सुषमा स्वराज : दिल्ली की पहली महिला सीएम जिसने सोनिया गांधी के खिलाफ जंग छेड़ी थी!
आज की जेन-ज़ी पीढ़ी भी सुषमा स्वराज को ट्विटर की मदद से समस्याएं सुलझाने वाली मंत्री के तौर पर जानती है. मगर दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री कहां से आईं और राजनीति के किन पड़ावों से होकर गुजरीं, इसकी कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है

दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री, बीजेपी की पहली महिला मुख्यमंत्री, किसी भी राष्ट्रीय पार्टी की पहली महिला प्रवक्ता और महज 25 की उम्र में हरियाणा की सबसे युवा कैबिनेट मिनिस्टर. ये सब तमगे महज कुछ पन्ने हैं, उस किताब की जिनकी पंक्तियां लोग आज भी यूट्यूब पर मौजूद संसद की पुरानी बहसों में तलाशते हैं. मनमोहन सिंह से शेरो-शायरी के अंदाज में विरोध से लेकर 'सेकुलरिज्म' की भाजपाई परिभाषा गढ़ने तक, जिस शख्सियत ने अपना नाम भारत के राजनैतिक इतिहास में हमेशा के लिए गुदवा लिया, उनका नाम है - सुषमा स्वराज.
सुषमा स्वराज को अभी कई लोग शायद उनके विदेश मंत्री के कार्यकाल के तौर पर जानते हैं मगर उनकी शख्सियत इस मंत्री पद से कहीं बढ़कर थी. इंडिया टुडे मैगजीन के पुराने पन्नों को पलटते हुए राजनीति-कूटनीति के कई विशेषज्ञ मिलते हैं जिनके मुताबिक भारतीय कूटनीति में मानवीय नजरिए को घोलने में सुषमा स्वराज को एक अलग अहमियत मिलनी चाहिए. तभी तो आज की जेन-ज़ी पीढ़ी भी सुषमा स्वराज को ट्विटर की मदद से समस्याएं सुलझाने वाली मंत्री के तौर पर जानती है. मगर दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री कहां से आईं और राजनीति के किन पड़ावों से होकर गुजरीं, इसकी कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है.
सुषमा शर्मा से सुषमा स्वराज
14 फरवरी, 1952 को अंबाला में संघ के एक बड़े अधिकारी हरदेव शर्मा के घर एक बेटी ने जन्म लिया. विभाजन के बाद लाहौर के धरमपुरा से भारत आकर बसने वाले हरदेव शर्मा को अंदाजा भी नहीं था कि यही बेटी आगे चलकर देश के सबसे बड़े ओहदों पर काबिज होने वाली है. संस्कृत, राजनीतिशास्त्र और कानून की विद्यार्थी रहीं सुषमा ने 1971 में सुप्रीम कोर्ट में वकालत से अपने करियर की शुरुआत की. हालांकि संघ के बीज उनमें बोये जा चुके थे और वे कॉलेज के दिनों से ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से राजनीति के दांव-पेच सीखने लगी थीं.
जॉर्ज फर्नांडिस की सोहबत में रहने वाले स्वराज कौशल से 1975 में जब उनकी शादी हुई, तब जाकर वे सुषमा शर्मा से सुषमा स्वराज बनीं. 1975 में ही सुषमा जॉर्ज फर्नांडिस की लीगल टीम से जुड़ गईं और इमरजेंसी के दौर में जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति का भी हिस्सा रहीं.
हरियाणा की सबसे युवा मंत्री
संघ की ट्रेनिंग रंग दिखा रही थी. इमरजेंसी ख़त्म होते ही 1977 में चुनावों की घोषणा हुई. टाइम्स ऑफ़ इंडिया के पत्रकार अजय कुमार पांडे अपनी एक रिपोर्ट में इस चुनाव के दौरान सुषमा स्वराज से एक जुड़ा एक किस्सा साझा करते हैं. तब एक बार हुआ ये कि चुनाव प्रचार के दौरान बिहार के मुजफ्फरपुर में जॉर्ज फर्नांडिस का भाषण होना था. जनता जुट चुकी थी और शाम 5 बजे जॉर्ज के आने का समय बताया गया था मगर सूरज ढलता गया और रात चढ़ने लगी मगर जनता को जॉर्ज फर्नांडिस कहीं नजर नहीं आ रहे थे. प्रचार में सुषमा स्वराज भी पहुंची थीं. उन्होंने शाम 5 बजे से लगातार जनता को अगले सुबह (या रात कहना ही बेहतर होगा) 3 बजे तक बिठाए रखा, जब तक कि जॉर्ज वहां पहुंच नहीं गए.
