गंगा नदी का जीवन कैसे छीन रहा घरेलू कचरा?
वाइल्डलाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (WII), देहरादून की तरफ से झारखंड के साहिबगंज जिले में गंगा पर हुआ अध्ययन बताता है कि नदी के प्रदूषण में 84 फीसदी हिस्सा घरेलू कचरे का है

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दूं लगे उस जैसा. सन 1972 आई फिल्म शोर के इस गीत को आवाज दी थी मुकेश और लता मंगेशकर ने. गंगा नदी के पानी के संदर्भ में इस गीत को थोड़ उलट कर देखा जाता रहा है. यानी गंगा के पानी को अगर सामान्य पानी में मिला दिया जाता था, तो मान्यता ये थी कि वो पानी भी गंगा नदी के पानी की तरह साफ और पवित्र हो जाएगा.
लेकिन अब गंगा का पानी हर दिन प्रदूषित होता जा रहा है. वाइल्डलाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (WII), देहरादून ने गंगा में फैले प्रदूषण पर एक शोध किया है. जिसमें पाया गया है कि इस प्रदूषण में घरेलू कचरे का योगदान 84 फीसदी है. इसमें से 52.4 फीसदी पैकेजिंग कचरा था, जिसमें खाद्य पैकेट, सिंगल-यूज़ सैशे और प्लास्टिक बैग शामिल थे. दूसरे नंबर पर प्लास्टिक के टुकड़े थे, जिनकी मात्रा 23.3 फीसदी थी. इसके बाद तंबाकू से संबंधित कचरा 5 फीसदी और एक बार इस्तेमाल होने वाले (डिस्पोजेबल) बर्तन जैसे कप, चम्मच और प्लेट का कचरा 4.7 फीसदी था. इसके अलावा मछली पकड़ने का सामान, कपड़ा और मेडिकल प्लास्टिक भी पाए गए.
यह नदी गंगा डॉल्फ़िन, घड़ियाल, ऊदबिलाव, कछुए तथा अनेक जलीय और स्थलीय पक्षियों का आश्रय है. लेकिन अस्थिर संसाधन उपयोग पद्धतियों यानी वे प्रक्रियाएं हैं, जिनमें प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक और अव्यवस्थित रूप से उपयोग किया जाता है, के कारण गंगा और उसकी जलीय विविधता संकट में है. शोध से यह पता चला है कि गंगा डॉल्फ़िन, घड़ियाल और मगरमच्छ जैसी जलीय प्रजातियों का आवासीय दायरा गंभीर रूप से सिकुड़ गया है. आवास की अनुकूलता और नदी की लंबवत एवं पार्श्वीय (longitudinal & lateral) कनेक्टिविटी की हानि ने इनकी आबादी को नदी के छोटे-छोटे हिस्सों तक सीमित कर दिया है.
बाढ़ के बाद मॉनसून में बहकर आने वाला कचरा नदी में दोबारा जमा हो जाता है. केवल उच्च-जैव विविधता क्षेत्र में ही कुल मलबे का 61 फीसदी दर्ज किया गया, जिसमें बड़ी मात्रा मछली पकड़ने के जाल और थर्माकोल (स्टायरोफोम) शामिल थे, जो जलीय जीवों के लिए गंभीर खतरा हैं.
इसके अलावा नदी में 4 मीटर से अधिक गहरे जलाशयों की कमी इन प्रजातियों की आवाजाही और उनके फैलाव को बाधित कर रही है. अध्ययन के मुताबिक गर्मी के मौसम में केवल 38.7 फीसदी नदी ही इतनी गहरी पाई गई. बांध, बैराज, तट-परिवर्तन, कृषि और रेत खनन जैसी गतिविधियों से नदी की संरचना में बदलाव आया है, जिसने इसमें रह रही प्रजातियों के फैलाव और अस्तित्व दोनों को प्रभावित किया है.
इस अध्ययन के लिए झारखंड के साहिबगंज जिले में गंगा के 76 किलोमीटर लंबे हिस्से में 37,730 मलबे के टुकड़े जमा किए गए. यह अध्ययन 2022 से 2024 के बीच किया गया है.
