अगर पाकिस्तान सिंधु जल संधि मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ले गया तो क्या होगा?
पाकिस्तान ने भारत के सिंधु जल समझौता स्थगित करने के फैसले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने की धमकी दी है

अप्रैल की 23 तारीख को पहलगाम आतंकी हमले के जवाब में भारत सरकार ने सिंधु जल समझौता को स्थगित करने का फैसला लिया. अगले दिन पाकिस्तान में पीएम शहबाज शरीफ के नेतृत्व में राष्ट्रीय सुरक्षा समिति की बैठक हुई.
इस बैठक के बाद पाकिस्तान ने भारत के सिंधु जल संधि (IWT) को एकतरफा रूप से निलंबित करने के निर्णय का कड़ा विरोध किया है और इस मुद्दे को विश्व बैंक तथा अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने की धमकी दी है.
पाकिस्तान का कहना है कि विश्व बैंक इस संधि का एक पक्ष है, इसीलिए भारत को इस पर एकतरफा कोई निर्णय लेने का अधिकार नहीं है. लेकिन, क्या भारत का सिंधु जल समझौता स्थगित करने का फैसला अंतरराष्ट्रीय कानून के खिलाफ है और क्या पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस मुद्दे को उठाकर अपनी मांग मनवा लेगा?
‘सिंधु जल समझौता’ को लेकर अंतरराष्ट्रीय कानूनी पेचीदगियां से जुड़े इन सवालों के जवाब सुप्रीम कोर्ट के वकील और 2014 में नदियों को जोड़ने के लिए बनी ILR कमेटी के सदस्य विराग गुप्ता के जरिए जानते हैं-
क्यों ‘सिंधु जल संधि’ को खत्म करने की मांग लंबे समय से उठती रही है?
यह संधि विश्व बैंक के दबाव से हुई थी. संधि में एकतरफा तौर पर पाकिस्तान को पानी के ज्यादा इस्तेमाल के अधिकार मिल गए थे. भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची में संघ सूची की इंट्री 56 के तहत एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने वाली नदियों पर कानून बनाने का अधिकार संसद को है, लेकिन राज्य सूची की इंट्री 17 के तहत नदी और पानी से जुड़े मामलों पर कानून बनाने की शक्ति राज्य सरकारों के पास भी है.
संघ सूची में इंट्री 14 के तहत पड़ोसी देशों के साथ अंतरराष्ट्रीय संधि करने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है. उसके अनुसार देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पाकिस्तान के कराची में जाकर सितंबर 1960 में सिंधु जल संधि पर पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के साथ हस्ताक्षर किए थे.
संधि पर हस्ताक्षर के बाद ही प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सांसद अशोक मेहता ने मांग की थी कि इस संधि को संसद से अनुमोदन मिलना चाहिए. लोकसभा अध्यक्ष ने उनकी मांग को नवंबर 1960 में अस्वीकार कर दिया.
उरी हमले के बाद भी सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल लगाकर ये मांग की गई थी कि इस समझौते पर संसद में चर्चा नहीं हुई है. राष्ट्रपति ने भी इस पत्र पर दस्तखत नहीं किए हैं. ऐसे में इस संधि को निरस्त कर देना चाहिए. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने तब इन तर्कों को सुने बगैर और इसपर कोई ध्यान दिए बिना याचिका को तुरंत खारिज कर दिया था. इस तरह इस संधि को निरस्त करने की मांग दब गई.
जम्मू-कश्मीर सरकार ने भी 22 साल पहले ही इस संधि को रद्द करने की मांग क्यों की थी?
‘सिंधु जल संधि’ की शर्तों के अनुसार भारत को सिंधु और सहायक नदियों में बांध और हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट बनाने का अधिकार है. लेकिन, संधि में दी गई सहूलियत के अनुसार भारत नदी जल का पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है.
पाकिस्तान कश्मीर के लोगों के साथ धर्म के आधार पर फर्जी हमदर्दी जताता है, लेकिन इस संधि का फायदा उठाकर वह भारत में विकसित हो रहे पॉवर प्रोजेक्ट्स पर अडंगेबाजी करता रहा है.
