जंग के मैदान से लेकर मंदिर-मठों तक, क्यों फहराए जाते हैं झंडे?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और RSS प्रमुख मोहन भागवत ने एक साथ मिलकर अयोध्या के राम मंदिर पर धर्मध्वज फहराया है, लेकिन क्या आपको पता है कि युद्धक्षेत्र से लेकर मंदिरों तक झंडा क्यों फहराया जाता है?

25 नवंबर को अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के ठीक 673 दिनों बाद PM मोदी और RSS प्रमुख मोहन भागवत ने राम मंदिर के शिखर पर ध्वजारोहण किया. बटन दबाते ही 2 किलो की केसरिया ध्वजा 161 फीट ऊंचे शिखर पर फहरने लगी.
इसके बाद से ही मंदिर के शिखर पर फहराए जाने वाली इस धर्मध्वजा की चर्चा है. ऐसे में जानते हैं कि इस धर्मध्वजा की क्या खासियत है, जंग के मैदान से लेकर मंदिरों तक पर झंडे क्यों फहराए जाते हैं और इसकी शुरुआत कब हुई?
सबसे पहले एक कहानी, जब धार्मिक झंडा उतारने पर शुरू हो गई थी जंग
साल 1739 की बात है. आज के पंजाब और तब के अमृतसर सूबा के सूबेदार मुगल गवर्नर नवाब सैफुद्दीन महमूद खान थे. इन्हें लोग सैफ खान के नाम से भी जानते हैं. सैफ औरंगजेब के समय से ही मुगल दरबार के बेहद वफादार अधिकारी थे. वे सिर्फ सूबेदार नहीं बल्कि अपने समुदाय के धार्मिक नेता भी थे. इसी वजह से सिख धर्म के अनुयायियों से अक्सर उनका टकराव होता रहता था.
अंग्रेज सेना में अधिकारी रहे जॉन मॉल्कम के मुताबिक, एक बार यह टकराव इतना बढ़ गया कि नवाब सैफुद्दीन ने सिखों को अपमानित करने के लिए हरमिंदर साहिब (स्वर्ण मंदिर) और आसपास के गुरुद्वारों से निशान साहिब (सिख धार्मिक झंडा) हटाने का आदेश सुना दिया.
सिख समुदाय ने इस फैसले का कड़ा विरोध किया. इस उग्र विरोध में गुरु गोबिंद सिंह के बचपन के साथी भाई मणि सिंह भी शामिल थे. माना जाता है कि सैफुद्दीन के लोगों ने उन्हें गिरफ्तार कर मौत की सजा सुना दी. इससे सिख समुदाय में और ज्यादा गुस्सा भड़क उठा. तब खालसा पंथ के एक महान योद्धा भाई बोटा सिंह और उनके साथी भाई गरजा सिंह ने मुगल सूबेदार को चुनौती दी.
भाई बोटा सिंह ने चामुंडा की छोटी-सी पहाड़ी जो तरन-तारन के पास है, वहां एक ऊंचा बांस गाड़कर उस पर निशान साहिब फहराया और इस झंडे को उतारने की खुली चुनौती दी. इस बात की जानकारी होते ही सूबेदार ने चामुंडा टीला पर हमला कर धार्मिक झंडा उतारने के लिए 100 से ज्यादा मुगल सैनिक भेज दिए. दोनों तरफ से भीषण जंग हुई.
भाई बोटा सिंह और भाई गरजा सिंह ने अकेले लड़ते हुए कई मुगल सैनिकों को मार गिराया और शहीद हो गए, लेकिन निशान साहिब नहीं उतर सका. इस घटना ने पूरे पंजाब में सिखों के हौसले बुलंद कर दिए और सूबेदार को सिखों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा. भारत में अंग्रेज सेना अधिकारी रहे जॉन मॉल्कम ने अपनी किताब 'स्केच ऑफ सिख' के पेज नंबर 78-79 में इस घटना का जिक्र किया है.
आखिर किसी मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा पर धर्मध्वजा क्यों फहराई जाती है?
आमतौर पर देश में किसी मंदिर पर झंडा तब फहराया जाता है, जब मंदिर का निर्माण पूरा हो चुका हो. 22 जनवरी 2024 में प्राण प्रतिष्ठा के समय राम मंदिर पर इसलिए झंडा नहीं फहराया गया, क्योंकि तब मंदिर बनकर पूरी तरह से तैयार नहीं हुआ था. हालांकि, मंदिर पर झंडा क्यों फहराया जा रहा है, इसको लेकर अलग-अलग विद्वानों की अलग-अलग राय हैं-
दिल्ली यूनिवर्सिटी के संस्कृत विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. रमेश चंद्र कुशवाहा के मुताबिक, मंदिर में ध्वज फहराने की परंपरा सीधे-सीधे प्राचीन युद्ध-परंपरा से आई है. जिस तरह प्राचीन भारत में राजा का ध्वज उसकी संप्रभुता (sovereignty) का प्रतीक होता था. जिस क्षेत्र में राजा का ध्वज फहरता था, वहां उसकी सत्ता मानी जाती थी. ठीक उसी तरह मंदिर को ‘देव-राज्य’ माना जाता था. इसलिए मंदिर के गर्भगृह को ‘राजधानी’ और मुख्य देवता को ‘चक्रवर्ती राजा’ मानकर उसके महल यानी मंदिर पर भी उसका अपना ध्वज फहराया जाता था.
