बीजेपी के लिए जाट पहले भी उलझी पहेली थे, धनखड़ ने इसे कैसे और उलझा दिया?

जाट पहचान वाली पार्टियों के साथ गठबंधन और बड़े जाट नेताओं को अपने पाले में लाने के साथ बीजेपी के लिए जगदीप धनखड़ को उपराष्ट्रपति बनाना इस समुदाय को रिझाने की एक बड़ी कवायद थी हालांकि उनके इस्तीफे ने इस किलेबंदी की कमजोरियां जाहिर कर दीं

Jagdeep Dhankhar (Photo/PTI)
जगदीप धनखड़

बीजेपी ने 2022 में जब जगदीप धनखड़ का उपराष्ट्रपति के पद पर प्रमोशन किया तो इसे मास्टरस्ट्रोक कहकर पेश किया गया. राजस्थान के किठाना गांव के किसान के बेटे जगदीप धनखड़ हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब में फैले जाटों के गढ़ में पार्टी को अचानक मिली कामयाबी के क्षण का प्रतीक थे. उनकी नियुक्ति सम्मान, प्रतिनिधित्व और लंबे वक्त की हिस्सेदारी का संकेत थी. आखिरकार वे इस शीर्ष संवैधानिक पद पर आसीन होने वाले पहले जाट जो थे.

बामुश्किल तीन साल बाद धनखड़ को एकाएक हटाने और नरेंद्र मोदी सरकार के साथ उनके मतभेद की खबरों ने उस नैरेटिव को उलट दिया. नेता-जनता अब इस मामले के गुण-दोषों के आधार पर नहीं बल्कि इसके साथ जुड़ी भावनाओं के आधार पर राय बना रहे हैं. जाट चौपालों और खाप की बैठकों में इसे दिल्ली के बेमजा सांस्थानिक झगड़े की तरह नहीं बल्कि उस जानी-पहचानी कहानी की तरह देखा जा रहा है जिसमें बीजेपी कथित तौर पर कुर्सी तो देती है पर सत्ता नहीं, पदवी तो देती है पर भरोसा नहीं. कई हलकों में इसने लंबे वक्त से चले आ रहे समुदाय के अविश्वास को और गहरा ही किया है.

केंद्र की मौजूदा सरकार कई लोगों की नजर में बेदर्दी से कुल्हाड़ी चलाने के लिए जानी जाती है. मसलन, भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के गर्वनरों रघुराम राजन और उर्जित पटेल को आहिस्ता से बाहर का रास्ता दिखाना, चुनाव आयुक्त अशोक लवासा को रुखसत करना, वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग को अचानक हटाना, कबीना मंत्रियों को कैफियत के बिना अदलना-बदलना, यहां तक कि बहुत मेहनत से हासिल चुनावी जीतों से पहले या बाद में मुख्यमंत्रियों को बदलना. धनखड़ के मामले को फिर भी अलग तरह से देखा जा रहा है.

उपराष्ट्रपति के पद पर उनके प्रमोशन को अंदरूनी तौर पर जाट समुदाय को प्रतीकात्मक इशारे और समूचे राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अहमियत रखने वाले चेहरे की नियुक्ति के तौर पर पेश किया गया था. धनखड़ ने भी अपने जाट होने के ठप्पे को जानते-बूझते आगे बढ़ाते हुए इस पहचान को खुशी-खुशी गले लगाया. बीजेपी के इतना खुलेआम उन्हें बेदखल करने से यह धारणा और मजबूत हुई है कि पार्टी का इस समुदाय की तरफ झुकाव महज अपने फायदे के लिए था.

जगदीप धनखड़ शायद अपने को जाट नेता साबित नहीं कर पाए. उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि संविधान की उनकी समझ की वजह से बीजेपी ने उन्हें राज्यपाल के तौर पर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से निपटने के लिए चुना, और बाद में उन्हें सभापति के रूप में राज्यसभा को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी.