कश्मीर में विकसित हो रहे ‘बग्लीहार हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट’ के विकास में सिंधु जल संधि की आड़ में पाकिस्तान ने अड़ंगेबाजी शुरू कर दी. उसके बाद साल 2003 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने संधि को रद्द करने का प्रस्ताव पारित किया था.
2021 में संसदीय समिति की रिपोर्ट में इस समझौते पर पुनर्विचार क्यों जोर दिया गया था?
जल मंत्रालय से संबंधित संसदीय समिति की रिपोर्ट 5 अगस्त 2021 को संसद में पेश की गई. समिति के अनुसार साल 1960 में समझौते के समय सिंचाई, बांध और हाइड्रो प्रोजेक्ट्स का सीमित दायरा था, इसलिए क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वार्मिंग जैसे नए खतरों के मद्देनजर सिंधु जल समझौते पर नए तरीके से पुर्नविचार की जरूरत है.
‘सिंधु जल संधि’ के अनुसार भारत पश्चिमी तीन नदियों में 36 लाख एकड़ फीट पानी के भंडारण का ढांचा बना सकता है. इन्हें नहीं बनाने से उत्तर भारत के राज्यों के किसानों को बहुत नुकसान होने पर समिति ने चिंता जाहिर की थी.
संसदीय समिति ने चीन, पाकिस्तान और भूटान के साथ हुई संधियों के तहत 20 हजार मेगावॉट के पावर प्रोजेक्ट्स की संभावनाओं का आंकलन करते हुए पाया कि भारत ने सिर्फ 3482 मेगावॉट प्रोजेक्ट्स का निर्माण किया है.
सिंधु जल संधि के तहत भारत लगभग 13.43 लाख एकड़ जमीन की सिंचाई कर सकता है, लेकिन फिलहाल पश्चिम की इन तीन नदियों से सिर्फ 7.59 लाख एकड़ भूमि ही सिंचित हो पाई है.
पूर्व की तीन नदियों में जल के उपयोग के पूरे अधिकार का भारत द्वारा इस्तेमाल नहीं करने पर भी समिति ने चिंता व्यक्त की थी. इन नदियों से पंजाब और राजस्थान की नहरों के माध्यम से किसानों के खेतों में पानी जाता है. नहरों की बदहाल स्थिति पर भी संसदीय समिति ने रोष व्यक्त किया था.
‘सिंधु जल संधि’ को खत्म करना क्यों मुश्किल है?
विश्व बैंक के दबाव में बनाई गई इस संधि को खत्म करने के लिए कोई प्रावधान नहीं है, इसीलिए तीन युद्धों के दौरान इस संधि को भारत ने रद्द नहीं किया.
संसदीय समिति की रिपोर्ट के बाद जनवरी 2023 और फिर अगस्त 2024 में अनुच्छेद-12 (3) के अनुसार भारत सरकार ने संधि में संशोधन के लिए पाकिस्तान को नोटिस जारी किया था.
‘सिंधु जल संधि’ को लागू करने के लिए दोनों देशों के सदस्यों के साथ स्थायी आयोग का प्रावधान है. साल-2022 तक आयोग की 118 से ज्यादा बैठकें हुईं, लेकिन पाकिस्तान संधि में संशोधन के राजी नहीं हुआ.
उरी हमले के बाद इस संधि को निरस्त करने के लिए पीआईएल दायर हुई थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने प्राथमिक तौर पर ही डिसमिस कर दिया. पहलगाम हमले के बाद भारत सरकार ने संधि पर रोक लगाने का फैसला लिया है. हालांकि, इस बारे में संधि में स्पष्ट कानूनी प्रावधान नहीं है.
इस समझौते पर रोक लगाने के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल आयुक्त की नियमित होने वाली बैठकों पर रोक लग जाएगी. अब भारत के लिए मौका ये है कि पाकिस्तान के हस्तक्षेप पर रोक लगने से भारत सिंचाई, बांध और पनबिजली परियोजनाओं को तेजी से पूरा कर सकता है.
कैसे सिंधु जल संधि को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाकर भी हारेगा पाकिस्तान?