इस तरह के ध्वज को ध्वजस्तंभ या ‘इंद्रध्वज’ जैसे नामों से जानते हैं. जब तक मंदिर पर ध्वजा फहराता है, तब तक घोष होता है कि भगवान यहां विराजमान हैं और यहां धर्म या कहें तो ईश्वर का राज्य है. यह सिर्फ हिंदू धर्म नहीं बल्कि संभव है कि बाकी धर्मों के धार्मिक स्थलों पर भी ध्वजा फहराए जाने की एक मुख्य वजह हो.
वहीं, कुछ पंडितों का मानना है कि मंदिर का हर हिस्सा भगवान के शरीर के समान होता है. मंदिर की पहली सीढ़ी भगवान के पैर, गर्भगृह उदर इसी तरह ध्वजा भगवान के केश होते हैं. इसीलिए मंदिर बनने के बाद ही शिखर पर ध्वजा लगाया जाता है.
झंडा फहराने की शुरुआत कब और क्यों हुई?
दुनिया का सबसे पहला झंडा कैसा था, कहां था, इसको लेकर अलग-अलग दावे किए जाते हैं. हालांकि, पुरातात्विक और ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर सबसे पुराना झंडा 3500 ईसा पूर्व के वेक्सिलॉइड को माना जाता है. हालांकि, कुछ लोग इसे झंडा नहीं, बल्कि झंडे जैसी प्रतीकात्मक चीज मानते हैं. अमेरिकी वेक्सिलोलॉजिस्ट (जो झंडों पर पर रिसर्च करते हैं) व्हिटनी स्मिथ ने 1958 में वेक्सिलॉइड को पहला झंडे जैसा प्रतीक माना था.
पिटमैन, होली की किताब, 'आर्ट ऑफ ब्रॉन्ज एज' के मुताबिक, करीब 2400 ईसा पूर्व यानी करीब 4,424 साल पहले ईरान के शाहदाद (Shahdad) में एक कांस्य (bronze) ध्वज जैसा प्रतीक मिला था. यह झंडा प्राचीन ईरानी सभ्यता का हिस्सा था और संभवतः युद्ध या धार्मिक उद्देश्यों के लिए फहराया जाता था.
यह एक धातु का "डेराफश" (Derafsh) या झंडे जैसा प्रतीक था, जिसमें एक बैठे हुए पुरुष और घुटनों पर बैठी महिला की आकृति थी, बीच में एक तारा बना हुआ था. यह वेक्सिलॉइड कपड़े का नहीं, बल्कि धातु का बना था.
कुछ वेक्सिलोलॉजिस्ट यह भी मानते हैं कि लगभग 3000 ईसा पूर्व में प्राचीन मिस्र की सेनाओं ने लकड़ी या धातु के प्रतीक फहराए, जो झंडों के प्रारंभिक रूप थे.
अगर धार्मिक झंडे की बात करें तो यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस ने अपनी किताब 'द हिस्ट्रीज़' में रायथम/रायत्थम झंडे का जिक्र किया है. इसे पहला धार्मिक झंडा माना जाता है, जिसे ईरान के हखामनी साम्राज्य में जोरोस्ट्रियन धर्म (Zoroastrianism) का राजकीय ध्वज बनाया गया था.
अगर जंग के मैदान में झंडा फहराने की बात करें तो ऐसा माना जाता है कि प्राचीन मिस्र के न्यू किंगडम काल (लगभग 1550 ईसा पूर्व) में जंग के मैदान में झंडे फहराए जाते थे. झंडा गिरना सेना की हार का प्रतीक माना जाता था. इसके अलावा, लगभग 1046–256 ईसा पूर्व में चीन के झोऊ राजवंश में सफेद बैनर (झंडा) सेनाओं के आगे फहराए जाते थे.
भारत में झंडा फहराए जाने का इतिहास कितना पुराना है?
