राज्यसभा में 4 नामों की नियुक्ति क्या मोदी सरकार के नए रणनीतिक बदलाव का संकेत है?
संसद के उच्च सदन को अक्सर हारने वाले राजनेताओं या बुजुर्ग हस्तियों का ठिकाना बताकर मजाक में लिया जाता था, लेकिन उसे अब असरदार सदन के रूप में नए सिरे से ढाला जा रहा

कुछ सियासी नियुक्तियां इरादे जाहिर करने के लिए होती हैं. वहीं, कुछ का मकसद इकोसिस्टम को आकार देना होता है. 13 जुलाई को संविधान के अनुच्छेद 80(1)(क) के तहत इतिहासकार मीनाक्षी जैन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दिग्गज सी. सदानंदन मास्टर, 26/11 केस के विशेष लोक अभियोजक उज्ज्वल निकम और पूर्व विदेश सचिव हर्ष वर्धन शृंगला की राज्यसभा के लिए मनोनयन साफतौर पर दूसरी श्रेणी में आता है.
मनोनयन सूची दिखाती है कि अपने तीसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी सरकार सभी राज्यों में अपनी वैचारिक पकड़ को किस तरह और गहरा करने का इरादा रखती है. वह भी चुनावों की तात्कालिक दरदार या संसद में विश्वास मत की नाटकीयता से परे.
चारों शख्स अलग-अलग क्षेत्रों से हैं: जैन दिल्ली (उत्तर) से हैं, शृंगला का गृह नगर दार्जिलिंग (पूर्व) है, निकम मुंबई (पश्चिम) से हैं और सदानंदन मास्टर केरल (दक्षिण) से हैं.
यह कोई तड़क-भड़क वाला समूह नहीं है. कोई बड़ा सेलिब्रिटी जोर नहीं, कोई भावनात्मक पसंद नहीं, संगीत का कोई दिग्गज नहीं या कोई ओलंपिक शख्सियत नहीं. 2018-22 में कुछ राज्य सभा नामांकन तारीफ हासिल करने की कोशिश प्रतीत हुई थीं—संगीतकार इलैयराजा, खेल जगत की मैरी कॉम और पी.टी. उषा और अन्य शख्सियतें चुनी गई थीं.
उसके विपरीत, इस बार का चयन आडंबरहीन और सीधा सादा है. और यह सादगी नपा-तुला है. यह सजावटी प्रतीकवाद से वैचारिक स्पष्टता की ओर बढ़ने का संकेत है. मोदी सरकार 3.0 अब बहुलता या समावेशिता दिखा नहीं रही है. यह और मजबूत तथा दृढ़ होने पर केंद्रित है—रणनीतिक प्रभाव वाले सभी संस्थानों, कथानकों और क्षेत्रों में.
जैन की ही मिसाल लें. वह एक शांत मगर प्रभावशाली इतिहासकार हैं और पिछले दो दशकों के दौरान उनके अकादमिक कार्य ने एक विशिष्ट भारतीय—प्रायः हिंदू माने जाने वाले—दृष्टिकोण से सभ्यता के इतिहास को नए सिरे से गढ़ने की कोशिश की है.
चाहे वह मध्यकालीन आक्रमणों के दौरान मंदिरों के विध्वंस की बात हो या मुगल शासन की पुनर्व्याख्या हो, जैन की विद्वता संघ परिवार के सांस्कृतिक उपनिवेशीकरण के लंबे अरसे से चल रहे एजेंडे के साथ अच्छी तरह से मेल खाती है.
जैन की राम और अयोध्या (2013); सतीः इवैन्जेलिकल, बैप्टिस्ट मिशनरीज, ऐंड द चैंजिंग कॉलनिअल डिस्कॉर्स (2016); द बैटल ऑफ राम: केस ऑफ दी टेंपल ऐट अयोध्या (2017); ऐंड फ्लाइट ऑफ डैअटीज ऐंड रीबर्थ ऑफ टेंपल्सः ऐपिसोड्स फ्रॉम इंडियन हिस्ट्री (2019) सरीखी किताबों ने वामपंथी इतिहासकारों के खिलाफ संघ परिवार की लड़ाई को बौद्धिक गहराई प्रदान की है और समर्थन आधार को जुटाने में मदद की है.
