महिला आरक्षण : क्या है कोटे के भीतर कोटा, जिस पर बढ़ा है संसद का 'सियासी पारा'

महिला आरक्षण के मसले पर अब कोटे के भीतर कोटा की मांग की स्वीकार्यता बढ़ने लगी है. उसे पहले की तरह महिला आरक्षण में बाधा नहीं माना जा रहा, जबकि पहले ऐसा नहीं था

महिला आरक्षण बिल पर लोकसभा में बोलतीं सोनिया गांधी
महिला आरक्षण बिल पर लोकसभा में बोलतीं सोनिया गांधी

"यह देश चार तरह के लोगों से बना है. पहली श्रेणी अनुसूचित जातियों की है, दूसरी श्रेणी किसान वर्ग की, तीसरी उच्च वर्ग की और चौथी सिख, मुस्लिम और ईसाई जैसे अल्पसंख्यक समुदायों की. आप पहले इन वर्गों की जनगणना कराएं, इनका सर्वे कराएं. फिर महिलाओं और इनके अनुपात को ध्यान में रखते हुए इन्हें आरक्षण दे दें."  यह बात समाजवादी नेता शरद यादव ने लोकसभा में 16 मई, 1997 को कही थी. उस दिन शरद यादव के इस बयान की चर्चा कम हुई थी, उनके परकटी महिलाओं वाली टिप्पणी हर तरफ मीडिया में छा गई थी.

दिलचस्प है कि इस घटना के 26 साल बाद कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने शरद यादव की राय का समर्थन करते हुए कहा, "आप महिला आरक्षण जल्द से जल्द लागू कराएं. मगर उससे पहले जाति जनगणना कराएं और महिला आरक्षण में दलितों, पिछड़ों और अनुसूचित जाति के लोगों के समुचित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था करें." भारत में यह विधेयक 1996 से अब तक अटका हुआ है, जिसकी बड़ी जिम्मेदारी शरद यादव, मुलायम सिंह और लालू यादव जैसे समाजवादी नेताओं पर आती है.

शरद यादव अपने जीवनकाल में हमेशा कोटे के भीतर कोटा की बात करते रहे तो बाकी नेताओं का भी अब तक यही रुख है. इन नेताओं की मांग रही है कि महिला आरक्षण के भीतर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग और दूसरे वंचित समुदायों को समुचित प्रतिनिधित्व मिले. इसे ही कोटे के भीतर कोटा कहा जाता है. यह माना जाता रहा है कि महिला आरक्षण की राह में यही सबसे बड़ा रोड़ा है. 

19 सितंबर को भी स्वराज अभियान के संस्थापक योगेंद्र यादव ने एक वीडियो जारी कर कहा है, "कुछ लोगों को लगता है मौजूदा स्वरूप वाले इस बिल से सवर्ण महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ जाएगा. मगर उन्हें लोहिया जी का कथन याद रखना चाहिए कि सभी महिलाएं अंततः पिछड़ी हैं. इसके साथ-साथ 1990 के दशक में जो पिछड़ा उभार हुआ है, उसकी वजह से संख्या बल के कारण पिछड़े पुरुषों की तरह, पिछड़ी जाति की महिलाएं भी प्रतिनिधित्व पा लेंगी. इसलिए इस आधार पर इस बिल को मत रोकिए."

मगर इन 17 सालों में कई पार्टियों और नेताओं में इस मुद्दे को लेकर बदलाव आया है. इसमें सबसे बड़ा उदाहरण कांग्रेस ही है, जिसने आज से पहले तक कभी कोटे के भीतर कोटे का मसला नहीं उठाया था. खुद समाजवादी पार्टी नेता मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा में कहा था, इस मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस दोनों एक जैसी हैं. उन्होंने इसे गरीब, पिछड़ी, दलित और मुसलमान महिलाओं को वंचित करने की साजिश बताया था.

सोनिया गांधी के बयान से पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी कोटे के भीतर कोटे की मांग की है और एक तरह से उनके रुख में भी बदलाव आया है. 1997 ही नहीं 2010 में भी एक पार्टी में रहने के बावजूद नीतीश और शरद यादव की राय अलग-अलग थी.

उस दौर को याद करते हुए वरिष्ठ राजद नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, "तब हम भी यही राय रखते थे कि अभी कोटे के भीतर कोटा बहुत जरूरी नहीं है. 2010 में हम जदयू के साथ थे. इस मुद्दे पर शरद की राय पार्टी से अलग थी. मगर हम मानते हैं कि समय के साथ हमारे रुख में भी बदलाव हुआ है क्योंकि हमने देखा है कि औरतें भी जाति और धर्म के मुद्दे पर उतना ही भेदभाव करती हैं, जितना पुरुष करते हैं. फिर चाहे वह मुंबई में आदिवासी चिकित्सक युवती की खुदकुशी का मामला हो, जिसके तीन महिला डॉक्टरों की जातिगत टिप्पणी को जिम्मेदार माना गया. वहीं, शिक्षिका त्यागी का उदाहरण हो जो धर्म के आधार पर अपने छात्रों से भेदभाव करती थी. इसलिए हम अब मानते हैं. कोटे के भीतर कोटा होना ही चाहिए."