इस सवाल का जवाब पूर्व सैन्य व सिविल अधिकारी केवी सिंह के रिसर्च आर्टिकल 'फ्लैग ऑफ एंशिएंट एंड एपिक इंडिया' में मिलता है. उनके मुताबिक, भारत में झंडा (ध्वज या ध्वजा) की परंपरा वैदिक काल से ही विद्यमान थी, लेकिन लौह युग (लगभग 1200 ईसा पूर्व से 200 ईसा पूर्व) के दौरान यह अधिक संगठित रूप से युद्ध और राज्य प्रतीक के रूप में विकसित हुई.
लौह युग भारत में आर्य जाति के विस्तार, महाजनपदों (जैसे मगध, कोसल) के उदय और प्रारंभिक साम्राज्यों का काल था. इस युग में झंडे मुख्यतः सेना की इकाइयों की पहचान, मनोबल बढ़ाने और विजय के प्रतीक के रूप में फहराए जाते थे.
जंग के मैदान में झंडा फहराए जाने की असल वजह क्या है?
लेखक व माइथोलॉजिस्ट देवदत्त पटनायक एक इंटरव्यू में बताते हैं,“झंडा युद्ध का प्रतीक है. जंग के मैदान में झंडा खड़ा है तो मतलब राजा जिंदा है, राज्य जिंदा है, हम हारे नहीं हैं. जंग के मैदान में राजा अपने सैनिकों के मनोबल को ऊंचा बनाए रखने के लिए भी झंडा फहराते थे."
यही वजह है कि जंग के मैदान में या फिर किसी धार्मिक स्थानों पर हमले के बाद आक्रमणकारी सबसे पहले झंडा गिराते थे. ऐसा इसलिए क्योंकि झंडा गिराए जाने से उस जगह के राजा या उस धर्म विशेष की हार मानी जाती है.
इंडिया टुडे के लिए आशीष मिश्र को दिए इंटरव्यू में अयोध्या के प्रतिष्ठित साकेत महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य वी. एन. अरोड़ा बताते हैं कि चाहे भारत हो या दुनिया का कोई भी देश, हर सेना में युद्ध के दौरान झंडा थामने वाला सैनिक सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. उसके गिरने का मतलब सेना का मनोबल गिरना भी समझा जाता था. इसी तरह धार्मिक स्थानों में झंडा मंदिर की आत्मा और उसकी परंपरा का प्रतीक होता है.
अब आखिर में जानिए राम मंदिर पर फहराए गए ध्वज की क्या खासियत है?
अयोध्या के हनुमत निवास मंदिर के मुख्य पुजारी मिथिलेश नंदिनी इस परंपरा को सरल तुलना से समझाते हैं. उनके अनुसार जैसे कोई सजने-संवरने के बाद आखिरी में टाई पहनता है, वैसे ही मंदिर भी तब पूरा माना जाता है जब उसके ऊपर झंडा फहर जाए. वे बताते हैं कि हर देवता के अपने प्रतीक और अपने झंडे होते हैं. भगवान शिव का वृषक ध्वज नंदी का प्रतीक है, भगवान विष्णु का गरुणत्व ध्वज उनकी पहचान है, कार्तिकेय के लिए मयरत ध्वज है और रघुवंश यानी भगवान राम के वंश के लिए कोविदारा वृक्ष का प्रतीक झंडा है. नई परंपरा में भी यह वही विरासत आगे ले जाने की कोशिश है.
राम मंदिर का यह नया झंडा कई मायनों में खास है. 191 फीट की कुल ऊंचाई में 160 फीट मंदिर के मुख्य शिखर की है और उसके ऊपर लगाया गया ध्वज मंदिर की पहचान को नई ऊंचाई देता है. इस झंडे पर सूर्यदेव का चिह्न, ॐ और कोविदार का संकेत दर्ज है, जिनका अर्थ धर्म, पराक्रम और राम राज्य के आदर्शों से जोड़ा गया है. यह पूरा झंडा चमकदार केसरिया रंग का है और अपनी बनावट में पूरी तरह हाथ से तैयार किया गया है. कला, परंपरा और तकनीक का मेल इसमें साफ दिखता है. अहमदाबाद की कंपनी, जो पैराशूट फैब्रिक में माहिर है, को इस झंडे को तैयार करने का काम दिया गया.
झंडा 22 फीट लंबा और 11 फीट चौड़ा है. इसे मंदिर के 42 फीट ऊंचे ध्वजदंड पर लगाया जाएगा. ध्वजदंड का आधार एक खास बॉल-बेयरिंग चैंबर पर है, ताकि यह 360 डिग्री घूम सके और तेज हवा में भी झंडा आसानी से लहराता रहे. ट्रस्ट की टीम ने बताया कि इसकी क्षमता 60 किलोमीटर प्रति घंटे की हवा को झेलने की है. ध्वज की क्वालिटी को तय करने में सेना के वरिष्ठ अधिकारियों की भी सलाह ली गई है.