जर्मनी और भारत की यह डील बदल देगी हिंद महासागर का खेल!
सबमरीन बनाने के लिए जर्मनी के साथ शुरू होने जा रहा एक ज्वाइंट प्रोजेक्ट भारत की अब तक की सबसे बड़ी डिफेंस डील बताई जा रही है

भारत अपनी समुद्री ताकत को नई ऊंचाई या नेवी की भाषा में कहें तो नई ‘गहराई’ तक ले जा रहा है. इसे देश की नौसैनिक क्षमता में बड़ा बदलाव माना जा रहा है. मुंबई की मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स लिमिटेड (MDL) ने औपचारिक रूप से रक्षा अधिकारियों के साथ प्रोजेक्ट 75(आई) पर कॉन्ट्रैक्ट की बातचीत शुरू कर दी है.
इस प्रोजेक्ट के तहत छह नई पीढ़ी की पारंपरिक सबमरीन या सबमरीन बनाई जाएंगी. यह काम जर्मनी की कंपनी थिसेनक्रुप मरीन सिस्टम्स (TKMS) के साथ साझेदारी में होगा. जर्मन कंपनी ने यह घोषणा 11 सितंबर को की. TKMS ने एक बयान में कहा, “यह पहल भारत और जर्मनी के बीच रणनीतिक और औद्योगिक रिश्तों को और गहरा करेगी. यह दोनों देशों की तकनीकी सहयोग और समुद्री सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्धता दिखाती है.”
यह साझेदारी भारत की कोशिशों से मेल खाती है, जिसमें बेड़े को आधुनिक बनाना, क्षेत्रीय नौसैनिक विस्तार को मजबूत करना और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर व लोकल मैन्युफैक्चरिंग के जरिए ‘मेक इन इंडिया’ पहल को आगे बढ़ाना शामिल है. भारत टेक्नोलॉजी ट्रांसफर (TOT) पूरा होने के बाद सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया, अफ्रीका और पश्चिम एशिया के दोस्ताना रवैये वाले देशों की नौसेनाओं के लिए भी सबमरीन बना सकेगा.
लेकिन पहली सबमरीन कॉन्ट्रैक्ट साइन होने के सात साल बाद ही मिल पाएगी. अगर कॉन्ट्रैक्ट 2026 के आखिर तक साइन हो गया तो पहली डिलिवरी 2033 से पहले नहीं होगी.
फिलहाल भारत के पास 17 पारंपरिक सबमरीन हैं, जिनमें से कई 30 साल से भी पुरानी हैं, और तीन परमाणु सबमरीन हैं (जिनमें से एक लीज पर है). बढ़ती नौसैनिक चुनौतियों के मुकाबले यह संख्या काफी कम मानी जा रही है. इसके अलावा, इनमें से करीब एक-चौथाई अभी रीफिट में हैं, यानी वे तुरंत ऑपरेशन के लिए उपलब्ध नहीं हैं. नौसेना के सूत्रों का कहना है कि 17 पारंपरिक पनडुब्बियों में से नौ की बाकी सर्विस लाइफ 10 साल से भी कम है, जबकि पांच को 2031 से पहले डिकमिशन करना पड़ेगा.
MDL और TKMS की साझेदारी अब इस प्रोजेक्ट की इकलौती दावेदार है, क्योंकि लार्सन ऐंड टूब्रो (L&T) की बोली को नियमों के हिसाब से अमान्य करार दिया गया. प्राइस बिड 1 अगस्त, 2023 को जमा की गई थी और फील्ड इवैल्यूएशन ट्रायल्स के नतीजे रक्षा मंत्रालय को 26 जुलाई, 2024 को मिले थे. इसके बाद कमर्शियल बिड 16 जनवरी, 2025 को खोली गई.
इस प्रोजेक्ट की लागत, जो करीब 10 साल पहले 43,000 करोड़ रुपए आंकी गई थी, अब महंगाई, मुद्रा में उतार-चढ़ाव और टेक्नोलॉजिकल अपग्रेड्स की वजह से बढ़कर लगभग 70,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गई है. इसे अब तक की भारत की सबसे महंगा डिफेंस डील माना जा रहा है.
क्यों है ये सबमरीन खास
पी-75आई सबमरीन की सबसे अहम खूबियों में से एक है AIP यानी एयर इंडिपेंडेंट प्रपल्शन सिस्टम. इसकी मदद से सबमरीन ऊपर सतह पर आए बिना लगातार दो हफ्ते से ज्यादा पानी के नीचे रह सकती है. यह क्षमता समुद्री ऑपरेशन्स के लिए बेहद जरूरी है, यानी जब नेवी को हिंदुस्तान के तट से बहुत दूर समंदर में ताकत दिखानी हो.