संसद में जैन की मौजूदगी का मकसद उस वैचारिक रुख को प्रतिध्वनित करना है जो शिक्षा, विरासत और अन्य क्षेत्रों की मौजूदा नीतियों की अगुआई कर रहा है. जैन के रूप में सरकार केवल एक विद्वान को नामित नहीं कर रही बल्कि विधायी पाठ में एक अंतर्निहित वैचारिक अर्थ भी जोड़ रही है.
सदानंदन मास्टर का मनोनयन भी उतना ही अहम है. उनके साहस और उनकी शारीरिक स्थिति के बावजूद जारी उनकी सक्रियता के लिए भाजपा उनका उल्लेख “जीवित शहीद” के तौर पर करती है. सदानंदन मास्टर राजनीतिक हिंसा के पीड़ित रहे हैं. साल 1994 में केरल के कन्नूर जिले में सीपीएम कार्यकर्ताओं के कथित हमले में उन्होंने अपने दोनों पैर खो दिए थे.
पेशे से स्कूल शिक्षक सदानंदन जमीनी वैधता का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसकी भाजपा को दक्षिण भारत में सख्त दरकार है, खासकर केरल और तमिलनाडु में, जो पार्टी की तमाम कोशिशों के बावजूद चुनावी रूप से दुष्कर साबित हुए हैं.
अधिक अहम बात यह कि सदानंदन मास्टर का राज्यसभा में शामिल होना प्रतिनिधित्व संबंधी विजन को फिर से पटरी पर वापस लाने का संकेत देता है—जो पहचान की राजनीति पर नहीं बल्कि वैचारिक निष्ठा और जमीनी स्तर पर संगठन-निर्माण पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है. सदानंदन भीड़ खींचने वाले नहीं बल्कि कॉडर का निर्माण करने वाले शख्स हैं. सोशल मीडिया पर उन्हें बधाई देते हुए मोदी ने अपने पोस्ट में सदानंदन मास्टर की ओर से झेली गई हिंसा को रेखांकित किया. प्रधानमंत्री ने साझा किया, “हिंसा और धमकी राष्ट्रीय विकास के प्रति उनके जज्बे को कम नहीं कर सकी. एक शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी उनके प्रयास सराहनीय हैं.”
फिर आते हैं निकम, वह अभियोजक जो आतंकवादी विरोधी भारत के कुछ सबसे अहम मुकदमों के दौरान जाना-पहचाना नाम बन गए. 1993 के मुंबई सीरियल धमाकों से लेकर नवंबर 2008 के मुंबई हमलों तक, निकम ने सरकार की अभियोजन के दृढ़ इरादे के इर्द-गिर्द अपनी सार्वजनिक छवि गढ़ी है.
माना जा रहा है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने राज्य सभा में उनके नामांकन का समर्थन किया और यह राष्ट्रीय सुरक्षा के रक्षक होने के भाजपा के बड़े दावे के बिल्कुल मुफीद है.
यह महाराष्ट्र क जटिल सियासी प्रवृत्तियों को भी दर्शता है, जहां भाजपा को एक राष्ट्रवादी कथानक और वफादार संस्थागत चेहरों की दरकार है ताकि वह मजबूत विपक्ष के खिलाफ अपनी लड़ाई को साध सके. निकम केवल एक पारंगत वकील नहीं हैं, बल्कि वह पार्टी के इस दावे के प्रतीक हैं कि मोदी के राज में भारत मजबूत, अधिक निर्णायक और भीतरी या बाहरी खतरों से ज्यादा सख्ती से निपटता है.
उनकी कानूनी समझ के साथ-साथ राष्ट्र के प्रमुख अभियोजक के तौर पर उनकी टीवी-वाली उनकी दृढ़ छवि पार्टी को आतंकवाद, इंसाफ और आपराधिक न्यायशास्त्र की बहसों में अरसदार आवाज प्रदान करती है. 2024 के लोकसभा चुनाव में फड़नवीस उन्हें टिकट दिलाने में कामयाब हुए, मगर निकम को हार का स्वाद चखना पड़ा था.
राज्य सभा में उनके आने का मतलब है कि भाजपा को कानूनी प्रतिभा मिल रही है जो विपक्षी बेंचों के कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी सरीखे नेताओं का सामना कर सके.
