क्यों लोकपाल प्रधानमंत्री पर एक्शन ले सकता है, लेकिन हाई कोर्ट जज पर नहीं?

दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से 15 करोड़ कैश की बरामदगी के बाद फिलहाल उनका ट्रांसफर इलाहाबाद कर दिया गया है, लेकिन वर्मा के खिलाफ आखिरी कार्रवाई के सवाल का जवाब मिलना अभी बाकी है

दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के घर पर भारी मात्रा में कैश बरामद हुआ
दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के घर पर भारी मात्रा में कैश बरामद हुआ

मार्च की 14 तारीख को रात के करीब 11.30 बजे दिल्ली पुलिस को हाई कोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के घर में आग लगने की सूचना मिली. यह घर राजधानी में तुगलक रोड पर है. चौंकाने वाली बात यह रही कि जब फायर ब्रिगेड के साथ यहां पुलिस पहुंची तो एक जज के घर पर आग लगना बेहद मामूली घटना बन गई. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक राहत-बचाव के दौरान जस्टिस वर्मा के घर से 15 करोड़ कैश मिला.

दिल्ली पुलिस ने नोटों के भंडार मिलने की सूचना गृहमंत्रालय को दी. इसके बाद गृहमंत्रालय ने देश के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को इसकी जानकारी दी. 20 मार्च को संजीव खन्ना के नेतृत्व वाली कॉलेजियम की बैठक हुई. कॉलेजियम ने फिलहाल उनका ट्रांसफर दिल्ली से वापस इलाहाबाद कर दिया है.

इसके साथ ही हाई कोर्ट के जज के खिलाफ खिलाफ इंटरनल जांच भी शुरू किया जा रहा है. लेकिन, सवाल ये है कि बेहिसाब पैसा रखने वाले हाई कोर्ट जस्टिस का सिर्फ तबादला होगा या कुछ और कार्रवाई होगी?

सवाल ये भी हैं कि क्यों प्रधानमंत्री के खिलाफ जांच करने वाला लोकपाल जजों की जांच नहीं कर सकता और क्या राष्ट्रपति को भी न्यायाधीशों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने से पहले किसी की सलाह या मंजूरी लेनी होती है?

सिर्फ तबादला या हाई कोर्ट जज के खिलाफ कुछ और कार्रवाई होगी?

इस मामला के सामने आते ही जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ कॉलेजियम ने फिलहाल तीन तरह से कार्रवाई की है. पहला- उनका वापस ट्रांसफर इलाहाबाद कर दिया है. दूसरा- उनके खिलाफ इंटरनल जांच शुरू किया गया है. तीसरा- वो 21 मार्च से दिल्ली उच्च न्यायालय के अदालती काम-काज में हिस्सा नहीं लेंगे. 

सूत्रों के मुताबिक कॉलेजियम जल्द जस्टिस वर्मा से उनके घर से बरामद हुए नोटों के भंडार के बारे में जवाब मांग सकती है. साथ ही इंटरनल जांच कमेटी के रिपोर्ट के हिसाब से कॉलेजियम आगे एक्शन लेगी. हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भ्रष्टाचार का आरोप पहली बार नहीं लगा है.

इससे पहले 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार, गलत कार्य और न्यायिक अनियमितता के आरोपों से निपटने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे.

इन दिशा-निर्देशों के मुताबिक, अगर सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जज के खिलाफ शिकायत होती है, तो मुख्य न्यायाधीश सबसे पहले संबंधित न्यायाधीश से जवाब मांगेंगे. अगर वे संबंधित न्यायाधीश के जवाब से असंतुष्ट हैं या उन्हें लगता है कि मामले में आगे जांच की जरूरत है, तो वे जांच के लिए एक इंटरनल कमेटी बनाएंगे.

जांच के दौरान अगर कमेटी को लगता है कि कथित आरोप गंभीर प्रकृति का है, जिसके लिए उसे पद से हटाना चाहिए यानी सस्पेंड किया जाना चाहिए, तो मुख्य न्यायाधीश उस आरोपी न्यायाधीश से इस्तीफा देने के लिए कहेंगे.

सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता बताते हैं कि इस मामले के खुलासे के बाद जस्टिस वर्मा स्वतः छुट्टी पर चले गए. इस मामले में कई सवाल हैं, जिनका इनहाउस कमेटी की जांच में जवाब मिलने की उम्मीद है. इस मामले में एक सप्ताह के बाद खुलासा क्यों हुआ? क्या यह भ्रष्टाचार का मामला है या फिर जज के खिलाफ कोई आपराधिक साजिश हुई है? कमेटी की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं होती.

सिटिंग जज के मामलों में हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल या न्यायिक सुनवाई संभव नहीं है. जस्टिस वर्मा दिल्ली हाईकोर्ट से ट्रांसफर होकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में ज्वॉइन कर सकते हैं. लेकिन, इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोशियेसन ने इस मामले में प्रस्ताव पारित किया है. इसलिए कुछ दिनों तक जस्टिस वर्मा को न्यायिक कार्यों से अलग रखने का प्रशासनिक फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस कर सकते हैं. 

क्यों प्रधानमंत्री के खिलाफ जांच करने वाला लोकपाल हाई कोर्ट जजों के खिलाफ जांच नहीं कर सकता?

20 फरवरी 2025 की बात है. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बीआर गवई, सूर्यकांत और एएस ओका की बेंच ने लोकपाल के उस आदेश पर रोक लगा दी, जिसमें हाई कोर्ट के वर्तमान न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायतों पर विचार करने का फैसला लिया था. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 27 जनवरी 2025 को सुनाया गया लोकपाल का ये फैसला बहुत, बहुत परेशान करने वाला है.  

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “पहले भी हमने न्यायाधीशों की आलोचनाओं को स्वीकार किया है, लेकिन साथ ही हम हमेशा न्यायाधीशों और न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. लोकपाल एक स्वतंत्र वैधानिक निकाय है जो कार्यपालिका के कमांड में काम करता है. ऐसे में कार्यपालिका के अतिक्रमण के संभावना को देखते हुए हम न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सुरक्षा के लिए ये फैसला ले रहे हैं.”

सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक, अगर लोकपाल के 27 जनवरी के आदेश को मान्यता दी जाए तो सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों के खिलाफ शिकायतों का एक नया रास्ता खुल सकता है. ऐसे मामलों में पहले से तय प्रक्रिया का पालन किए बिना लोग सीधे लोकपाल के पास जाकर कुछ भी आरोप लगा सकते हैं. इससे न्यायपालिका की छवि खराब होगी.

केंद्र सरकार की ओर से पेश होने वाले सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी कहा था कि हाई कोर्ट के न्यायाधीश लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के दायरे में कभी नहीं आते हैं.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद से ही पूर्व या वर्तमान प्रधानमंत्री तक के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करने वाला लोकपाल अब हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ शिकायत मिलने पर जांच या कार्रवाई नहीं कर सकता है.

क्या इंटरनल कमेटी की जांच में जज के घर से मिले पैसे का सबूत के तौर पर कोई कानूनी आधार होगा?
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता के मुताबिक, जस्टिस यशवंत वर्मा के घर पर मौजूद स्टाफ के अनुसार आग की वजह से स्टेशनरी और कोर्ट के पेपर्स को नुकसान हुआ. उसी दौरान प्रक्रिया के तहत फायर ब्रिगेड के अधिकारियों ने फोटो और वीडियो बनाई. इस घटना में कोई घायल या मृत्यु नहीं हुई, इसलिए कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई.

हालांकि, इस घटना की तुगलक रोड स्थित पुलिस स्टेशन की डायरी में एंट्री की गई. अगर उस घटना के समय नगदी की जब्ती नहीं हुई और पंचनामा नहीं बना तो फिर नगदी के बारे में लगाये जा रहे अनुमानों की ज्यादा कानूनी अहमियत नहीं है. इस खुलासे के बाद जस्टिस वर्मा स्वतः छुट्टी पर चले गए.

