इंडिया-यूएस ट्रेड डील : क्यों भारत को मंजूर नहीं अमेरिका की शर्तें?

भारत अब वैसा खिलाड़ी नहीं रहा जैसा वह पहले के व्यापार दौरों के समय था. देश का वैश्विक कद बढ़ा है, निर्यात में विविधता आई है और घरेलू बाजार और मजबूत हुआ है

पीएम मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प (फाइल फोटो)
पीएम मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प (फाइल फोटो)

जब 5 से 7 जून के बीच नई दिल्ली में भारतीय और अमेरिकी वार्ताकार मेज पर आमने-सामने बैठे, तो माहौल कारोबारी लेकिन तनावपूर्ण था. दांव पहले से कहीं ज्यादा ऊंचे थे. एक तरफ थे नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, जो अपने दूसरे कार्यकाल में आर्थिक राष्ट्रवाद को अपना नारा बनाकर उतरे थे.

वहीं दूसरी तरफ थे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो लगातार तीसरी बार सत्ता में आए थे, और संप्रभुता की गहरी भावना के साथ भारत की वैश्विक आर्थिक भागीदारी को फिर से संतुलित कर रहे थे. इन दोनों देशों के बीच एक बार फिर से चर्चा के केंद्र में था - सीमित व्यापार समझौता.

यह समझौता भारत और अमेरिका के बीच लंबे समय से, यूं कहें कि ट्रंप के पहले कार्यकाल से अनसुलझा रहा है. अब ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद यह एक बार फिर चर्चा में है, लेकिन नई राजनीतिक मजबूरियों और रणनीतिक सोच के साथ. भारत और अमेरिका का लक्ष्य 2030 तक आपसी व्यापार को दोगुना कर 500 अरब डॉलर तक पहुंचाना है.

ट्रंप प्रशासन, जो वैश्विक व्यापार को अपनी शर्तों पर नए सिरे से लिखने के लिए कमर कस चुका है, भारतीय बाजार को एक अनछुए निर्यात के अवसर और चीन के प्रभुत्व के खिलाफ एक रणनीतिक हथियार के रूप में देखता है.

लेकिन पहले के दौर के उलट, ट्रंप के अमेरिका में समझौता करने की इच्छा बहुत कम है. अब हर व्यापार समझौते को अमेरिकी नौकरियों और निर्यातकों के लिए स्पष्ट फायदा पहुंचाने वाला होना चाहिए. इससे कम कुछ भी घाटे के सौदे के रूप में देखा जा सकता है, खासकर 2026 के अमेरिकी मध्यावधि चुनावों से पहले के गर्म घरेलू माहौल में.

राष्ट्रपति ट्रंप ने बार-बार कहा है कि पहले के समझौते भारत जैसे देशों के लिए बहुत उदार थे. उनका दावा है कि इन देशों ने अमेरिका की खुली नीतियों का लंबे समय तक फायदा उठाया. इसे ध्यान में रखते हुए अमेरिकी व्यापार अधिकारी एक संक्षिप्त लेकिन स्पष्ट एजेंडे के साथ दिल्ली पहुंचे. इनमें टैरिफ बाधाओं को हटाना, संवेदनशील क्षेत्रों (सेंसिटिव सेक्टर) को खोलना और डिजिटल व रेगुलेटरी प्रतिबद्धताओं को हासिल करना जो अमेरिकी कंपनियों के हितों के अनुरूप हों.

हालांकि, भारत अब वैसा खिलाड़ी नहीं रहा जैसा वह पहले के व्यापार दौरों के समय था. पिछले कुछ वर्षों में देश ने अपने रणनीतिक और आर्थिक आत्मविश्वास को फिर से बनाया है. उसका वैश्विक कद बढ़ा है, निर्यात में विविधता आई है, और घरेलू बाजार और मजबूत हुआ है. लेकिन सबसे अहम बात, नीति बनाने वालों में व्यापार को देखने के तरीके में स्पष्ट बदलाव आया है.

