मोदी सरकार के लिए पूरे नॉर्थ-ईस्ट को रेल से जोड़ना कैसे बना रणनीतिक लक्ष्य?
नरेंद्र मोदी सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक पूर्वोत्तर के सभी राज्यों की हर राजधानी रेल से जुड़ जाए. यह महत्वाकांक्षी जरूर है, लेकिन रणनीतिक नजरिए से बेहद अहम माना जा रहा है

जब पहली बार 13 सितंबर को ट्रेन आइजोल पहुंची, तो यह महज एक कनेक्शन भर नहीं था, बल्कि इतिहास बन गया. आज़ादी के बाद पहली बार मिज़ोरम की राजधानी देश के रेलवे नेटवर्क से जुड़ गई है, वह भी 51.38 किमी लंबी बैराबी–सैरांग लाइन के ज़रिए.
यह काम करीब दो दशकों की मेहनत से पूरा हुआ हैः पहाड़ों और सुरंगों से गुज़रते हुए, पहाड़ी इलाके में खड़े 143 पुलों के सहारे. इसकी कुल लागत 8,000 करोड़ रुपए से ज़्यादा आई.
दिसपुर, अगरतला और ईटानगर के बाद आइजोल अब पूर्वोत्तर की चौथी राजधानी बन गई है जो भारत के रेलवे नक्शे पर दर्ज हो गई है. इसमें एक साफ़ संदेश छिपा है: पूर्वोत्तर अब कोई पिछड़ा हुआ इलाका नहीं है जो बाकी देश से जुड़ने का इंतज़ार कर रहा हो. बल्कि यह अब भारत की इन्फ्रास्ट्रक्चर तरक़्क़ी का अगला सिरा बनता जा रहा है.
नरेंद्र मोदी सरकार से मिलने वाला फंड भी काफ़ी बड़ा बदलाव दिखाता हैः 2014 से पहले जितना रेलवे प्रोजेक्ट्स पर खर्च होता था, अब उसका पांच गुना ज़्यादा लगाया जा रहा है. केंद्र सरकार ने पूरे पूर्वोत्तर में रेलवे प्रोजेक्ट्स के लिए 77,000 करोड़ रुपए मंज़ूर किए हैं. इनमें से 62,477 करोड़ रुपए पहले ही खर्च हो चुके हैं और 10,440 करोड़ रुपए मौजूदा वित्तीय साल के लिए तय किए गए हैं.
रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इसे पूर्वोत्तर में "रेल निवेश की सबसे बड़ी लहर" कहा है, और यह बात ग़लत नहीं है. आने वाले वक्त में और भी अहम प्रोजेक्ट्स तैयार हैं, जैसे चीन बॉर्डर के साथ 500 किमी लंबी रेल लाइन के लिए 30,000 करोड़ रुपए का नया निवेश. यह लाइन सिर्फ़ विकास नहीं बल्कि रणनीतिक मक़सद से भी जुड़ी होगी. कथित "चिकन नेक" यानी सिलिगुड़ी कॉरिडोर वह जगह पूरे पूर्वोत्तर को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ती है. यह इलाका एक तरफ़ नाज़ुक पॉइंट है, तो दूसरी तरफ़ लॉजिस्टिक अवरोध भी. कई रेल लाइन्स सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर से होकर गुजरेंगी. इनका मक़सद सिर्फ माल और लोगों को ले जाना नहीं है, बल्कि फौज की आवाजाही और बॉर्डर पर तैयारियों को मजबूत करना भी है.
मसलन, सिवोक-रंगपो लाइन का रणनीतिक असर साफ है, यह चीन के नाथु-ला बॉर्डर के क़रीब जाएगी. वहीं भालुकपोंग-तवांग लाइन भारत-चीन बॉर्डर के सबसे संवेदनशील हिस्से, यानी नियंत्रण रेखा (LAC) के पास से गुज़रेगी. कनेक्टिविटी पर यह जोर भारत की ऐक्ट ईस्ट पॉलिसी का हिस्सा है, जिसमें रणनीतिक निवेश विकास के साथ-साथ बुना गया है.