इस मामले में कई सवाल हैं, जिनका इनहाउस कमेटी की जांच में जवाब मिलने की उम्मीद है. इस मामले में एक सप्ताह के बाद खुलासा क्यों हुआ? क्या यह भ्रष्टाचार का मामला है या फिर जज के खिलाफ कोई आपराधिक साजिश हुई है?

कमेटी की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं होती है. सिटिंग जज के मामलों में हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल या न्यायिक सुनवाई संभव नहीं है. जस्टिस वर्मा दिल्ली हाईकोर्ट से ट्रांसफर होकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में ज्वॉइन कर सकते हैं. इलाहाबाद हाई कोर्ट बार एसोशियेसन ने भी इस मामले में प्रस्ताव पारित किया है, इसलिए कुछ दिनों तक जस्टिस वर्मा को न्यायिक कार्यों से अलग रखने का प्रशासनिक फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस कर सकते हैं. 

दबाव या मजबूरी में अगर जस्टिस वर्मा को त्यागपत्र देना पड़ा तो संवैधानिक सुरक्षा खत्म होने पर उन्हें आयकर, सीबीआई और ईडी जांच का सामना करना पड़ सकता है. 

हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ कार्रवाई को लेकर कानून में क्या कहा गया है?

हाई कोर्ट के जजों के खिलाफ कार्रवाई को लेकर भारतीय कानून में दो प्रमुख जगहों पर जिक्र किया गया है-  पहला- लोकायुक्त अधिनियम, दूसरा- भारतीय दंड संहिता.

लोकायुक्त अधिनियम: इसके मुताबिक यह भारत में और भारत से बाहर काम करने वाले लोक सेवकों पर लागू होगा. अधिनियम की धारा 14 में साफ- साफ “लोक सेवक” शब्द को परिभाषित किया गया है. इस शब्द की परिभाषा में न्यायाधीश शामिल नहीं हैं. इस कानून की उप-धारा (F) में कहा गया है कि “कोई भी व्यक्ति जो संसद के अधिनियम से जुड़ी किसी संस्था में काम करता हो या फिर केंद्र सरकार की फंडिंग पर चलने वाले किसी विभाग या दफ्तर में काम करता हो…चाहे वह किसी स्वायत्त निकाय का अध्यक्ष, सदस्य, अधिकारी या कर्मचारी ही क्यों न हो, वह लोकपाल के दायरे में आएगा.

भारतीय दंड संहिता यानी IPC: अगर कानूनी तौर पर हाई कोर्ट के जजों के खिलाफ कार्रवाई की बात करें तो भारतीय दंड संहिता 1860 यानी IPC में भी इसका जिक्र था. दरअसल, IPC की धारा 77 में प्रभावी रूप से कहा गया है कि अगर आरोप हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जजों के आधिकारिक कर्तव्यों से संबंधित है तो न्यायाधीश पर अपराध का आरोप नहीं लगाया जा सकता है. अब IPC के इस कानूनी प्रावधान को हूबहू भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 15 में शामिल किया गया है.

लोकपाल ने क्यों कहा- सुप्रीम कोर्ट के नहीं, लेकिन हाई कोर्ट के जज लोकपाल के दायरे में हैं

जनवरी 2025 में ही एक दूसरे मामले की सुनवाई करते हुए लोकपाल ने फैसला सुनाते हुए कहा, “लोकपाल सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ मामलों की सुनवाई नहीं कर सकता. ऐसा इसलिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की स्थापना भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 के तहत की गई थी, न कि “संसद के अधिनियम” के तहत.”

हालांकि, लोकपाल ने इसके साथ ही ये भी कहा, “हाई कोर्ट के जजों के खिलाफ लोकपाल जांच और कार्रवाई कर सकता है क्योंकि हाई कोर्ट अधिनियम 1861 और भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत कई हाई कोर्ट की स्थापना और पुनर्गठन किया गया है. इन्हें "संसद का अधिनियम" माना जाएगा क्योंकि सामान्य खंड अधिनियम, 1897 में साफ कहा गया है कि कि संसद के अधिनियम में "संविधान के लागू होने से पहले" पारित अधिनियम शामिल होगा.”