नमामी गंगे प्रोजेक्ट और उसके उपर सवाल
नमामी गंगे परियोजना मोदी सरकार की एक महत्वाकांक्षी योजना है, जिसे साल 2014 में शुरू किया गया था. इसका उद्देश्य गंगा नदी को स्वच्छ और अविरल बनाना तथा उसके पारिस्थितिक तंत्र और सांस्कृतिक महत्त्व को पुनर्जीवित करना है. इसके तहत सीवेज और औद्योगिक अपशिष्ट को बिना उपचार के गंगा नदी में गिरने से रोकना सबसे महत्वपूर्ण कामों में एक था. ताकि नदी के प्राकृतिक जल प्रवाह को बनाए रखा जाए, गंगा डॉल्फ़िन जैसी संकटग्रस्त प्रजातियों की रक्षा की जाए.
देशभर के कुल 118 शहरों और 4,400 गांवों को इसमें शामिल किया गया. बीते 8 फरवरी 2024 को भारत सरकार की ओर से संसद में दिए गए एक जवाब के मुताबिक देश भर में 38,438.05 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत से अब तक कुल 457 परियोजनाएं स्वीकृत की गई हैं. जिनमें से 280 पूरी हो चुकी हैं. इनमें 198 सीवेज ढांचा परियोजनाएं शामिल हैं. लेकिन WII की ताजा रिपोर्ट इस परियोजना के कार्यान्वयन के तौर-तरीकों पर गंभीर सवाल खड़ा कर रहा है.
WII में गंगा प्रहरी प्रोजेक्ट की निदेशक डॉ रुचि बडोला कहती हैं, "सिंगल यूज प्लास्टिक सबसे बड़ी समस्या है. जैसे पान-पराग, शैंपू, माचिस आदि. इसे कम करने में स्थानीय प्रशासन को भूमिका निभानी होगी. नमामी गंगे प्रोजेक्ट के तहत लिक्विड वेस्ट पर काम हो रहा है, जहां तक बात सॉलिड वेस्ट की है, उसके लिए स्थानीय स्तर पर काम करना होगा.’’ उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा नहीं है कि ये समस्या बाकी जगह नहीं है, पूरे देश में यही हाल हैं.
साहिबगंज जिले में विभिन्न गांवों के कुल 206 लोगों को गंगा प्रहरी और 12 लोगों को डॉल्फिन प्रहरी बनाया गया है. नाम न छापने की शर्त पर एक डॉल्फिन प्रहरी ने बताया कि बरसात के समय यह कचरा अधिक होता है, क्योंकि गंगा उत्तराखंड, यूपी, बिहार, झारखंड होते हुए बंगाल में जाकर मिलती है. इन राज्यों का कचरा गंगा में फैल जाता है. साहिबगंज जिले में वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाया गया है, लेकिन उस प्लांट की गंदगी भी गंगा में ही बहा दी जा रही है. यही नहीं साहिबगंज शहर में जितने नाले, होटल आदि हैं, उसकी गंदगी तो सीधे गंगा में ही गिरती है. शहरी इलाके में कहीं-कहीं स्थानीय निकाय कचरा उठाने की व्यवस्था करते हैं, लेकिन नदी से सटे ग्रामीण इलाकों की गंदगी लोग गंगा में ही बहाते हैं.
साहिबगंज डिस्ट्रिक्ट गंगा कमेटी के सदस्य डॉ रणजीत सिंह इस डॉल्फिन प्रहरी की बात को आगे बढ़ाते हैं. वे कहते हैं, "इस वक्त पूरे शहर के शौचालय की गंदगी गंगा में ही बह रही है, क्योंकि जो वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट बना है, उसकी क्षमता कम है. कई बार वो ओवरफ्लो हो जाता है. बाढ़ के वक्त हालत यह हो जाती है कि लोग आचमन तक नहीं कर पाते क्योंकि पानी में भारी दुर्गंध आने लगती है. हालांकि बाढ़ के बाद स्थिति बेहतर हो जाती है, डॉल्फिन भी दिखने लगती हैं. लोग जब तक गंगा को माई की जगह कमाई का समझेंगे, स्थिति बेहतर नहीं हो सकती.’’ कुल मिलाकर खरबों रुपए खर्च के बाद भी गंगा की स्थिति ढ़ाक के तीन पात ही है.