अब भारत 'पैसिव लिब्रलाइजेशन' (निष्क्रिय उदारीकरण) के बजाय 'एक्टिव नेगोशिएशन' (सक्रिय बातचीत) की ओर ज्यादा ध्यान देता है. भारत अब केवल दिखावे या कूटनीतिक लाभ के लिए समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिए उत्सुक नहीं है. अतीत में असंतुलित मुक्त व्यापार समझौतों के अनुभव और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक सहयोग (RCEP) को ठुकराने से मिले सबक ने भारत के मौजूदा रुख को गहराई से प्रभावित किया है.

2025 तक, भारत यूरोपीय संघ और आसियान सहित प्रमुख भागीदारों के साथ बातचीत कर रहा है, साथ ही अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और खाड़ी के अरब देशों के साथ नए समझौतों की भी संभावना तलाश रहा है. अब जोर इस बात पर है कि व्यापार को राष्ट्रीय विकास लक्ष्यों के साथ जोड़ा जाए, नियामक स्वतंत्रता की रक्षा की जाए, और डिजिटल बुनियादी ढांचे, स्वच्छ ऊर्जा और दवा जैसे प्रमुख क्षेत्रों में घरेलू क्षमताओं को बढ़ाया जाए.

इस नेगोशिएशन को अलग बनाने वाली बात सिर्फ दोनों पक्षों का सख्त रुख नहीं है, बल्कि भारत में वैचारिक और संस्थागत आवाजों की मजबूत मौजूदगी है जो इस बात का विरोध कर रही है कि यह एकतरफा सौदा है.

पिछले कुछ महीनों में, स्वदेशी जागरण मंच सहित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े संगठनों ने भारतीय वार्ताकारों के लिए कई लाल रेखाएं खींची हैं. ये सिर्फ अकादमिक आलोचनाएं नहीं हैं, बल्कि गहरी जड़ें जमाए हुए वैचारिक आपत्तियां हैं जो सत्तारूढ़ राजनीतिक इकोसिस्टम के प्रमुख हिस्सों में गूंजती हैं. उनके लिए उत्साहजनक बात यह है कि भारत की आधिकारिक स्थिति उनकी कई चिंताओं से काफी हद तक मेल खाती है.

इस बीच 20 पूर्व अधिकारियों, जिनमें पूर्व कैबिनेट सचिव केएम चंद्रशेखर, जीके पिल्लई, उजाल सिंह भाटिया, अमरेंद्र खटुआ और संजय बारू शामिल हैं, के साथ-साथ कुछ अर्थशास्त्रियों ने नई दिल्ली को एक असंतुलित सौदे से "दूर हटने" की चेतावनी दी.

उन्होंने कहा कि अमेरिका में व्यापार प्रोत्साहन प्राधिकरण नहीं होने से कोई भी रियायतें सिर्फ ट्रंप के समय के टैरिफ तक सीमित होंगी, स्थायी कानून नहीं बनेंगे. भारत के अहम हितों से समझौता करने से लंबे समय तक स्वायत्तता कम हो सकती है. उनका कहना है कि अमेरिकी बाजारों का दरवाजा कुछ समय के लिए बंद होना बेहतर है, बजाय इसके कि भारत का नियंत्रण कमजोर हो.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों की अपनी-अपनी चिंताएं हैं, लेकिन सबसे ऊपर डिजिटल संप्रभुता है. अमेरिका सीमा-पार डेटा प्रवाह, डेटा स्थानीयकरण पर रोक और भारत में काम करने वाली अमेरिकी डिजिटल कंपनियों के लिए ढीले नियमों पर बाध्यकारी प्रतिबद्धताएं चाहता है.

