भारत बनाएगा अब एल्यूमिनियम इंडस्ट्री के कचरे से स्कैंडियम जैसी दुर्लभ मेटल!

झारखंड के जमेशदपुर में स्थित नेशनल मेटालर्जिकल लेबोरेटरी (NML) ने एल्यूमिनियम इंडस्ट्री के कचरे ‘रेड मड’ से स्कैंडियम निकलने की तकनीक विकसित की है

Rare Earth metal
प्रतीकात्मक तस्वीर

केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के मुताबिक एल्यूमिनियम उत्पादन से दुनियाभर में हर साल 17.50 करोड़ टन रेड मड यानी लाल कचरे का उत्पादन होता है. जिसमें भारत की हिस्सेदारी करीब 90 लाख टन के लगभग है. बॉक्साइट अयस्क से एक टन एल्यूमिनियम बनाने पर लगभग 1 से 1.5 टन रेड मड उत्पन्न होता है.

अत्यधिक क्षारीयता और भारी धातुओं के रिसाव के कारण रेड मंड को विषैला माना जाता है. इसकी उच्च क्षारीयता और रिसाव की संभावनाओं के कारण इसका भंडारण भारत सहित दुनियाभर के देशों में एक गंभीर पर्यावरणीय समस्या है. भारत में ओडिशा बॉक्साइट का सबसे बड़ा उत्पाद राज्य (49 फीसदी) है. इसके बाद गुजरात (24 फीसदी) और झारखंड (9 फीसदी) का नंबर आता है.
 
आमतौर पर रेड मड को बांध या तालाब बनाकर इकट्ठा किया जाता है. लेकिन इसके लिए उस इलाके की देखभाल, यानी जब तक उसे तालाब या बांध में जमा किया जाता है, उस अवधि के दौरान लगातार निगरानी और रखरखाव की जरूरत होती है. इस नुकसान से बचने के लिए दुनियाभर में इसके ऊपर शोध चल रहे हैं. इसी कड़ी में झारखंड के जमशेदपुर स्थित नेशनल मेटालर्जिकल लेबोरेटरी (NML) को एक बड़ी सफलता मिली है.
 
NML के वैज्ञानिकों ने पहली बार रेड मड के विषाक्त अवशेषों से स्कैंडियम जैसी अत्यंत दुर्लभ धातु निकालने की तकनीक विकसित की है. यह उपलब्धि न केवल पर्यावरणीय नुकसान को कम करेगी, बल्कि भारत को उन्नत सामग्री और हाईटेक इंडस्ट्री में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में निर्णायक भूमिका भी निभाएगी.
 
 रेड मड या बॉक्साइट अवशेष को पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक माना जाता है. इसमें आर्सेनिक, लेड और क्रोमियम जैसी भारी धातुएं पाई जाती हैं, जो मिट्टी व जल स्रोतों को गंभीर रूप से दूषित कर देती हैं. अगर स्टोरेज डैम से रिसाव हो जाए, तो ये नदियों और भूजल को क्षारीय बना देतीं हैं. इससे जलीय जीवन नष्ट हो जाता है और कृषि भूमि बंजर बन जाती है.
 
CSIR-NML के डायरेक्टर डॉ संदीप घोष चौधरी के अनुसार, स्कैंडियम एक संक्रमण धातु है जिसका परमाणु क्रमांक 21 है. संक्रमण धातुएं दूसरी धातुओं के साथ आसानी से कैमिकल बॉन्ड बना लेती हैं और उन्हें ज्यादा उपयोगी बना देती हैं.  स्कैंडियम एक हल्की, मजबूत और चमकीली सफेद रंग की धातु है, लेकिन अत्यंत दुर्लभता के कारण इसकी कीमत सोने से भी अधिक होती है. समुद्री जल में इसकी मात्रा काफी कम पाई जाती है इसलिए इसका मुख्य स्रोत बॉक्साइट या यूरेनियम अयस्क ही माना जाता है. 
 
स्कैंडियम की खास बात यह है कि एल्युमीनियम में केवल 0.1-0.5 फीसदी ही स्कैंडियम मिलाने से उसका ( मिश्रित धातु) एलॉय दो गुना मजबूत हो जाता है. इससे वजन कम हो जाता है और जंग प्रतिरोधक क्षमता काफी बढ़ जाती है. यही कारण है कि स्कैंडियम का उपयोग एयरोस्पेस उद्योग, रॉकेट इंजनों, सैन्य उपकरणों, उच्च गुणवत्तावाले खेल उपकरणों, साइकिल फ्रेम, गोल्फ क्लब और हाई इंटेंसिटी लैंप्स में व्यापक रूप से किया जाता है.  ईंधन सेल तकनीक में भी यह बिजली उत्पादन को अधिक दक्ष बनाता है.
 