मगर कुछ लोग बीजेपी के खिलाफ हमदर्दी, जज्बात और नाराजगी भड़काने की कोशिश कर रहे हैं. धनखड़ के इस्तीफे ने समूची जाट पट्टी में तीखी प्रतिक्रियाएं सुलगा दीं.  इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) के मुखिया अभय सिंह चौटाला ने इसे “साजिश” बताया, तो दुष्यंत चौटाला और उनकी जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) ने इसे “राष्ट्रीय क्षति” करार दिया.

जाट खापें भी आ गईं. युद्धबीर सिंह धनखड़ ने जाटों का मन फिरने की चेतावनी दी, तो टेक राम कंडेला ने स्वास्थ्य की वजह से इस्तीफा देने के धनखड़ के दावे को “बहाना” कहकर खारिज कर दिया. यहां तक कि हरियाणा के पिछले चुनाव में बीजेपी के साथ खड़े रहे रंजीत चौटाला ने कहा कि समुदाय को अपने भीतर झांकना चाहिए : “बीजेपी ने हमारे लोगों को अहम पद दिए. पहले सत्यपाल मलिक ने पार्टी को सांसत में डाला, और धनखड़ ने भी कुछ कम नहीं किया.” किसान नेता राकेश टिकैत ने युवा जाट नेताओं को तंजभरी चेतावनी दी : “पार्टी से जुड़े 50 से कम उम्र के नेताओं का हश्र दुष्यंत चौटाला की तरह होगा, 50 से ऊपर वाले सत्यपाल मलिक या जगदीप धनखड़ की तरह दरकिनार कर दिए जाएंगे.”

बीजेपी के लिए यह झटका कहीं ज्यादा गहरी चोट इसलिए है क्योंकि पिछले एक दशक से वह मेलजोल की सोची-समझी कोशिश करती आ रही है. मोदी के सालों में जाटों को लेकर रणनीति बनाने की लगातार कोशिश की गई, क्योंकि उन्हें पता है कि यह समुदाय करीब 30 लोकसभा सीटों के नतीजों को झुका सकता है और समूचे उत्तर भारत में विधानसभाओं की राजनीति पर उसका दबदबा है. यह कोशिश व्यवस्थित ढंग से की गई : “गैर-जाट” होने के आरोप का मुकाबला करने के लिए हरियाणा में सुभाष बराला और ओ.पी. धनखड़ को, राजस्थान में सतीश पूनिया को, उत्तर प्रदेश में चौधरी भूपेंद्र सिंह को, और पंजाब में सुनील जाखड़ को बीजेपी प्रमुख बनाया गया.

जगदीप धनखड़ के उभार के साथ कई राज्यपाल भी बनाए गए : बिहार, जम्मू-कश्मीर और मेघालय में सत्यपाल मलिक, गुजरात में आचार्य देवव्रत, उत्तराखंड में गुरमीत सिंह. साफ दिखाया जा रहा था कि बीजेपी हर स्तर पर जाट नेतृत्व में निवेश कर रही है.

बीजेपी फिर नेताओं के शिकार पर भी निकल पड़ी. कांग्रेस से कद्दावर जाट नेता बीरेंद्र सिंह आए, जिन्हें केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा की सीट देकर पुरस्कृत किया गया. उनकी पत्नी प्रेमलता को हरियाणा के विधानसभा चुनाव में उतारा गया और बेटे बृजेंद्र सिंह को लोकसभा सांसद बनाया गया, जो जाटों को साधने का आदर्श उदाहरण था. फिर लोकसभा चुनाव से ऐन पहले पिता-पुत्र कांग्रेस में लौट गए. बृजेंद्र ने विधानसभा चुनाव लड़ा और हार गए, जिससे बीजेपी बरसों के सोचे-समझे निवेश से हाथ मलती रह गई.

पंजाब में भी यही सबक मिला. बीजेपी ने बलबीर सिद्धू और गुरप्रीत कांगड़ को लाकर और सुनील जाखड़ को राज्य प्रमुख बनाकर जाट सिख कृषि राजनीति में सेंध लगाने की कोशिश की. लेकिन ग्रामीण इलाकों में गहरी संगठनात्मक पैठ और किसान नेटवर्कों के साथ सांस्कृतिक जुड़ाव न होने से पार्टी परदेसी ही बनी रही. 