कोटे के भीतर कोटा की मांग को सबसे प्रमुखता से शरद यादव ने ही उठाया था. उनके जीवन पर और भाषणों पर शोध करने वाले जयंत जिज्ञासु कहते हैं, "1996 में तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा ने एक सभा में महिलाओं से वादा किया था कि वे महिला आरक्षण का बिल सदन में पेश करेंगे. उन्होंने किया भी. मगर तब शरद यादव ने उन्हें समझाया कि इस बिल में ओबीसी कोटा होना ही चाहिए.

शरद यादव और मुलायम सिंह यादव ने सबसे मुखर तरीके से कोटे के भीतर कोटा की मांग रखी

फिर अगले साल प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल के समय यह बिल पेश हुआ. उस वक्त गुजराल कहते थे कि चूंकि ओबीसी को पॉलिटिकल रिजर्वेशन नहीं है. संसद में या विधानसभा में उन्हें आरक्षण नहीं है इसलिए महिला आरक्षण में ओबीसी कोटा उचित नहीं है. मगर तब भी उनकी पार्टी के नेता शरद यादव ने सदन में कह दिया था, "पीएम हैं तो क्या भगवान हो गए." तब गुजराल सदन छोड़कर चले गए थे. शरद यादव हमेशा पार्टी स्टैंड से अलग होकर इस मुद्दे को उठाते रहे.  

जिज्ञासु कहते हैं, "बार-बार राममनोहर लोहिया को उद्धृत कर कहा जाता है कि सभी महिलाएं पिछड़ी होती हैं. उनके उद्धरणों को तो कोट किया जाता है. मगर उनके एक्शन पर विचार नहीं किया जाता. इन्हीं लोहिया जी ने एक समय ग्वालियर की रानी विजयाराजे सिंधिया के खिलाफ एक मेहतरानी सुक्खो रानी को चुनाव में खड़ा किया था, भले ही उन्हें सिर्फ 9800 वोट मिले. मगर वे पूरी ताकत से सुक्खो रानी का समर्थन करते रहे. अगर लोहिया सभी महिलाओं को पिछड़ा मानते थे, तो उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था."

जिज्ञासु कोटे के भीतर कोटे के सवाल को मजबूती देने के लिए आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल की पंक्तियां कोट करते हैं-

"एक बार फिर
ऊंची नाक वाली
अधकटे ब्लाउज पहने महिलाएं
करेंगी हमारे जुलूस का नेतृत्व
और प्रतिनिधित्व के नाम पर
मंचासीन होंगी सामने

एक बार फिर
किसी विशाल बैनर के तले
मंच से खड़ी माइक पर वे चीख़ेंगी
व्यवस्था के विरुद्ध
और हमारी तालियां बटोरते
हाथ उठा कर देंगी साथ होने का भरम

एक बार फिर
शब्दों के उड़न-खटोले पर बिठा
वे ले जाएँगी हमे संसद के गलियारों में
जहाँ पुरुषों के अहम से टकराएंगे हमारे मुद्दे
और चकनाचूर हो जाएंगे
उसमे निहित हमारे सपने"

राबड़ी यादव ने भी की है कोटे के भीतर कोटे की मांग

बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने 19 सिंतबर को ही महिला आरक्षण का विरोध कर दिया है. उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा है, "मत भूलो महिलाओं की भी जाति होती है. अन्य वर्गों की तीसरी-चौथी पीढ़ी की बजाय वंचित वर्गों की महिलाओं की अभी पहली पीढ़ी ही शिक्षित हो रही है. इसलिए इनका आरक्षण के अंदर आरक्षण होना ही चाहिए. महिला आरक्षण के अंदर वंचित, उपेक्षित, खेतिहर एवं मेहनतकश वर्गों की महिलाओं की सीटें आरक्षित हो." 

इसके बाद ही नीतीश कुमार ने भी महिला आरक्षण में कोटे के भीतर कोटा की मांग की है. नीतीश के इस बदले रुख के बारे में पूछने पर जदयू नेता अंजुम आरा कहती हैं, "हमारे नेता क्या बोलते हैं, यह समझने से ज्यादा जरूरी है, हमारे नेता क्या करते हैं. नीतीश जी ने 2006 में पंचायतों में और 2007 में नगर निकाय में जब महिलाओं को आरक्षण दिया तो उसमें भी कोटे में दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, अतिपिछडों सबके लिए कोटा था."

इस तरह देखें तो 27 सालों में महिला आरक्षण में कोटे के बीच कोटा की मांग की भी अब स्वीकार्यता बढ़ने लगी है. उसे पहले की तरह महिला आरक्षण की बाधा नहीं माना जा रहा. बिहार के सामाजिक मसले पर शोध करने वाले लेखक-विचारक प्रसन्न कुमार चौधरी कहते हैं, "महिला आरक्षण ही नहीं हर जगह अलग-अलग तरह के आरक्षण होने ही चाहिए. क्योंकि हमने अनुभव किया है कि आरक्षण की वजह से ही हमारा समाज समावेशी हो रहा है."

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