इसके विपरीत, शृंगला सत्ता की शांत प्रशासनिक व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं. विदेश सचिव और बाद में जी20 शेरपा के तौर पर उन्होंने वैश्विक उथल-पुथल के दौर में भारत की मजबूत विदेशी नीति को लागू करने में अहम भूमिका निभाई. माना जाता है कि उनका नामांकन मुख्यतौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) की ओर से आगे बढ़ाया गया—यह एक ऐसे भरोसेमंद तकनीकी विशेषज्ञ को संसद में लाने की कोशिश है जो विदेश मामलों, व्यापार नीति और भू-राजनीतिक रणनीति पर विधायी बहसों को सक्रिय रूप से आकार दे सके.
कई मायनों में शृंगला की पदोन्नति मोदी सरकार की कूटनीति के नजरिये में बदलाव का प्रतीक है. अब यह सियासत से अछूता नहीं रहा, बल्कि इसे राजनीतिक परियोजना का ही हिस्सा बना लिया गया है. संसद को एक ऐसे मंच के तौर पर पुनःस्थापित किया जा रहा जहां राजनयिक अब किनारे से रिपोर्ट नहीं करते बल्कि वे सीधे बहसों में भाग लेते हैं.
भाजपा जातिगत संतुलन की वजह से भाजपा लोकसभा चुनावों में शृंगला को उनके गृहनगर दार्जिलिंग से टिकट नहीं दे पाई थी. अब, भारत के जी20 की अध्यक्षता के दौरान उनके काम का उन्हें इनाम मिल रहा है.
कुल मिलाकर, ये चारों मनोनयन मोदी सरकार के रणनीतिक मिज़ाज का खाका पेश करते हैं. यह कोई व्यापक सहमति हासिल करने की कोशिश करती सरकार नहीं है. यह ऐसी सरकार है जो मानती है कि उसका तीसरा कार्यकाल न केवल चुनावी वैधता बल्कि वैचारिक अनिवार्यता का भी प्रतीक है. और, जिस तरह की संसद का निर्माण वह कर रही है उसे यही विश्वास आकार दे रहा है—न केवल चुनावों के जरिये बल्कि चुनिंदा चयनों से भी.
राज्य सभा को अक्सर मजाक में हारे हुए राजनेताओं या वृद्ध हस्तियों के ठिकाना कहा जाता था, मगर उसे अब सरकार की ओर से गहरे असर वाले साधन के रूप में नए सिरे से ढाला जा रहा है. शोरगुल से नहीं, बल्कि विचारों, विशेषज्ञता और दीर्घकालिक कथानकों को मजबूत करते हुए उनके समन्वय के जरिये.
इसके साथ ही, यह अतीत से कोई बड़ा अलगाव नहीं है. अगर मोदी सरकार के पिछले मनोनयनों पर गौर करें तो एक पैटर्न साफ नजर आता है. 2018 और 2020 के बीच राकेश सिन्हा, स्वप्न दासगुप्ता और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई का चयन इसी रणनीति की शुरुआती संकेत थे. सिन्हा और दासगुप्ता वैचारिक आवाज के प्रतिनिधि थे; राम जन्मभूमि पर फैसला सुनाने वाले गोगोई संस्थागत मूल्य लेकर आए. गोगोई का मनोनयन—किसी मुख्य न्यायाधीश का सेवानिवृत्ति के कुछ ही महीनों बाद उच्च सदन में जाना—अभूतपूर्व था.
मगर पीछे मुड़कर देखें तो यह शुरुआती प्रारूप या मॉडल की तरह नजर आता है. गोगोई इस बात का पहला संकेत थे कि मोदी सरकार अब राज्य सभा के मनोनयन को महज औपचारिक नहीं मानने वाली. इसको लेकर अब वे रणनीतिक होंगे.
2025 में यह बदलाव हुआ है कि रणनीतिक अब संरचनात्मक हो गया है.
अब कोई विचलन नहीं है. चारों मनोनित शख्स शासनकला में माहिर हैं. वे न केवल अपने क्षेत्रों के बारे में, बल्कि मोदी युग के नीति-निर्माण को संचालित करने वाली गहरी वैचारिक शब्दावली को भी बयान करने में माहिर हैं. सांस्कृतिक व्याख्या करने वाली इतिहासकार सभ्यागत राष्ट्र की अवधारणा को मजबूत करती हैं. आरएसएस के अंदरूनी शख्सियत पार्टी की जमीनी नेटवर्क का विस्तार करते हैं.