राजस्थान में हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (रालोपा) के साथ गठबंधन से जाट गोलबंदी की झलक मिली, जो देखते ही देखते तितर-बितर भी हो गई. 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले राहुल कस्वां के पाला बदलकर कांग्रेस में चले जाने से राज्य में अपने दम पर टिके रहने वाले दूसरी कतार के जाट नेतृत्व का अभाव सामने आया.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भी अलहदा लहजे में यही कहानी है. 2024 में जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के साथ गठबंधन चुनावी लिहाज से फायदेमंद था, लेकिन इससे बाहरी सहारे पर बीजेपी की निर्भरता भी सामने आई. 2020-21 में कृषि कानूनों के खिलाफ हुए प्रदर्शनों की यादें मुजफ्फरनगर और शामली में अभी भी मंडरा रही हैं. कभी बीजेपी के अपने जाट चेहरा रहे सत्यपाल मलिक इस आंदोलन के दौरान उसके सबसे कटु अंदरूनी आलोचक बन गए. जनकल्याण की योजनाओं और पिछड़ों की गोलबंदी ने खोई जमीन वापस पाने में कुछ हद तक बीजेपी की मदद की, लेकिन उसके जाट कार्यकर्ता अभी भी इने-गिने हैं.

सिखाने के लिहाज से हरियाणा सबसे अच्छा उदाहरण है. बीजेपी दशक भर से सत्ता पर काबिज है, फिर भी उसका मूल आधार शहरी पंजाबी जमातों, बनिया समुदाय और गैर-प्रमुख ओबीसी से मिलकर बना है. दुष्यंत चौटाला के साथ 2019 में हुए गठबंधन से उम्मीद थी कि वह जाटों की ग्रामीण ताकत के साथ मिलकर टिकाऊ गठबंधन बनेगा. कृषि कानूनों पर हुए विरोध प्रदर्शनों ने इसकी धज्जियां उड़ा दीं. खापों के गुस्से और गठबंधन के प्रति वफादारी के बीच बंधी रस्सी पर संतुलन साधने की दुष्यंत की कलाबाजी बीजेपी की ढांचागत मुश्किल की प्रतीक थी : संगठित जाट आधार नहीं होने से उसे ऐसे गठबंधनों का सहारा लेना पड़ता है जो समुदाय के भरोसे के इम्तिहान का मौका आते ही भरभराकर धराशायी हो जाते हैं.

जाटों को जोड़ने की बीजेपी की तमाम कोशिशों के बावजूद आंकड़ों से पैटर्न का खुलासा आता है : स्वदेशी नेतृत्व विकसित करने के बजाय पार्टी बहुत ज्यादा दलबदलुओं और गठबंधनों के आसरे है. मोदी के मौजूदा मंत्रिमंडल में तीन जाट मंत्रियों में से दो- जयंत चौधरी और रवनीत सिंह बिट्टू- 2024 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले प्रतिद्वंद्वी खेमों से आए.

हरियाणा में नायब सिंह सैनी के मंत्रिमंडल के दो जाट चेहरों में से एक, श्रुति चौधरी, हाल ही में कांग्रेस से दल बदलकर आईं. राजस्थान की भजन लाल शर्मा सरकार में चार जाट मंत्री हैं, जिनमें से आधों की वंशावली कांग्रेसी है. यहां तक कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मंत्रिमंडल के तीन जाट मंत्रियों की पहचान जनसामान्य के साथ जुड़ाव नहीं बल्कि सांगठनिक वफादारी है. केंद्र और तमाम राज्यों के लेखे-जोखे से ढांचागत कमी सामने आती है : हिंदी पट्टी पर दशक भर से राज कर रही पार्टी को पाल-पोसकर विकसित करने के बजाय जाट चेहरे उधार लेने पड़ते हैं.