फरवरी की रात थी और जनता ठंड से भी व्याकुल थी. मगर इन सब के बीच अपनी वाककला का परिचय देते हुए सुषमा 6 बार पोडियम पर आईं और जनता को जगाए रखा. इसी दौरान जॉर्ज फर्नांडिस पर कई केस भी चल रहे थे और सुषमा ने इसी रात मुजफ्फरपुर में नारा दिया - जेल का ताला टूटेगा, जॉर्ज हमारा छूटेगा.
इतना सब करने के साथ ही उसी साल हरियाणा में हुए विधानसभा चुनाव में सुषमा स्वराज अपनी घरेलू सीट अंबाला कैंट से जीतकर विधायक भी बनीं. सुषमा स्वराज उस साल महज 25 साल की थीं और देवीलाल की सरकार में श्रम के अलावा शिक्षा और खाद्य मंत्रालय संभालकर उन्होंने उस समय की सबसे युवा मंत्री होने का रिकॉर्ड बनाया था.
केंद्र की राजनीति में कदम और भारतीय जनता पार्टी का साथ
विधायकी मिलने के बाद अब सुषमा स्वराज का निशाना लोकसभा सीट पर था. 1980 में जब भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का गठन हुआ तब जनता पार्टी की सदस्य रहीं सुषमा ने फौरन अपना अगला ठिकाना बीजेपी दफ्तर बनाया. अटल और आडवाणी की बीजेपी के प्रचार में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. एक समय में उन्हें आडवाणी की शिष्या भी माना जाने लगा था. इस बीच सुषमा स्वराज ने तीन बार (1980, 1984 और 1989) लोकसभा का चुनाव लड़ा मगर वे असफल रहीं. वे चुनाव हारती रहीं मगर जनता के बीच उनका ओहदा बढ़ता जा रहा था. यही सब देखते हुए 1990 में बीजेपी ने उन्हें राज्यसभा का टिकट दिया.
बैकडोर से केंद्र की राजनीति में एंट्री मारने वाली सुषमा स्वराज आख़िरकार 6 साल बाद 1996 लोकसभा जीतकर अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिनों की सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्री बनीं. इसी दौरान उन्होंने लोकसभा में 'सेकुलरिज्म' (धर्मनिरपेक्षता) पर भाषण दिया और इस टर्म की बीजेपी की परिभाषा बताई.
उन्होंने अपने भाषण के दौरान कहा, "जब तक आप अपने हिंदू होने पर शर्मिंदगी महसूस नहीं करते, आपको इन तथाकथित बुद्धिजीवियों से सेक्युलर होने का सर्टिफिकेट नहीं मिल सकता. इनका सेकुलरिज्म हिंदू को गाली देने से शुरू होता है. सरकार या ना सरकार, हमें सेकुलरिज्म की ये परिभाषा मान्य नहीं है. हम सांप्रदायिक हैं क्योंकि हम वन्दे मातरम गाने की वकालत करते हैं, हम सांप्रदायिक हैं क्योंकि क्योंकि हम राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान के लिए लड़ते हैं, हम सांप्रदायिक हैं क्योंकि हम धारा 370 को हटाने की मांग करते हैं. धर्मनिरपेक्षता का बाना पहनकर, हम पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाकर ये तमाम लोग एक साथ हो गए. इस देश के संविधान निर्माताओं ने धर्मनिरपेक्षताओं की क्या कल्पना की थी और इस देश के शासकों ने उसे किस स्वरुप में ढाल दिया, इस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए."
1998 में जब दुबारा अटल पीएम बने तब भी उन्हें वही मंत्रालय सौंपा गया.
दिल्ली की पहली महिला सीएम
साल था 1998. कुछेक हफ्ते पहले तक सुषमा केंद्रीय दूरसंचार मंत्रालय के अलावा सूचना तथा प्रसारण मंत्रालय की कमान संभाले हुए थीं कि तभी उन्हें दिल्ली बीजेपी के बचाव अभियान का जिम्मा सौंपा गया. दरअसल 1993 में 'दिल्ली का शेर' कहे जाने वाले बीजेपी के मदनलाल खुराना दिल्ली के सीएम बने थे. लेकिन 1996 में 'जैन हवाला' कांड में सीएम खुराना और बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे. इसकी वजह से खुराना ने इस्तीफा दे दिया और साहिब सिंह वर्मा ने दिल्ली की गद्दी संभाली.