इसके अलावा जनवरी 2025 में ही सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस ए.एम. खानविलकर की अध्यक्षता वाली लोकपाल पीठ ने कहा, “लोकपाल अधिनियम, 2013 के तहत उसे पूर्व न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों की सुनवाई करने का अधिकार है.”

हालांकि, लोकपाल के इस फैसले के बाद ही फरवरी 2025 में फैसला सुनाकर सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि लोकपाल हाई कोर्ट के जजों पर कार्रवाई नहीं कर सकता.

लोकपाल लोक सेवकों पर कार्रवाई करता है, तो क्या जजों को लोक सेवक माना जा सकता है?

सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता के मुताबिक, अन्ना आंदोलन के बाद भ्रष्टाचार के मामलों से निपटने के लिए लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम 2013 बनाया गया था. लोकपाल ने 2 महीने पहले 27 जनवरी के आदेश से कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के जज प्रिवंशन ऑफ करप्शन एक्ट के अनुसार लोकसेवक हैं लेकिन वे लोकपाल कानून के तहत लोकसेवक नहीं हैं. लेकिन, लोकपाल अधिनियम की धारा-14 (1) (एफ) के अनुसार हाईकोर्ट के जज लोकसेवक के दायरे में आते हैं.

हाई कोर्ट जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए लोकपाल कानून की धारा-20 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की मंजूरी के बाद हाई कोर्ट के जज के खिलाफ प्राथमिक जांच जरुरी है. सुप्रीम कोर्ट ने उस मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए लोकपाल के आदेश पर रोक लगा दी है. कॉलेजियम के बारे में संविधान या कानून में कोई जिक्र नही है. जस्टिस वर्मा के इस विवाद के बाद जजों की नियुक्ति और उनकी जवाबदेही के लिए संसद से मजबूत कानून बनाने की मांग तेज हो सकती है. 

क्या हाई कोर्ट जजों के खिलाफ कार्रवाई के लिए राष्ट्रपति को भी मंजूरी या सलाह लेनी होती है?

हां, सुप्रीम कोर्ट ने के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ (1991) के केस में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए इसको साफ कर दिया है. मद्रास हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वीरास्वामी पर आय से अधिक संपत्ति के मामले में सीबीआई द्वारा जांच की जा रही थी.

न्यायमूर्ति वीरास्वामी ने इस जांच से बचने और मामले को रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में आवेदन किया. सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि वह एक "लोक सेवक" थे और उन पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 (जिसे 1988 में बदला गया) के तहत अपराधों के लिए जांच की जा सकती है.

हालांकि, इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा, “राष्ट्रपति को हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के किसी न्यायाधीश के खिलाफ किसी भी आपराधिक मामले को भारत के मुख्य न्यायाधीश से सलाह के बाद ही मंजूरी देनी चाहिए. ताकि जजों को गलत इरादे से फंसाए जाने और अनावश्यक उत्पीड़न से बचाया जा सके.  राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश द्वारा दी गई सलाह को मानने के लिए बाध्य हैं.” 

इस तरह के आरोपों के बाद कैसे हटाए जा सकते हैं हाई कोर्ट जज ?

भारत में किसी भी हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को हटाने की एक तय प्रक्रिया है. 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ गाइडलाइंस तय की थीं, जिनके मुताबिक, इस तरह के आरोपों के बाद सबसे पहले मुख्य न्यायाधीश संबंधित जज से जवाब मांगते हैं. 

अगर जवाब संतोषजनक नहीं होता, तो एक आंतरिक जांच कमेटी बनाई जाती है, जिसमें एक सुप्रीम कोर्ट जज और दो हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होते हैं. जांच में जज दोषी पाए जाते हैं, तो मुख्य न्यायाधीश उन्हें इस्तीफा देने के लिए कह सकते हैं. अगर जज इस्तीफा देने से इनकार करते हैं, तो मुख्य न्यायाधीश सरकार को उनके खिलाफ महाभियोग चलाने की सिफारिश कर सकते हैं. 
 

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