कमजोर डॉलर के सामने भी रुपया नीचे क्यों जा रहा! क्या होगा इसका असर?
अमेरिकी टैरिफ, एच-1बी वीजा शुल्क में बढ़ोतरी के ताजा बोझ और भारत में विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों की लगातार बिकवाली से रुपये पर दबाव बढ़ गया है

23 सितंबर को रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 88.80 के नए निचले स्तर पर पहुंच गया. लिहाजा, बाजार के जानकार यह सोचने को मजबूर हुए कि निकट भविष्य में भारतीय मुद्रा में कितनी और गिरावट मुमकिन है. दरअसल मुद्रा में गिरावट कई राजकोषीय हिसाब-किताब को गड़बड़ा सकती है.
रुपया अपने पिछले बंद भाव 88.30 से 46 पैसे नीचे था जो लगभग एक महीने में इसकी सबसे तीखी गिरावट है. गिरते रुपये के कारण आयात महंगा होगा और व्यापार घाटे में इजाफा होगा.
24 सितंबर को रुपया थोड़ा बढ़कर 88.69 प्रति डॉलर पर बंद हुआ. लेकिन इस साल डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा में अब तक 3.6 फीसदी की गिरावट आ चुकी है.
अतीत में जब भी रुपया लड़खड़ाता था तो नीति निर्माताओं का एक तर्क यह होता था कि दूसरी मुद्राओं का भी गिरावट आ रही क्योंकि डॉलर मजबूत हो रहा है. लेकिन अब प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राएं कमजोर डॉलर की तुलना में मजबूत हो रही हैं.
हालांकि यह विरोधाभासी बात लगती है लेकिन केयरएज रेटिंग्स के एक रिसर्च नोट में कहा गया है कि अमेरिका के दूसरी बार भी टैरिफ लागू कर देने, हाल में एच-1बी वीज़ा शुल्क बढ़ाकर 100,000 डॉलर करने की घोषणा और विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों की भारत से निरंतर निकासी के कारण रुपये पर फिर से दबाव आ गया है.
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार हालांकि भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने रुपये में उतार-चढ़ाव को नियंत्रित करने के लिए दखल दिया है. लेकिन उसने उसके किसी खास स्तर का बचाव करने से परहेज किया है, जिससे संकेत मिलता है कि केंद्रीय बैंक धीरे-धीरे मुद्रा का अवमूल्यन होने दे सकता है.
अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन ने, 27 अगस्त से, रूस से तेल खरीदने पर भारतीय निर्यातों पर 25 प्रतिशत का अतिरिक्त टैरिफ लगा दिया है. यह 7 अगस्त से लगाए गए 25 प्रतिशत के जवाबी टैरिफ के अलावा है.
50 प्रतिशत टैरिफ के साथ भारत अब ब्राजील और नीदरलैंड के साथ सबसे अधिक टैरिफ के दायरे में है जबकि रूसी तेल का सबसे बड़ा खरीदार चीन 30 प्रतिशत टैरिफ के साथ बच गया है.
अमेरिकी निर्यात बाजार में भारत के अन्य प्रमुख प्रतिद्वंद्वी देशों, जैसे इंडोनेशिया, थाईलैंड, मलेशिया (तीनों पर मात्र 19 प्रतिशत शुल्क) तथा बांग्लादेश और वियतनाम (दोनों पर 20 फीसदी) टैरिफ लगाया गया है और अब इन देशों को भारतीय निर्यातकों की तुलना में 30 प्रतिशत का लागत लाभ है, जिससे भारतीय निर्यातकों की प्रतिस्पर्धा भोंथरी हो गई है.
इससे हजारों कंपनियां प्रभावित हुई हैं जो मुख्य रूप से कपड़ा, इंजीनियरिंग, रत्न और आभूषण, खाद्य और कृषि, समुद्री खाद्य, रसायन और ऑटो कल-पुर्जा क्षेत्र की हैं. अब ये कंपनियां राजस्व के बड़े नुकसान, बड़े पैमाने पर छंटनी या कारोबारों के बंद होने तक की नौबत का सामना कर रही हैं.
कई एजेंसियों का अनुमान है कि वित्त वर्ष 26 में भारत की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) वृद्धि दर में आधे से लेकर लगभग 1 प्रतिशत तक की गिरावट आएगी. भारत-अमेरिका के बीच व्यापार वार्ता फिर शुरू होने की खबरें हैं, लेकिन यह साफ नहीं है कि समझौता कब तक हो पाएगा जिससे कि भारी-भरकम शुल्क घट जाएं.
केयरएज का अनुमान है कि अगर 50 प्रतिशत शुल्क जारी रहते हैं तो इससे वित्त वर्ष2025- 26 में भारत की जीडीपी वृद्धि दर कम होकर लगभग 6 प्रतिशत तक रह सकती है, बशर्ते शुल्क 15-20 प्रतिशत पर स्थिर रहें.
केयरएज ने कहा, "ये चिंताएं विदेशी पोर्टफोलियो निवेश की आवक पर भारी पड़ रही हैं. इस साल जनवरी से अब तक शुद्ध एफपीआई निकासी (शेयरों और डेट दोनों में) करीब 10 अरब डॉलर रही है. ज्यादा निकासी शेयरों (लगभग 15.9 अरब डॉलर) से हुई है और डेट में निवेश (5.9 अरब डॉलर का) आने से आंशिक रूप से इसकी भरपाई हुई है."
चार महीनों में विदेशी निवेश की सबसे अधिक 2.3 अरब डॉलर (इक्विटी और डेट मिलाकर) की शुद्ध निकासी अगस्त 2025 में हुई जबकि सितंबर (23 सितंबर तक) में 40 करोड़ डॉलर के मामूली शुद्ध विदेशी निवेश की आवक दर्ज की गई.
केयरएज की रिपोर्ट में कहा गया है, "हमें उम्मीद है कि भारत का चालू खाते का घाटा (सीएडी) वित्त वर्ष 2025-26 में जीडीपी के 0.9 प्रतिशत पर रहेगा जिससे कच्चे तेल की कीमतें एक दायरे में रहने और सेवाओं के निर्यात में मजबूती से मदद मिलेगी." रिपोर्ट कहती है, "हम आधार तौर पर 15-20 प्रतिशत अमेरिकी टैरिफ मानते हैं. लेकिन अगर टैरिफ 50 प्रतिशत पर बना रहता है तो सीएडी थोड़ा बढ़कर जीडीपी के 1.2-1.3 प्रतिशत तक पहुंच सकता है, लेकिन फिर भी इसका प्रबंधन किया जा सकेगा."