उपचुनाव 2025 : चार राज्यों के चुनावी नतीजों ने बीजेपी की किन कमजोरियों को उजागर किया?
चार राज्यों की पांच विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे 23 जून को जारी हुए, जिनमें बीजेपी को सिर्फ एक सीट पर जीत मिली

23 जून को जारी हुए विधानसभा उपचुनाव के नतीजे भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए एक तरह से खतरे की घंटी हैं. ये परिणाम संकेत देते हैं कि पार्टी की राज्य स्तर की इकाइयां केंद्रीय नेतृत्व की उम्मीदों के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहीं.
19 जून को देश के चार कोनों - पंजाब, गुजरात, पश्चिम बंगाल और केरल - में उपचुनाव हुए. ये चुनाव बीजेपी के लिए अपनी ताकत आजमाने का मौका थे. हालांकि पार्टी को इनसे कुछ अहम सबक मिले, जो उसे काफी मुश्किल तरीके से सीखने पड़े.
इन नतीजों से साफ है कि बीजेपी को पंजाब, बंगाल और केरल में अपनी जड़ें जल्दी मजबूत करनी होंगी, खासकर बंगाल और केरल में, जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं.
पंजाब की लुधियाना वेस्ट सीट पर उपचुनाव में मिली हार बीजेपी के लिए 'टाइमिंग' और 'फोकस' के लिहाज से एक सबक रही. वहां पार्टी की ओर से जीवन गुप्ता की उम्मीदवारी काफी देर से घोषित हुई, और उन्हें उस चुनावी मुकाबले में उतारा गया जो पहले ही आम आदमी पार्टी (AAP) और कांग्रेस के बीच की लड़ाई बन चुका था.
गुप्ता खुद के लिए कोई जगह नहीं बना पाए. मुकाबला तेजी से सत्ताधारी AAP के संजीव अरोड़ा और कांग्रेस के भारत भूषण आशु के बीच सीधा टकराव बन गया, जिसमें विचारधारा के साथ-साथ स्थानीय नाराजगियां भी अहम भूमिका निभा रही थीं.
अव्वल तो गुप्ता की उम्मीदवारी देर से घोषित हुई और उनका प्रचार भी धीमी गति से शुरू हुआ. इससे वे न तो उस पहले से बने एजेंडे में अपनी जगह बना पाए और न ही राज्य में कांग्रेस के अंदर चल रही भारी गुटबाजी का कोई फायदा उठा सके.
यह बीजेपी के लिए एक गंवाया हुआ मौका था, और इसके लिए पार्टी की खुद की कमजोर रणनीति जिम्मेदार है. वहीं, विजयी AAP ने अपने साफ और स्पष्ट संदेश और मजबूत जमीनी प्रचार अभियान के जरिए बीजेपी की अव्यवस्था को अपने फायदे में बदल लिया.
बीजेपी शासित गुजरात ने एक अलग तरह का विरोधाभास दिखाया. पार्टी ने कड़ी सीट पर अपनी पकड़ बनाए रखी, जहां उसके उम्मीदवार राजेंद्र चावड़ा ने मजबूत जमीनी जुड़ाव और लंबे समय से कामकाज के रिकॉर्ड के दम पर जीत हासिल की. लेकिन वहां से कुछ सौ किलोमीटर दूर विसावदर में बीजेपी को लापरवाही की सजा मिली. वहां उसके उम्मीदवार किरीट पटेल पाटीदार समुदाय का समर्थन जुटाने में नाकाम रहे.
विसावदर में बीजेपी के सामने AAP के गोपाल इटालिया थे, जो कास्ट प्राइड (जातीय गर्व) को वोट जुटाने का हथियार बनाना जानते हैं. वहां बीजेपी को एहसास हुआ कि जाति की वफादारी अब पक्की नहीं रही, खासकर जब उसे जोरदार चुनावी अभियान के साथ जोड़ा जाए.
विसावदर ने दिखाया कि गुजरात का चुनावी मैदान शायद थोड़ा बदल रहा है: बीजेपी अब भी अपने भरोसेमंद चेहरों और मजबूत जमीनी नेटवर्क के दम पर जीत सकती है, लेकिन राज्य में दशकों से चली आ रही उसकी पकड़ को अब हर कदम पर चुनौती मिल सकती है.
बंगाल की कालिगंज सीट ने पहचान आधारित (आइडेंटिटी सेंट्रिक) चुनाव अभियानों की सीमाएं उजागर कर दीं. बीजेपी उम्मीदवार आशीष घोष ने इस मुकाबले को धार्मिक पहचान के प्रदर्शन की परीक्षा बना दिया, और राज्य में लंबे समय से अपनाई जा रही पार्टी की ध्रुवीकरण वाली रणनीति के तहत हिंदू वोटरों को एकजुट करने की कोशिश की.
लेकिन अलीफा अहमद और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने एक ऐसा जवाबी नैरेटिव पेश किया जो समावेशिता और गहरे स्थानीय जुड़ाव पर आधारित था. हार का अंतर और बीजेपी के वोट शेयर में साफ गिरावट यह दिखाता है कि सांप्रदायिक मुद्दे भले ही पार्टी के कोर समर्थकों को मजबूत कर दें, लेकिन संकोच करने वाले या तटस्थ मतदाताओं को अपने पाले में नहीं ला पाते.
केरल की नीलांबुर सीट की अपनी अलग कहानी थी. बीजेपी ने वहां मोहन जॉर्ज को उम्मीदवार बनाकर ईसाई समुदाय से जुड़ने की कोशिश की. चुनाव प्रचार संभलकर और बेहद शांत ढंग से किया गया, जिसमें शक्ति प्रदर्शन की बजाय शांत कोशिशों पर ज्यादा जोर था.
लेकिन नतीजा यह बताता है कि ऐसे क्षेत्रों में सफलता पाने के लिए गहरी और लगातार जमीनी मेहनत की जरूरत होती है, सिर्फ एक चुनाव तक सीमित रणनीति या प्रतीकात्मक प्रयास काफी नहीं होते.
कुल मिलाकर, ये नतीजे सिर्फ अलग-अलग हार या जीत नहीं हैं. ये उस जमीन में बदलाव का संकेत देते हैं जिस पर बीजेपी लड़ रही है. एक राज्य से दूसरे राज्य तक पार्टी ने देखा कि उसके केंद्रीय मुद्दे - राष्ट्रवाद, पहचान की राजनीति और बड़े विकास के वादे - तभी तक कारगर हैं जब तक स्थानीय चुनाव प्रचार भी उसी के अनुरूप ढल सके.
खासकर पंजाब का नतीजा उम्मीदवार के चयन और प्रचार अभियान की टाइमिंग को लेकर एक अहम सबक है. यह याद दिलाता है कि किसी सरकार के खिलाफ नाराजगी होना हमेशा चुनावी जीत की गारंटी नहीं होता.
बीजेपी के लिए यह उपचुनाव एक तरह से उसके संगठनात्मक अनुशासन और चार राज्यों में जमीनी माहौल को समझने की क्षमता की परख थी. नतीजों से साफ हो गया है कि पार्टी अब सिर्फ दिल्ली से मिले माहौल के भरोसे अपने राज्य इकाइयों के बल पर जीत हासिल नहीं कर सकती. आज जब हर सीट को एक छोटे लोकसभा चुनाव की तरह लड़ा जा रहा है, तो बीजेपी को वही सटीकता, तत्परता और जनसंवाद फिर से हासिल करना होगा, जिसने उसे पहले राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत बनाया था.