भारतीय वार्ताकारों ने कथित तौर पर इन मांगों का विरोध किया है. नई दिल्ली में यह समझ बढ़ रही है कि ऐसी शर्तों को स्वीकार करने से भारत के डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी ढांचे-यूपीआई, आधार, डिजिलॉकर, ओएनडीसी- की सुरक्षा को खतरा होगा, जो सभी डेटा और प्रौद्योगिकी इकोसिस्टम पर सरकारी नियंत्रण पर आधारित हैं.

डर यह है कि बड़ी टेक कंपनियां व्यापार समझौतों को इस तरह इस्तेमाल कर सकती हैं ताकि घरेलू नियामक स्वायत्तता को खत्म किया जाए, जवाबदेही कम की जाए और महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर एकाधिकार स्थापित किया जाए. स्वदेशी खेमे के लिए यह सिर्फ तकनीकी बहस नहीं है बल्कि यह सुनिश्चित करने के बारे में है कि मुक्त व्यापार के नाम पर भारत का डिजिटल भविष्य सिलिकॉन वैली की दिग्गज कंपनियों को सौंपा न जाए.

टकराव का एक और बड़ा मुद्दा बौद्धिक संपदा अधिकारों, खासकर दवा क्षेत्र में है. अमेरिकी फार्मा लॉबी लंबे समय से भारत पर TRIPS-प्लस प्रावधान अपनाने का दबाव डाल रही है, जिसमें लंबी पेटेंट अवधि, पेटेंट लिंकेज और अनिवार्य लाइसेंसिंग को कमजोर करना शामिल है. लेकिन यह भारत के लिए रेड लाइन हैं.

दुनिया के सबसे बड़े सस्ती जेनेरिक दवाओं और टीकों के आपूर्तिकर्ता के रूप में भारत की सफलता एक लचीले बौद्धिक संपदा ढांचे पर निर्भर करती है, जो एकाधिकार से ज्यादा लोगों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देता है.

भारतीय पेटेंट कानून की धारा 3(डी), जो लंबे समय तक पेटेंट को रोकने के लिए बनाई गई है, इस बड़े वैचारिक मतभेद का प्रतीक है. घरेलू समूहों और स्वास्थ्य नीति विशेषज्ञों का तर्क है कि इस मोर्चे पर समझौता करने से न केवल भारतीय नागरिकों के लिए दवाओं की कीमत बढ़ेगी, बल्कि ग्लोबल साउथ की फार्मेसी के रूप में भारत की वैश्विक साख को भी नुकसान पहुंचेगा.

कृषि क्षेत्र भी एक फ्लैशपॉइंट के रूप में उभरा है. अमेरिका ने जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों, क्लोरीन-वॉश्ड पोल्ट्री और हार्मोन-उपचारित डेयरी प्रोडक्ट के लिए अधिक बाजार पहुंच के लिए दबाव डाला है.

भारतीय वार्ताकारों के लिए, यह राजनीतिक और आर्थिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र है. भारतीय किसान पूरी तरह से अलग परिस्थितियों में काम करते हैं - छोटी जोत, पारंपरिक प्रथाएं और जैव विविधता पर गहरी निर्भरता.

पर्याप्त सुरक्षा उपायों के बिना जीएमओ या औद्योगिक खाद्य उत्पादों को पेश करने से स्थानीय आपूर्ति शृंखलाएं अस्थिर हो सकती हैं, मिट्टी की सेहत को नुकसान पहुंच सकता है और छोटे किसान विस्थापित हो सकते हैं. संघ और इसके सहयोगी संगठनों ने खाद्य सुरक्षा में एहतियाती सिद्धांत को कमजोर करने के खिलाफ बार-बार चेतावनी दी है, यह बताते हुए कि अल्पकालिक टैरिफ राहत के लिए दीर्घकालिक खाद्य संप्रभुता से समझौता नहीं किया जा सकता है.