हालांकि, वर्मा का कार्यकाल भी अल्पकालिक ही रहा क्योंकि उनकी सरकार महंगाई को काबू करने के लिए संघर्ष कर रही थी. 1998 के विधानसभा चुनावों से पहले जनता में असंतोष पैदा हो गया था. ऐसे में पार्टी की छवि को बचाने के लिए सुषमा स्वराज ने निर्धारित चुनावों से कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभालने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. 1998 के चुनावों में कांग्रेस की शीला दीक्षित चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बनीं अगले 15 सालों तक दिल्ली की सत्ता पर काबिज रहीं. इस तरह कुछ महीनों के लिए ही सही, सुषमा स्वराज दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं.
सोनिया गांधी बनाम सुषमा स्वराज और यूपीए काल
1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने सार्वजनिक जीवन से भी दूरी बना ली थी. 1997 में कई राजनीतिक दिग्गजों के मनाने के बाद उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति का रुख किया और पार्टी की सदस्य बनने के 2 महीने के भीतर ही कांग्रेस अध्यक्ष बन गईं. हालांकि अभी तक सोनिया गांधी ने कोई चुनाव नहीं लड़ा था. उनका पहला रण 1999 का लोकसभा चुनाव बना जिसमें वे कर्नाटक के बेल्लारी से खड़ी हुईं.
यहीं से उनके खिलाफ परचा भरा बीजेपी की फायरब्रांड नेता बन चुकीं सुषमा स्वराज ने. इंडिया टुडे मैगजीन के 1 सितंबर, 1999 के अंक में सबा नकवी भौमिक और जावेद अंसारी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, "एकदम नीरस-से इस चुनाव अभियान में गरमाहट तो इसी लड़ाई में रहेगी. मुकाबला भाजपा की बहनजी और गांधी परिवार की बहूजी के बीच है. 'विदेशी' सोनिया के खिलाफ स्वदेशी ब्रांड के प्रतिनिधित्व की घोषणा करते हुए सुषमा स्वराज जब भाजपाई चोले-हरे ब्लाउज और चमकीली नारंगी साड़ी में कर्नाटक के बेल्लारी की ओर रवाना हुईं तो उन्होंने 1999 के चुनावों में एक नई रंगत घोल दी."
बेल्लारी से हमेशा ही कांग्रेस प्रत्याशी ही जीतते रहे थे और इंदिरा गांधी को वहां देवी की तरह पूजा जाता था. जब तक सुषमा स्वराज की एंट्री नहीं हुई थी, तब तक सोनिया गांधी के लिए यह एक सुरक्षित सीट थी. हालांकि सोनिया की पहली पसंद हमेशा से अमेठी ही थी और उनका कहना था कि जहां से उनके पति जीतते आए, वे वहीं से चुनाव लड़ना चाहती हैं. मगर उनके सलाहकारों ने उनपर दूसरी सीट से लड़ने के लिए जोर डाला.
बीजेपी के हलकों में जब बेल्लारी से संभावित प्रत्याशी की चर्चा हुई तो कर्नाटक के तीन बार मुख्यमंत्री रहे और तत्कालीन वाजपेयी सरकार में वाणिज्य मंत्री रामकृष्ण हेगड़े ने सुषमा स्वराज का नाम सुझाया. पर वे अगला चुनाव नहीं लड़ने की सार्वजनिक घोषणा कर चुकी थीं. पहले हेगड़े ने आधी रात को फोन कर सुषमा के सामने यह विचार रखा. इसके बाद वेंकैया नायडू ने उन्हें फोन किया. सुषमा ने कहा कि पार्टी नेतृत्व आदेश करे तो वे चुनौती स्वीकार करने को तैयार हैं. प्रधानमंत्री ने भी सुषमा के नाम को मंजूरी दे दी.
बस इसके बाद चूड़ियां और मंगलसूत्र पहन ठेठ भारतीय नारी के वेश में सजी रहने वाली सुषमा अपने राजनैतिक जीवन की सबसे कद्दावर जंग लड़ने को मैदान में उतर पड़ी. सुषमा भी शायद माहौल ताड़ गई थीं. उनका कहना था, "मैं यहां चुनाव नहीं, देश के आत्मसम्मान का युद्ध लड़ने आई हूं." बीजेपी के पोस्टरों में लिखा था - 'बीजेपी आरीसी. देश हुलीसी' यानी 'भाजपा लाओ देश बचाओ.'
1 सितंबर, 1999 के इंडिया टुडे मैगजीन के अंक में वरिष्ठ पत्रकार अमरनाथ के. मेनन ने लिखा, "बीजेपी ने तत्काल जता दिया कि अपने सबसे दक्ष वक्ताओं में एक सुषमा को अनुभवहीन सोनिया के मुकाबले में उतारकर उसने मैदान मार लिया है. यह भारतीय नारी के विरुद्ध विदेशी बहू की लड़ाई है. करवाचौथ का व्रत सार्वजनिक रूप से मनाने वाली महिला के विरुद्ध ऐसी महिला की लड़ाई है, जिसे अपनी भारतीयता साबित करने के लिए खूब पसीना बहाना पड़ रहा है."