पी-75आई प्रोजेक्ट की शुरुआत नवंबर 2007 में हुई थी, लेकिन जल्द ही नेवी की सख्त शर्तों की वजह से यह अटक गया. कई ग्लोबल सबमरीन बनाने वाली कंपनियों ने इन्हें अव्यावहारिक बताया. शुरू में TKMS (जर्मनी), नवांतिया (स्पेन), साउथ कोरिया की डेवू, रूस की रूबिन डिजाइन ब्यूरो (रोसोबोरोनएक्सपोर्ट के जरिए) और फ्रांस की नेवल ग्रुप इसमें शामिल थीं. लेकिन जब भारतीय नेवी ने साबित AIP सिस्टम पर जोर दिया तो फ्रेंच और स्पैनिश कंपनियां अपना समाधान पेश नहीं कर पाईं, वहीं रूस ने टेंडर को "अव्यावहारिक" बताया और बाहर हो गया.
TKMS के सीईओ ओलिवर बुर्खार्ड ने बातचीत की शुरुआत का ऐलान करते हुए कहा, “भारत का समुद्री ताकत के रूप में उभरना अभी बस शुरू हुआ है. मुझे पूरा यकीन है कि भारत सबमरीन टेक्नोलॉजी और मैन्युफैक्चरिंग का ग्लोबल सेंटर बनेगा. हमारी MDL के साथ पार्टनरशिप भरोसे, इनोवेशन और साझा लक्ष्यों पर आधारित है, जो किसी एक कॉन्ट्रैक्ट से कहीं आगे जाता है.”
बुर्खार्ड ने यह भी कहा कि दोनों सरकारों के सहयोग से, “हम भारत को ऐसी वर्ल्ड-क्लास सबमरीन बनाने में सक्षम बना सकते हैं, जो न सिर्फ भारतीय नेवी बल्कि दुनिया भर की दोस्ताना रवैये वाली नौसेनाओं के लिए भी काम आएंगी.”
यह कदम ऐसे वक्त पर उठाया गया है जब चीन और पाकिस्तान दोनों अपनी अंडरवॉटर फ्लीट्स को तेजी से मॉडर्नाइज कर रहे हैं. इससे दिल्ली पर दबाव है कि वह रीजनल नेवल बैलेंस में आगे बनी रहे.
बीजिंग की नेवी आज दुनिया की सबसे बड़ा बेड़ा ऑपरेट कर रही है, जिसमें लगातार बढ़ती न्यूक्लियर और पारंपरिक सबमरीन्स भी शामिल हैं. चीन की युआन-क्लास (टाइप 039ए) पारंपरिक सबमरीन्स, जो AIP सिस्टम और एडवांस्ड सोनार से लैस हैं, अब हिंद महासागर में और गहराई तक और ज्यादा इलाकों में गश्त कर रही हैं. सैटेलाइट डेटा दिखाता है कि चीनी सबमरीन्स मलक्का स्ट्रेट और अंडमान सागर जैसे अहम रास्तों के आसपास लगातार तैनात रहती हैं, जिससे दिल्ली में चिंता बढ़ रही है.
इसी के साथ पाकिस्तान भी चीन के साथ मिलकर अपनी अंडरवॉटर ताकत को तेजी से बढ़ा रहा है. हैंगर-क्लास प्रोग्राम के तहत पाकिस्तानी नौसेना में आठ चीनी डिजाइन वाली सबमरीन्स शामिल की जा रही हैं, जिनमें से चार कराची में बनाई जा रही हैं. इन सबमरीन्स से पाकिस्तान की सेकंड-स्ट्राइक कैपेबिलिटी काफी मजबूत होगी और अरब सागर में उसकी अंडरवाटर पहुंच भी बढ़ जाएगी.
इन हालात में प्रोजेक्ट 75(आई) भारत को यह क्षमता देगा कि वह और ज्यादा शांत, लंबे वक्त तक पानी के भीतर रहने वाली सबमरीन्स तैयार कर सके, जो इन्हीं पानी के इलाकों में अपनी थाह दिए बिना ऑपरेट कर सकें.
विश्लेषकों का मानना है कि भारत की समुद्री रणनीति लंबे वक्त से हिंद महासागर में बढ़त बनाने की रही है. प्रोजेक्ट 75(आई) जैसी सबमरीन्स उसी रणनीति को असली ताकत में बदलने के लिए जरूरी हैं. सबमरीन्स की स्टेल्थ यानी खामोशी के उलट, यह कदम बहुत साफ और जोरदार मैसेज देता है: भारत अब अंडरवाटर रेस में पिछलग्गू बने रहने को तैयार नहीं है. जर्मनी के सपोर्ट और भारत की मजबूत इच्छाशक्ति के साथ हिंद महासागर में अंडरवॉटर दबदबे की होड़ अब एक नए दौर में दाखिल हो गई है. चीन और पाकिस्तान दबाव बना रहे हैं, लेकिन भारत भी खामोशी से- और बहुत निर्णायक तरीके से- अपनी साइलेंट मरीन ताकत की बुनियाद मजबूत कर रहा है.