काम के दबाव में CA की मौत: कहां उलझी है 'वर्क लाइफ बैलेंस' की गुत्थी?

बहुराष्ट्रीय कंपनी अर्न्सट एंड यंग (EY) में काम करने वाली 26 साल की CA एना की कथिततौर पर वर्क स्ट्रेस से मौत और कंपनी के प्रमुख को लिखी उनकी मां की चिट्ठी सामने आने के बाद कॉर्पोरेट में टॉक्सिक वर्क कल्चर को लेकर बहस तेज हुई है

केरल से आने वाली 26 साल की सीए एना सेबेस्टियन की 20 जुलाई को मौत हो गई थी
केरल से आने वाली 26 साल की सीए एना सेबेस्टियन की 20 जुलाई को मौत हो गई थी

"जहां पर कोई बोल रहा है कि टॉक्सिक कल्चर है, बहुत सही ऑफिस है. काम तो वहीं हो रहा है. बाकि नॉन-टॉक्सिक ऑफिस तो बहुत मिल जाएंगे." डिजिटल पेमेंट ऐप भारत-पे के को-फाउंडर अशनीर ग्रोवर का एक पुराना वीडियो नए संदर्भ के साथ वायरल है. ये पुराना बयान भी अपने साथ एक संदर्भ को समेटे हुए है जिसे उसी वीडियो में खुद अशनीर बताते हैं, "मैंने Earnst & Young ज्वाइन किया. मैं उनके दफ़्तर में घुसा हूं, एक राउंड मारा और मैंने छाती में दर्द होने की एक्टिंग की और कहा मुझे जाने दो." लेकिन क्यों? क्योंकि "भाई साहब इतने मरे हुए लोग, मतलब क्रिया-कर्म करना रह गया था. सब लाशें पड़ी थीं. जहां पर लड़ाई हो रही है न वो बेस्ट ऑफिस है."

अशनीर जिस टॉक्सिक वर्क कल्चर की वक़ालत कर रहे थे और जिस कंपनी (EY) के ऑफिस में उन्हें ये कल्चर मिसिंग लग रहा था, वहीं काम करने वाली एक युवा कर्मचारी की मौत इन दिनों ख़बर में है. केरल से आने वाली 26 साल की चार्टर्ड अकाउंटेंट (सीए) एना सेबेस्टियन की 20 जुलाई को मौत हो गई. एना कंपनी के पुणे ऑफिस में काम करती थीं. कथित तौर पर उनकी मौत काम के दबाव की वजह से कार्डियक अरेस्ट से हुई. क़रीब दो महीने पहले हुई मौत का मामला अब कैसे खुला? 19 सितंबर को सोशल मीडिया पर एक चिट्ठी की तस्वीरें शेयर की जाने लगीं. ये चिट्ठी एना की मां अनीता ऑगस्टीन ने कंपनी के इंडिया चेयरमैन राजीव मेमानी को लिखी थी.


अनीता लिखती हैं, "एना ने ऑडिट और एश्योरेंस एग्जीक्यूटिव के तौर पर EY ज्वाइन किया. वह एक प्रतिष्ठित कंपनी का हिस्सा बनने के लिए उत्साहित थी. लेकिन काम के बोझ ने उस पर बहुत ज़्यादा असर डाला. ज्वाइनिंग के तुरंत बाद ही उसे चिंता, नींद न आना और तनाव का सामना करना पड़ा. लेकिन वो काम करती रही. उसे लगा कि आगे बढ़ने के लिए ये सब ज़रूरी है."

एना की मां बताती हैं कि वो सीने में दर्द और जकड़न महसूस कर रही थी. एना की मौत से दो हफ़्ते पहले वो परिवार के साथ अपने दीक्षांत समारोह में शामिल होने गईं. उस दौरान उन्हें डॉक्टर पास ले जाया गया. मां का कहना है, "डॉक्टर ने बताया कि नींद की कमी और खाने में देरी की वजह से एना को दिक़्क़तें हो रही हैं." चिट्ठी में इस बात का भी ज़िक्र मिलता है कि कैसे एना के मैनेजर ने उससे कहा कि, "आप रात में काम कर सकती हैं. क्योंकि हम सभी यही करते हैं."

मां की ओर से कंपनी के चेयरमैन को लिखी चिट्ठी आखिर बाहर कैसे आई? इस बात का जवाब एना के पिता सीबी जोसेफ ने दिया है. जोसेफ का बयान इकोनॉमिक टाइम्स में छपा है. वो कहते हैं, "लेटर EY के पुणे ऑफिस से लीक हुआ है. इसका मतलब है कि वहां और भी ऐसे लोग हैं जिन्हें एना जैसी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा रहा है. वे लोग ही चाहते होंगे कि ये बात पब्लिक में आए."