अभियोजक राष्ट्रीय सुरक्षा के कथानक को मजबूत करते हैं. वहीं राजनयिक विदेश नीति को सीधे राजनीतिक चेतना में उतारते हैं. उनमें से कोई भी सामान्य नहीं है. वे सभी एक बड़ी परियोजना के हिस्सा और साधन हैं.
कांग्रेस के ज़माने के मनोनयनों से इससे ज्यादा साफ नहीं हो सकता. तब, मनोनित श्रेणी का इस्तेमाल प्रतीकात्मक समावेशिता दिखाने के लिए नागरिक समाज को समायोजित करने या फिर चुनावी समर्थन गंवा चुके वफादारों की जगह बनाने के लिए किया जाता था. कभी-कभार ही कुछ खास झलक दिखती थी—देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एम.एस. गिल या अर्थशास्त्री बालचंद्र मुंगेकर को ही लें—मगर रणनीतिक संगति शायद ही देखने को मिलती थी.
मोदी के ज़माने में, खासकर अब इस तीसरे कार्यकाल में, मनोनयन अब महज पुरस्कृत करने की कवायद नहीं रह गया है. यह अब संस्थागत समायोजन भी हो गया है. शिक्षा, कानून, जमीनी पहुंच और कूटनीति, किसी भी आधुनिक राष्ट्र के चार सबसे शक्तिशली स्तंभ हैं. इन चार क्षेत्रों के संगम पर अपनी विश्वदृष्टि से जुड़े लोगों को आगे रखकर, मोदी सरकार न केवल संसद के कामकाज को बल्कि भारत की सोच और शासन को भी अपने हिसाब से ढाल रही है.
यह याद रखा जाना जरूरी है कि राज्य सभा को इस तरह के सत्ता-प्रदर्शन के लिए नहीं बनाया गया था. मगर मोदी के कार्यकाल में इसे धीरे-धीरे चुपचाप बदलाव के केंद्र के रूप में ढाला जा रहा है. लोकसभा में जहां आवाज और संख्या जताती है, वही उच्च सदन संदेश या संकेत देने के लिए अहम हैं. और ये चारों मनोनयन शुद्ध रूप से संकेत हैं.
अगर मोदी का तीसरा कार्यकाल में विरासत—अचल बुनियादों को स्थापित करना—सबसे अहम है तो राज्य सभा मनोनयन का यह दौर एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है. यह याद दिलाता है कि सियासत में सबसे महत्वपूर्ण और दूरगामी कदम अक्सर चुपचाप उठाए जाते हैं. कोई हैशटैग नहीं. कोई सुर्खियां नहीं. बस चार नाम जो बेंच के पीछे से भारतीय शासनकला के अगले दशक को आकार देने में मदद कर सकते हैं.
नए राज्यपाल, नए संदेश
इस बीच, 14 जुलाई को प्रोफेसर असीम कुमार घोष को हरियाणा और पुसापति अशोक गजपति राजू को गोवा का राज्यपाल बनाया गया, तो कविंद्र गुप्ता को लद्दाख का उपराज्यपाल नियुक्त किया गया है. यह केंद्र की सोची-समझी सियासी मंशा को दिखाता है और इसमें आरएसएस की स्पष्ट छाप है.
घोष आरएसएस से गहरे जुड़ाव वाले विद्वान हैं. दूसरी तरफ, जम्मू में गुप्ता के संघ की पृष्ठभूमि को देखते हुए, उनकी नियुक्ति लद्दाख में स्थिरता पर ध्यान केंद्रित करनेका संकेत देती है. दरअसल, लद्दाख विभिन्न मसलों पर सियासी असंतोष की चपेट में रहा है.
वहीं राजू अब भाजपा में हैं, मगर उनके तेगुलु देशम पार्टी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू के साथ घनिष्ठ संबंध बरकरार हैं. उनकी नियुक्ति राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में सावधानीपूर्वक साधे गए समीकरण का संकेत देती है. ये नियुक्तियां बताती हैं कि भाजपा आलाकमान उन वफादारों पर भरोजा जता रहा है जो संघ की विश्वदृष्ट से जुड़े हैं और साथ ही गठबंधन के दौर की सियासती तथा क्षेत्रीय शक्ति संतुलन की जरूरतों को भी कुशलता से साध रहे हैं.