इस जाट पहेली को सुलझाने में बीजेपी नाकाम क्यों रही? जवाब जितना अंकगणित में है उतना ही संस्कृति में भी. जाट राजनीति कृषि प्रधान है, इसकी जड़ें जमीन, खाप पंचायतों और इज्जत के सामूहिक बोध में है. इन राज्यों में बीजेपी का समाजशास्त्रीय डीएनए शहरी, व्यापारिक और गैर-प्रमुख ओबीसी में है. दूसरी जगहों पर पुल का काम कर रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की शाखाओं का जाल जाट गांवों में कभी गहरी जड़ें नहीं जमा सका. इस विचाराधारात्मक पैठ के अभाव में पार्टी की रणनीति पैराशूट से नेताओं को उतारने और गठबंधन का तानाबाना बुनने की गलती करती है. इससे धूमधाम तो पैदा होती है, वफादारी नहीं. जाट राजनीति में इज्जत दिल्ली से नहीं बख्शी जाती, चौपाल में कमाई जाती है.

यही वजह है कि ऊंचे पदों पर प्रतीकात्मक नियुक्ति अक्सर उलटी चोट पहुंचाती है. धनखड़ को उपराष्ट्रपति के पद से नवाजा जाना सम्मान की सर्वोच्च भावभंगिमा थी. सरकार के साथ उनकी खुली धींगामुश्ती को ज्यादा बड़े पैटर्न के सबूत के तौर पर देखा जा रहा है : बीजेपी स्वायत्तता के बिना पदवियां देती है, बोलने की ताकत के बिना कुर्सियां देती है. बीरेंद्र सिंह और बृजेंद्र के जाने से भी यही नैतिक सीख मिली. पंजाब में सिद्धू-कांगड़-जाखड़ प्रयोग चेहरे न होने की वजह से नहीं बल्कि जड़ें नहीं होने से नाकाम हुआ.

इस पर राजनैतिक अर्थव्यवस्था के फर्क की परत चढ़ी है. बीजेपी का उत्तर भारतीय नैरेटिव जनकल्याण योजनाओं की अदायगी, शहरी विस्तार और गैर-कृषि वृद्धि की बुनियाद पर खड़ा है. जाट राजनीति का पगहा जमीन के मूल्य, कर्ज और खेती की नैतिक अर्थव्यवस्था से बंधा है. कृषि कानूनों के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शन नीति के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया भर नहीं थे, वे पहचान से जुड़ा विद्रोह थे. अब भी जब बीजेपी एमएसपी की गारंटियां और ग्रामीण रेवड़ियों की पेशकश करती है, उस फूट की याद बनी रहती है.

बीजेपी के लिए यह मामूली मुश्किल नहीं है. अपने उत्तर भारतीय दबदबे को बनाए रखना भावभंगिमाओं को सच्ची जड़ों में बदलने पर टिका है. मौजूदा मॉडल- प्रतीकात्मक पद, आयातित नेता, लेनदेने के समझौते- ने बीच-बीच में जीत तो दिलाईं, लेकिन ढांचागत मजबूती नहीं मिली. इस चक्र को तोड़ने के लिए लीक हटकर चलने की जरूरत है : जाट पट्टी में सच्चा काडर खड़ा करें, खापों के जाल में पैठ बनाएं, जनकल्याण की खैरातों से आगे बढ़कर कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का माहौल गढ़ें, और सबसे ज्यादा, यह समझें की जाट राजनीति में इज्जत दी नहीं जाती, उपजाई जाती है.

जाटों को साधने की जुगत में बीजेपी ने एक दशक लगा दिया. इसके बजाय उसने जो खड़ा किया, वह उधार के चेहरों और कागजी गठबंधनों की भुरभुरी इमारत है, जो किसी भी वक्त धराशायी होने से बस एक दलबदल या विरोध-प्रदर्शन भर दूर है. जब तक बीजेपी यह नहीं समझती कि पदों से वफादारी नहीं खरीदी जाती और इज्जत के बिना सत्ता लेशमात्र भी सत्ता नहीं होती, तब तक यह जाट पहेली उसकी सबसे जिद्दी जद्दोजहद बनी रहेगी.

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