पाकिस्तान का दावा है कि भारत के साथ हुई संधि को एकतरफा तौर पर रद्द या स्थगित नहीं किया जा सकता. वह इस मामले में निपटारे के लिए अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता की मांग कर सकता है.
इसके अलावा वियना कनवेंशन 1969 के अनुसार भी पाकिस्तान इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठा सकता है. भारत के जवाब में पाकिस्तान ने शिमला समझौते पर रोक लगाने की जवाबी कार्रवाई की है.
इससे कश्मीर और सीमा से जुड़े विवादों पर अंतर्राष्ट्रीय मंचों में विवाद बढ़ सकते हैं. अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने जिस तरह से डब्ल्यूटीओ और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं को दरकिनार किया है, उसके बाद पाकिस्तान के हल्ला मचाने का विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा.
भारत लंबे समय से इस समझौते में बदलाव की मांग करता आ रहा है. 24 अप्रैल को भी भारत सरकार ने पाकिस्तान को जल समझौता में बदलाव के लिए एक पत्र लिखा है. अभी इसे रद्द करने के बजाय सिर्फ निरस्त किया गया है.
ऐसे में पाकिस्तान के अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस मुद्दे को उठाए जाने के बाद भी भारत का ये फैसला अंतरराष्ट्रीय कानून और संधि के प्रावधानों के तहत तर्कसंगत माने जा सकते हैं. हालांकि, चीन के सहयोग से पाकिस्तान राजनयिक और सामरिक मोर्चे पर भारत के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है.
क्या जल समझौता टूटने की वजह से दुनिया के किन्हीं दो देशों के बीच जंग हुई है?
दक्षिण अफ्रीका में नाइजर नदी के पानी के इस्तेमाल के लिए 1964 में संधि हुई थी. समय के साथ इस संधि में बदलाव की जरूरत महसूस हुई, जिसके बाद नाइजीरिया और पड़ोसी देशों ने सहमति और संवाद से पुरानी संधि को 1980 के नए समझौते से संशोधित कर लिया था.
स्वेज और पनामा नहरों का परिचालन अंतर्राष्ट्रीय संधियों के अनुसार होता है, लेकिन उन पर कब्जे के लिए अनेक संघर्ष और लड़ाईयां हो चुकी हैं.
टेक्नोलॉजी के विकास के साथ दुनिया में साइबर युद्ध बढ़ रहे हैं. जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, पानी और उर्जा की ज्यादा जरूरत की वजह से अनेक देश अंतर्राष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन करके संघर्षरत हैं, जो उनके बीच छुट-पुट लड़ाइयों का बड़ा कारण है.
इसी तरह का एक उदाहरण तुर्की, सीरिया और इराक के बीच जल समझौते का भी है, जिसके तहत तीनों देश यूफ्रेट्स और टिगरिस नदियों के पानी को आपस में बांटते हैं. हालांकि, इन देशों के बीच अंतरराष्ट्रीय संगठनों की मध्यस्थता में कोई समझौता नहीं हुआ है.
1970 के दशक में तुर्की ने अपनी दक्षिण-पूर्वी अनातोलिया परियोजना (GAP) शुरू की, जिसमें यूफ्रेट्स और टिगरिस पर कई बांध बनाए गए. इन बांधों ने सीरिया और इराक में पानी के प्रवाह को कम कर दिया. इस स्थिति में कोई औपचारिक जल समझौता नहीं होने की वजह से तनाव बढ़ा.
1975 में, इराक और सीरिया के बीच यूफ्रेट्स नदी के पानी के बंटवारे को लेकर गंभीर तनाव पैदा हुआ. तुर्की के अतातुर्क बांध के निर्माण और पानी रोकने से इराक में सूखे की स्थिति बनी, जिसके बाद इराक ने सीरिया पर पानी रोकने का आरोप लगाया. दोनों देशों ने अपनी सेनाओं को सीमा पर तैनात कर दिया और युद्ध की स्थिति बन गई. सऊदी अरब और सोवियत संघ की मध्यस्थता से आखिरकार तनाव कम हुआ.