तब सूचना और प्रसारण मंत्री प्रमोद महाजन ने इंडिया टुडे से कहा कि शायद सोनिया इस मुकाबले से घबरा रही हैं. यह साबित करने के लिए कि ऐसा नहीं है, कांग्रेस ने अगले ही दिन घोषणा की कि सोनिया अमेठी से भी लड़ेंगी. वक्त से पहली की गई घोषणा का मकसद इस बात को खारिज करना था कि वे अमेठी से तभी लड़ेंगी जब उन्हें बेल्लारी में रुख विपरीत लगेगा. लेकिन इस प्रकरण में अंतिम फैसला सुषमा का अपना ही था. जब वेंकैया नायडू ने यह विचार उनके सामने रखा तो एक चतुर राजनेता की तरह उनका जवाब था, "यह तो करगिल युद्ध लड़ने जैसा है. मैं प्रतापी शहीद कहलाऊंगी या कामयाब विजेता."
वे प्रतापी शहीद ही कहलाईं. सोनिया ने लगभग 55,000 वोटों के अपेक्षाकृत छोटे अंतर से सुषमा को हरा दिया था. उधर अमेठी में भी उनकी जीत हुई और अंत में उन्होंने बेल्लारी को ही चुना था.
इसके बाद साल 2000 में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए ने चुनाव जीता, तब सुषमा स्वराज भी राज्यसभा के दरवाजे से संसद में लौट आईं. वे एनडीए सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्री (सितंबर 2000-जनवरी 2003) और स्वास्थ्य और परिवार कल्याण और संसदीय मामलों (जनवरी 2003-मई 2004) दोनों थीं.
फिर जब 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए ने लोकसभा चुनावों में जीत हासिल की तब हर तरफ सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की चर्चा थी. उस वक्त भी सुषमा स्वराज ने धमकी दी कि अगर सोनिया प्रधानमंत्री बनती हैं तो वे अपना सिर मुंडवाकर सफ़ेद साड़ी पहनेंगी. आख़िरकार मनमोहन प्रधानमंत्री बने और दो साल बाद सुषमा स्वराज तीसरी बार राज्यसभा के लिए चुनी गईं और उन्हें उस सदन में विपक्ष का उपनेता नियुक्त किया गया.
साल 2009 के लोकसभा चुनावों में सुषमा स्वराज ने जीत हासिल की और उसी साल दिसंबर में उन्हें सदन में बीजेपी विपक्ष का नेता नियुक्त किया गया. यह 15वीं लोकसभा थी और इसी के दौरान उनकी मनमोहन सिंह के साथ शायराना बहस खूब चर्चित हुई थी. सुषमा ने अपने भाषण के दौरान कहा, "आज एक शेर पूछकर के मैं आपसे एक जवाब पूछना चाहती हूं - तू इधर उधर की ना बात कर, ये बता कि काफिला क्यों लुटा. हमें रहजनों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का ख्याल है."
हालांकि शहाब जाफ़री ने यह शेर कुछ ऐसे लिखा था कि
"तू इधर उधर की न बात कर ये बता कि क़ाफ़िले क्यूं लुटे
तिरी रहबरी का सवाल है हमें राहज़न से ग़रज़ नहीं"
इसपर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अल्लामा इक़बाल के एक शेर से सुषमा का जवाब दिया था, "माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं, तू मेरा शौक तो देख, मेरा इंतजार तो देख."
मोदी सरकार में सुषमा स्वराज
साल था 2014 और चारों तरफ मोदी-मोदी की लहर गूंज रही थी. इस लोकसभा चुनाव में भी सुषमा स्वराज जीतकर आईं और उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में विदेश मंत्रालय का पदभार सौंपा गया. बतौर विदेश मंत्री, वे सोशल मीडिया पर भारतीय नागरिकों के साथ अपनी गर्मजोशी भरी बातचीत के लिए जानी गईं.
2016 के अंत में उन्हें किडनी फेलियर की समस्या हुई. उनका किडनी ट्रांसप्लांट सफल रहा लेकिन वे स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से ग्रस्त रहीं. नतीजन उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनावों में नहीं खड़े होने का फैसला किया और मोदी के पहले कार्यकाल के अंत में उनके मंत्रिमंडल से बाहर हो गईं. उसी साल अगस्त में दिल की धड़कन रुक जाने से उनकी मौत हो गई. मरणोपरांत उन्हें भारत सरकार ने पद्मा विभूषण से नवाजा.