कंपनी का पक्ष

EY के इंडिया हेड राजीव मेमानी ने लिंक्डइन पर अपना बयान जारी किया है. राजीव लिखते हैं, "मैं बहुत दुखी हूं और एक पिता के रूप में मैं केवल मिसेज़ ऑगस्टीन के दुःख की कल्पना कर सकता हूं. मैंने परिवार के प्रति अपनी गहरी संवेदना व्यक्त की है, हालांकि उनके जीवन में जो खालीपन है उसे कोई भी नहीं भर सकता. मुझे इस बात का वास्तव में अफ़सोस है कि हम एना के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाए. यह हमारे कल्चर के लिए पूरी तरह से अलग है. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है, ऐसा फिर कभी नहीं होगा."

राजीव आगे जोड़ते हैं, "मैं यह कहना चाहता हूं कि हमारे लोगों की भलाई मेरी प्राथमिकता है और मैं व्यक्तिगत रूप से इसके लिए प्रयास करूंगा. मैं एक सामंजस्यपूर्ण वर्क प्लेस को बढ़ावा देने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध हूं, और जब तक यह उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता, मैं आराम नहीं करूंगा."

राजनैतिक हलकों में चर्चा

ख़बर आने के बाद राजनैतिक गलियारे से बड़े नेताओं में सबसे पहले समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने इस पर प्रतिक्रिया दी. उन्होंने एक्स पर लिखा, "Work-life balance का संतुलित अनुपात किसी भी देश के विकास का एक मानक होता है. पुणे में एक अंतरराष्ट्रीय कंपनी में काम करने वाली एक युवती की काम के तनाव से हुई मृत्यु और उस संदर्भ में उसकी मां का लिखा हुआ भावुक पत्र देश भर के युवक-युवतियों को झकझोर गया है. ये किसी एक कंपनी या सरकार के किसी एक विभाग की बात नहीं बल्कि कहीं थोड़े ज़्यादा, कहीं थोड़े कम, हर जगह लगभग एक-से ही प्रतिकूल हालात हैं. देश की सरकार से लेकर कॉरपोरेट जगत तक को इस पत्र को एक चेतावनी और सलाह के रूप में लेना चाहिए."


एक खबर को रिपोस्ट करते हुए नरेंद्र मोदी सरकार में पूर्व मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने इस मामले में जांच की मांग की. इस पर शोभा करंदलाजे ने जवाब देते हुए लिखा है, "एना सेबेस्टियन की मौत से बेहद दुखी हूं. असुरक्षित और शोषणकारी वर्क एनवायरमेंट के आरोपों की गहन जांच चल रही है. हम न्याय सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. हमने आधिकारिक तौर पर शिकायत को अपने हाथ में ले लिया है."


लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने वीडियो कॉल के जरिए एना के परिवार से बातचीत की है. देखा जाए तो धीरे-धीरे ये मामला पॉलिटिकल बहस में आ सका है. हालांकि क्या इससे नीतिगत स्तर पर कोई बदलाव देखने को मिलेगा? या आरोप सही साबित होने पर कंपनी के खिलाफ़ कोई कार्रवाई होगी?

एना के परिवार से राहुल गांधी ने बात की

भारत में वर्कलोड का ट्रेंड

जैसे पानी हमारी ज़िंदगी के लिए ज़रूरी है लेकिन हद से ज़्यादा पानी हमें डूबा भी सकता है. कुछ ऐसा ही हाल काम को लेकर है. गुजर-बसर के लिए, अपने ईएमआई बिल भरने और शौक़ पूरे करने के लिए काम करना ज़रूरी तो है. लेकिन एक हद के बाद यही काम हमारी जान से खिलवाड़ साबित हो सकता है. कहा जा सकता है कि साबित हो रहा है.

वर्क-लाइफ बैलेंस की चर्चा में भारत काफ़ी पिछड़ा है. डेक्कन हेराल्ड में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि ग्लोबल वर्क लाइफ बैलेंस इंडेक्स में शामिल 60 देशों में भारत 48वें नंबर पर है. यानी रसातल में. यूकेजी वर्कफोर्स इंस्टीट्यूट का हालिया सर्वे बताता है कि कॉरपोरेट सेक्टर में काम कर रहे 78 फीसदी कर्मचारी बर्नआउट महसूस करते हैं. और इसमें बीते बरस यानी 2023 के मुक़ाबले 31 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है.

बर्नआउट का क्या मतलब है? सत्तर के दशक में पहली बार अमेरिकी साइकोलॉजिस्ट हर्बर्ट फ्रायडेनबर्गर ने बर्नआउट का कॉन्सेप्ट पेश किया. मोटेतौर पर इसे काम के दबाव की वजह से होने वाले तनाव, शारीरिक थकावट और इमोशनली थकावट के रूप में समझा जा सकता है. 2019 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने बर्नआउट को एक बीमारी माना. WHO ने तब कहा था, "बर्न आउट एक ऐसा सिंड्रोम है, जो कार्यस्थल पर होने वाले गंभीर तनाव यानी काम के बहुत ज्यादा बोझ की वजह से पैदा होता है."