ट्रंप प्रशासन की जिद है कि भारत को सामान्यीकृत प्राथमिकता प्रणाली (GSP) के तहत टैरिफ लाभ तभी मिलेंगे अगर वह इन उत्पादों के लिए बाजार खोले. इसने बातचीत को और जटिल कर दिया है. भारतीय वार्ताकार उपभोक्ता सुरक्षा, नियामक स्वतंत्रता और घरेलू संवेदनशीलताओं का हवाला देकर अड़े रहे हैं.

वाशिंगटन अपने कृषि-निर्यात समूहों, खासकर जीएम मकई, सोया और डेयरी के लिए जोर दे रहा है, लेकिन भारतीय अधिकारी चिंतित हैं कि ऐसी रियायतें गैर-टिकाऊ आयात का रास्ता खोल सकती हैं और खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल सकती हैं. यह गतिरोध व्यापार उदारीकरण और भारत की विकास और कृषि जरूरतों के बीच गहरे तनाव को बताता है.

एक और विवादास्पद अमेरिकी मांग है निवेशक-राज्य विवाद निपटान (ISDS) मैकेनिज्म को शामिल करना, जिससे अमेरिकी कंपनियां भारतीय सरकार पर अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता मंचों में मुकदमा कर सकें, अगर उन्हें लगता है कि भारत के कानूनों से उनके मुनाफे को नुकसान हुआ है.

भारत ने कथित तौर पर इस मांग को साफ तौर पर ठुकरा दिया है, जो पिछले दशक में अन्य मुक्त व्यापार समझौतों (FTAs) में उसके रुख के अनुरूप है. ISDS कानूनों को भारत की नीतिगत स्वतंत्रता और न्यायिक प्रक्रिया के लिए गंभीर खतरा माना जाता है. बहुराष्ट्रीय विवादों के पिछले अनुभवों से स्पष्ट है कि ऐसे तंत्र अक्सर भारतीय अदालतों को दरकिनार करते हैं और देश को भारी देनदारियों के जोखिम में डालते हैं. स्वदेशी खेमा तर्क देता है कि कोई भी विवाद निपटान ढांचा दोनों पक्षों के लिए समान, सीमित दायरे वाला और भारतीय कानूनी संस्थानों पर आधारित होना चाहिए.

बड़े मुद्दों के अलावा, कुछ और छोटी लेकिन उतनी ही अहम चिंताएं हैं. अमेरिकी वार्ताकारों ने ई-कॉमर्स, रक्षा उत्पादन, स्वच्छ ऊर्जा और कृषि-लॉजिस्टिक्स जैसे रणनीतिक क्षेत्रों में उदारीकरण की मांग की है. हालांकि भारत ने इन क्षेत्रों में चुनिंदा ढंग से खोलने की अनुमति दी है, लेकिन बिना सुरक्षा के पूर्ण उदारीकरण स्थानीय कंपनियों, सहकारी समितियों और स्टार्टअप्स के लिए हानिकारक हो सकता है.

घरेलू लॉबी एक संतुलित नजरिए की वकालत करती हैं, जो विदेशी निवेश की सीमा, स्थानीय नियमों और घरेलू मूल्यवर्धन मानदंडों को जोड़कर भारत के दीर्घकालिक औद्योगिक हितों की रक्षा करता हो.

व्यापार समझौतों में श्रम मानकों, लैंगिक अधिकारों, पर्यावरण नियमों और नागरिक समाज की भागीदारी जैसे अतिरिक्त अध्याय जोड़ने की बढ़ती प्रवृत्ति को लेकर भी चिंता है. ये भले ही प्रगतिशील लगें, लेकिन स्वदेशी पक्ष चेतावनी देता है कि ये अक्सर भविष्य में मुकदमों या प्रतिष्ठा पर दबाव बनाने के लिए इस्तेमाल हो सकते हैं. भारत की प्राथमिकता है कि वह अपनी सभ्यता के मूल्यों, आजीविका की जरूरतों और संघीय ढांचे पर आधारित अपने ESG (एनवायरनमेंटल, सोशल और गवर्नेंस) मानक बनाए, न कि ऐसे आयातित ढांचे अपनाए जो भारतीय वास्तविकताओं के अनुकूल न हों.