यहां खेल सिर्फ़ रणनीति का नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था का भी है. लंबे समय तक अलग-थलग रहा पूर्वोत्तर अब दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार के लिए लॉजिस्टिक कॉरिडोर उपलब्ध कराता है. बांस, अदरक, हल्दी और फलों को ले जाने वाले ठंडे रेल कोच अब सिर्फ प्रस्ताव नहीं हैं, बल्कि ऑपरेशन प्लान का हिस्सा बन चुके हैं. इसी साल मई में राइजिंग नॉर्थईस्ट इन्वेस्टर्स समिट में ऊर्जा से लेकर एग्रो प्रोसेसिंग और पर्यटन तक के सेक्टर्स में 4.48 लाख करोड़ रुपए तक इन्वेस्टमेंट इंटरेस्ट दर्ज हुए. लेकिन यह सब बेहतर सड़क और अब रेल कनेक्टिविटी के बिना मुमकिन नहीं होता.
मगर तस्वीर का दूसरा पहलू भी है. हर एक सुरंग खुलने के साथ ढेरों टाइमलाइन पीछे छूट जाती हैं. बैराबी-सैरांग लाइन बनाने में 17 साल लगे. 2003 में शुरू हुई जिरीबाम-इंफाल लाइन अब तक पूरी नहीं हुई- खर्च 730 करोड़ से बढ़कर 2,500 करोड़ तक पहुंच गया. सिवोक-रंगपो लाइन, जिसे 2008 में मंज़ूरी मिली थी, अब 2028 तक पूरी करने का लक्ष्य रखा गया है यानी पूरे दस साल की देरी.
यहां इंजीनियरिंग अपने आप में बड़ी चुनौती रही हैः भूस्खलन, बरसात का कहर, खड़ी ढलानों से गुज़रना. एक एक्सपर्ट एनालिसिस का अंदाजा है कि अगर पांच बड़ी रेल लाइनों के लिए स्मार्ट अलाइनमेंट चुने जाते तो करीब 54,000 करोड़ रुपए यानी लगभग 40 फीसद खर्च बचाया जा सकता था, हालांकि रेलवे बोर्ड इससे सहमत नहीं है.
आर्थिक मामला भी उतना ही अहम है. कई रेल लाइनें ऐसे इलाकों से गुज़रती हैं जहां आबादी बहुत कम है. इसकी वजह से हर साल संचालन घाटा 12,000 करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है. ये रूट हाइ-ट्रैफिक कॉरिडोर नहीं बल्कि ज़्यादा सामाजिक अपील रखने वाले कनेक्शन हैं.
मोदी के आइज़ॉल वाले भाषण में राजनैतिक रंग भी साफ झलक रहा था. उन्होंने पिछली सरकारों पर “वोट-बैंक राजनीति” करने और नॉर्थईस्ट को नजरअंदाज़ करने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा, “जिन लोगों को अब तक हाशिए पर धकेला गया था, वे अब गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर हैं.” मोदी ने ये भी याद दिलाया कि 2014 से अब तक 12 शांति समझौते अलगाववादी और असंतुष्ट ग्रुप्स के साथ साइन किए गए हैं.
लेकिन यह राजनैतिक चमक-दमक अधूरे कामों की हकीकत को ढक नहीं पाती. नगालैंड के सांसद एस. सुपोंगमेरेन जामिर ने दीमापुर-टिजिट प्रोजेक्ट पर लाल झंडी दिखाई है, जिसे 2013-14 में 4,270 करोड़ रुपए से मंज़ूरी दी गई थी, लेकिन अब तक “ज़ीरो फाइनेंशियल प्रोग्रेस” हुई है.
फिर भी तस्वीर बदल रही है. काम में शामिल हैं दीमापुर-जुब्ज़ा लाइन, जो कोहिमा को रेलवे नेटवर्क से जोड़ेगी, और लगभग पूरी हो चुकी जिरीबाम-तुपुल-इंफाल रूट. इसके बाद सिवोक-रंगपो लाइन भी है. इलेक्ट्रिफिकेशन भी तेजी से हो रहा है. पिछले साल 921 किमी का काम पूरा हुआ और अगले चरण में 1,573 किमी और कवर किया जाएगा.
केंद्र सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक नॉर्थईस्ट की सभी राजधानियों को रेल से जोड़ दिया जाए. यह टाइमलाइन सिर्फ पांच साल दूर है और काफी महत्वाकांक्षी भी. लेकिन अगर ट्रेन आइजोल स्टेशन तक पहुंच गई है, तो कहा जा सकता है कि सफर आगे भी जारी रहेगा.