय तक रहने से इम्यून सिस्टम कमजोर हो सकता है, टिश्यू को नुक्सान पहुंच सकता है, और रेडिएशन बीमारी और कैंसर का खतरा बढ़ सकता है, जिससे अंतरिक्ष यात्रियों के लिए लॉन्ग-टर्म स्वास्थ्य संबंधी गंभीर खतरा पैदा हो सकता है.

धरती पर लौटने के बाद भी हड्डियों के घनत्व को पूरी तरह से ठीक होने में सालों लग सकते हैं. और कुछ मामलों में तो अंतरिक्ष यात्री कभी भी अपनी मिशन-पूर्व हड्डियों की ताकत वापस नहीं पा पाते हैं. इससे बाद के जीवन में ऑस्टियोपोरोसिस (हड्डियों का कमजोर होना) और फ्रैक्चर का खतरा बढ़ जाता है.

इन शारीरिक परेशानियों के अलावा, अंतरिक्ष में महीनों समय बिताने से एस्ट्रोनॉट के दिमागी स्वास्थ्य पर असर पड़ सकता है. ISS पर मौजूद वातावरण धरती से बहुत अलग है. ISS हर 90 मिनट में धरती की परिक्रमा करता है, जिससे अंतरिक्ष यात्री रोजाना 16 बार सूर्योदय और सूर्यास्त देख पाते हैं.

इससे उनकी सर्केडियन रिद्म (आंतरिक शारीरिक घड़ी) बाधित होती है और उनकी नींद की पद्धति प्रभावित होती है. एस्ट्रोनॉट को भी एकांतवास और कैद जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है. वे सीमित चालक दल के साथ एक छोटी, बंद जगह में महीनों बिताते हैं. पर्सनल स्पेस और सामाजिक संपर्क की कमी मेंटल हेल्थ को प्रभावित कर सकती है.

समय के साथ ये स्थितियां डिप्रेशन, चिंता और कॉग्निटिव फंक्शन में कमी का कारण बन सकती हैं. कई अध्ययनों से पता चलता है कि लंबी अवधि के अंतरिक्ष मिशन अंतरिक्ष यात्रियों के कॉग्निटिव फंक्शन को खराब कर सकते हैं, जिससे फैसला लेने, रिएक्शन टाइम और भावनात्मक स्थिरता पर असर पड़ता है.

लेकिन एस्ट्रोनॉट भी कोई आम आदमी नहीं हैं, वे दिमागी रूप से सबसे मजबूत और सबसे हेल्दी इंसानों में से हैं. अतीत में, उन्होंने ऐसी सभी चुनौतियों को मात दी है, सिर्फ और सिर्फ अपनी मानसिक मजबूती के कारण. 

उदाहरण के रूप में, एक मिशन पर स्पेस में सबसे लंबे समय तक रहने वाला व्यक्ति सोवियत अंतरिक्ष यात्री वालेरी पोल्याकोव है. उन्होंने अंतरिक्ष स्टेशन मीर पर लगभग 437 दिन बिताए. जब वे धरती पर वापस लौटे तो उन्होंने सोयुज लैंडिंग कैप्सूल और पास की कुर्सी के बीच की छोटी दूरी को खुद ही पैदल चलकर तय किया. जबकि होता यह है कि लंबे समय बाद स्पेस से एस्ट्रोनॉट की वापसी के बाद उन्हें चलने फिरने के लिए सहारे की जरूरत होती है. 

लेकिन पोल्याकोव पैदल चलकर यह साबित करना चाहते थे कि मनुष्य मंगल की सतह पर भी काम करने में शारीरिक रूप से सक्षम हो सकता है. अब सुनीता विलियम्स, जिन्होंने साहसपूर्वक स्पेस में 9 महीने का अनिर्धारित प्रवास पूरा किया, ने एक बार फिर साबित कर दिया कि इंसानी साहस से ब्रह्मांड में असाधारण उपलब्धियां हासिल की जा सकती हैं.

(यह लेख सृजन पाल सिंह द्वारा लिखा गया है. वे एक लेखक और आईआईएम अहमदाबाद से स्नातक हैं, जो भारत के 11वें राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नीति और प्रौद्योगिकी सलाहकार थे. वे डॉ. कलाम सेंटर और होमी लैब के संस्थापक और सीईओ हैं.)

Read more!