आखिरकार, यह समझ बढ़ रही है कि व्यापार उदारीकरण अक्सर सांस्कृतिक और पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों - जैसे आयुर्वेद, हस्तशिल्प, जनजातीय ज्ञान और स्थानीय खाद्य पदार्थों - को नजरअंदाज कर देता है, जो पश्चिमी बौद्धिक संपदा (IPR) परिभाषाओं में फिट नहीं बैठते. ये भारत के लिए, खासकर ग्रामीण और स्वदेशी समुदायों के लिए, असली आर्थिक संपत्ति हैं. RSS से जुड़े संगठनों ने व्यापार वार्ताओं में भौगोलिक संकेतों, सांस्कृतिक साझा संसाधनों और ग्रामीण रचनात्मक उद्योगों की मजबूत सुरक्षा की मांग की है.

स्वदेशी एहतियात की बढ़ती आवाज अनदेखी नहीं हुई है. भारत के हाल के व्यापार निर्णयों - जैसे यूके के साथ FTA की सतर्क गति और RCEP को ठंडे बस्ते में डालना - यह बताते हैं कि असंतुलित सौदे अब स्वीकार्य नहीं हैं.

रिटायर्ड व्यापार वार्ताकारों और नीति विशेषज्ञों की हाल की चेतावनियों ने इस रुख को और मजबूती दी है. उनका कहना है कि अगर सौदा एकतरफा लगे तो नई दिल्ली को उससे पीछे हटने के लिए तैयार रहना चाहिए, और सरकार को अल्पकालिक दिखावे के लिए दीर्घकालिक स्वतंत्रता से समझौता नहीं करना चाहिए. यह भावना विभिन्न मंत्रालयों के अधिकारियों में तेजी से साझा हो रही है: भारत धैर्य रख सकता है, लेकिन नीतियों पर कब्जा बर्दाश्त नहीं कर सकता.

इस बीच, अमेरिकी पक्ष पर नतीजे देने का दबाव है. ट्रंप का व्यापार सिद्धांत, जो उनकी चुनावी रणनीति से प्रेरित है, में बारीक कूटनीति की गुंजाइश कम है. सौदों की घोषणा धूमधाम से होनी चाहिए. लाभ स्पष्ट और मापने योग्य होने चाहिए. और विदेशी सरकारों को यह दिखाना होगा कि उन्होंने झुककर समझौता किया है. ऐसे माहौल में, भारत का संतुलित और विकास-अनुकूल सौदे पर जोर वाशिंगटन में प्रतिरोध के रूप में देखा जा सकता है. फिर भी, नई दिल्ली इस कीमत को चुकाने के लिए तैयार दिखती है, मूर्खता के बजाय तनाव को चुनते हुए.

नई दिल्ली में हुई बातचीत का ताजा दौर बिना किसी अंतिम सफलता के खत्म हो गया, लेकिन इस दौरान इतनी हलचल रही कि यह संकेत मिला कि दरवाजा अभी भी खुला है. दोनों पक्षों के बीच इस गर्मी में एक और दौर की बातचीत होने की उम्मीद है.

लेकिन भारत का संदेश स्पष्ट होता जा रहा है: कूटनीतिक रियायत के रूप में व्यापार नीति का युग खत्म हो चुका है. इसकी जगह एक नया ढांचा आ रहा है - व्यावहारिक, संप्रभु और हर खंड में निहित वैचारिक विकल्पों के बारे में गहराई से जागरूक. विश्वगुरु बनने की आकांक्षा रखने वाले देश के लिए व्यापार कला में महारत हासिल करना अब वैकल्पिक नहीं रह गया है. यह एक रणनीतिक जरूरत है.

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