ये सारे थकाऊ आंकड़े और परिभाषाओं को समझते हुए इसी बीच आपको इन्फोसिस के फाउंडर एनआर नारायणमूर्ति का वो बयान याद आ सकता है, जिसमें वे हफ़्ते में 70 घंटे काम करने की वक़ालत करते हैं. उनके इस बयान पर घनघोर बहस छिड़ी. गाहे-बगाहे अब भी उस बयान की चर्चा होने लगती है. जैसे कि अभी भी हो रही है. 

वैसे हमारे देश में एक कर्मचारी औसत कितने घंटे काम करता होगा दफ़्तर में. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक़, औसत भारतीय कर्मचारी हर हफ़्ते 46.7 घंटे काम पर बिताता है. क़रीब-क़रीब 47 घंटे. इसके अलावा, भारत के 51 फीसदी कर्मचारी साप्ताहिक रूप से 49 या उससे ज़्यादा घंटे काम करते हैं, जिससे भारत उन देशों में दूसरे स्थान पर है जहां लंबे समय तक काम करने की दर सबसे ज़्यादा है.

एक्सपर्ट क्या कहते हैं?

सर गंगाराम हॉस्पिटल, नई दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ साइकेट्री एंड बिहेविरियल साइंस के वाइस चेयररपर्सन और सीनियर कंसल्टेंट साइकेट्रिस्ट प्रोफेसर राजीव मेहता कहते हैं, "किसी भी चीज़ को आप एक तरफा नहीं देख सकते. एम्प्लॉई के हाथ में है कि वो कितनी देर काम करना चाहता है. दूसरा पहलू ये है कि लेबर लॉ जो मर्जी कहे, एम्प्लॉयर अपने हिसाब से चलता है. क्योंकि लेबर लॉ कायदे से लागू नहीं किए जाते."

प्रो. राजीव मेहता (फ़ाइल फोटो)

प्रो. राजीव आगे जोड़ते हैं, "अगर आदर्श स्थिति की बात करें तो दिन भर में 8 घंटे काम किया जा सकता है. हफ़्ते में 5 दिन. ज़्यादा से ज़्यादा 6 दिन. एक और चीज़ है कि शिफ्ट के बारे में. ऐसा नहीं हो सकता है कि आप 2 दिन किसी शिफ्ट में काम करें और फिर अलग शिफ्ट. 3 हफ़्ते तक तक एक ही शिफ्ट होनी चाहिए. शरीर तभी सहज रह सकता है."

इन बातों की अनदेखी की स्थिति का नतीजा क्या होगा? जवाब में प्रो. राजीव बताते हैं, "आप एक बात समझिए कि शरीर का भी एक क्लॉक होता है. और बॉडी क्लॉक सूरज के हिसाब से काम करती है. तो ये क्लॉक गड़बड़ होगी, यानी आप लगातार 8 घंटे से ज़्यादा काम करेंगे, देर से सोएंगे, खाने में देरी होगी तो सबसे पहले असर पड़ेगा दिमाग पर और इंसान को स्ट्रेस होगा. ब्रेन से हमारा पूरा शरीर कंट्रोल होता है तो फिर सारी ही चीज़ें गड़बड़ होंगी. बीपी बढ़ेगा, शुगर बढ़ेगी, इम्यूनिटी डिस्टर्ब होगी."

इंडिया टुडे के देश का मिज़ाज सर्वे-2024 में काम के घंटों को लेकर सवाल पूछे गए थे. 18-24 साल की उम्र वाले ज्यादातर लोगों ने दफ़्तर में 40 घंटे से कम काम करने की इच्छा जताई. इस उम्र के युवाओं को ये महसूस होता है कि हफ़्ते में 5 दिन 8-8 घंटे (कुल 40 घंटे) काम करना उनके वर्क-लाइफ बैलेंस को बिगाड़ता है. हालांकि अन्य आयु वर्ग के लोग इस मानक से संतुष्ट नज़र आते हैं.

काम, काम का दबाव, टॉक्सिक वर्क कल्चर आदि-इत्यादि की गुत्थी उलझी कहां है? इसका जवाब उसी चिट्ठी में दर्ज है, जिसपर ये चर्चाए छिड़ी हैं, "एना के मैनेजर ने उसे वीक-ऑफ के दिनों में काम असाइन किए. काम के दिनों में दफ़्तर से निकलने के बाद उसे वो काम भी पकड़ाए गए जो कि उसके हिस्से में नहीं था." बहुत संभावना है कि एना की सेहत पर इस सब का काफी बुरा असर पड़ा हो.

लेकिन कर्मचारी ऐसे काम को अनदेखा क्यों नहीं कर पाते? काम करने की साइकोलॉजी पर बात करते हुए प्रो. राजीव कहते हैं, "मोटेतौर पर देखें तो दो स्थितियां इंसान को कन्विंस करती हैं. एक, आपकी आर्थिक मजबूरी. दूसरी, इंसान की महत्वाकांक्षा." हालांकि इसके साथ वे कॉर्पोरेट के सेटअप को भी काफी हद तक इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं. 

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