डॉ संदीप के मुताबिक भारत में एयरोस्पेस, रक्षा और उन्नत सामग्री की बढ़ती मांग को देखते हुए स्कैंडियम की घरेलू आपूर्ति सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है. रेड मड को टॉक्सिक वेस्ट से मूल्यवान संसाधन में बदलने की दिशा में यह तकनीक मील का पत्थर साबित होगी.
 
पहले भी मिल चुकी है सफलता
 
हालांकि रेड मड को लेकर भारत में चल रहे विभिन्न संस्थानों के शोध की यह पहली सफलता नहीं है. इससे पहले इसी साल वेदांता कंपनी ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के साथ एक एमओयू साइन किया है. जिसके तहत रेड मड को फसल उगाने योग्य पोषक तत्वों से भरपूर मिश्रण में बदलने का लक्ष्य रखा गया है ताकि इसकी क्षमता का उपयोग खेती और पुराने रेड मड भंडारण क्षेत्रों में वन लगाने में किया जा सके. 
 
वेदांता कंपनी ने हाल ही में एक और महत्वपूर्ण तकनीकी उपलब्धि हासिल की थी. जिसके तहत एल्यूमिनियम रिफाइनिंग के दौरान बॉक्साइट रेड मड को 30 फीसदी कम करने की प्रक्रिया विकसित की गई.  जिससे एल्यूमिनियम उत्पादन बढ़ोतरी हुई और ऊर्जा की खपत कम हुई.  इस रिसर्च को आईआईटी खड़गपुर के सहयोग से वेदांता की रिसर्च एंड डेवलपमेंट टीम ने पूरा किया था.
 
इससे पहले 2022 में भोपाल के CSIR–एडवांस्ड मटेरियल्स एंड प्रोसेसेज़ रिसर्च इंस्टीट्यूट  ने रेड मड को किफायती तरीके से सिरेमिक तकनीक से एक्स-रे शील्डिंग टाइल्स में परिवर्तित किया था. ये टाइल्स विषैले लेड शीट्स के स्थान पर डायग्नोस्टिक एक्स-रे, सीटी स्कैनर रूम, कैथ लैब, बोन मिनरल डेंसिटी टेस्ट, डेंटल एक्स-रे आदि में विकिरण से सुरक्षा संरचनाएं बनाने के लिए उपयोग की जा सकती हैं. इसे भारत के एटॉमिक एनर्जी रेगुलेटरी बोर्ड द्वारा मंजूरी मिली है..
 
रेड मड सबसे कम उपयोग किए जाने वाले औद्योगिक अपशिष्टों में से एक है और एल्यूमिनियम उत्पादन बढ़ने तथा इसके बड़े पैमाने पर उपयोग की उपयुक्त तकनीकों की कमी के कारण लगातार जमा होता जा रहा है. दुनिया भर के वैज्ञानिक समुदाय ने रेड मड के 700 से अधिक उपयोगों पर पेटेंट कराया है, लेकिन उच्च लागत, कम जनस्वीकृति, पर्यावरणीय चुनौतियों और सीमित बाज़ार के कारण बहुत कम अनुप्रयोग उद्योगों तक पहुंच पाए हैं. वर्तमान में केवल 3 से 4 फीसदी रेड मड का उपयोग ही उद्योगों में हो पाता है. जैसे सीमेंट, ईंट, लौह अयस्क का स्रोत आदि के रूप में हो रहा है.

झारखंड ने झेला है नुकसान

झारखंड ने इसका नुकसान झेला है. साल 2019 में 9 अप्रैल को रांची के मूरी इलाके में हिंडाल्को कंपनी के लगभग 100 एकड़ में फैले रेड मड तालाब के ठह जाने के कारण बड़ी संख्या में लोग हताहत हुए थे. साथ ही आसपास की जमीन पूरी तरह बर्बाद हो गई थी. इन्हीं परिस्थितियों से निपटने के लिए बीते साल 30 नवंबर को केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड ने एक एडवाइजरी जारी करते हुए देशभर की औद्योगिक इकाईयों को इसका उत्पादन घटाने के लिए उच्च-गुणवत्ता वाले  अयस्क  का उपयोग करने और रेड मड धोने  की प्रक्रिया को बेहतर बनाने की सलाह दी.

बोर्ड के अनुसार फिल्ट्रेशन सिस्टम को रेड मड निपटान क्षेत्र के ऊपरी हिस्से  के जितना निकट हो सके, स्थापित किया जाना चाहिए. रिफाइनरी से फिल्ट्रेशन सुविधा तक रेड मड स्लरी का परिवहन पाइपलाइनों के माध्यम से किया जाना अनिवार्य है. साथ ही इन पाइपलाइनों को सतही जलस्रोतों, सड़कों, राजमार्गों और रेलवे ट्रैकों से सुरक्षित दूरी पर बिछाया जाना चाहिए, ताकि रिसाव और प्रदूषण को रोका जा सके.

Read more!