बुद्ध के अवशेष रूस भेजकर बीजेपी यूपी-बिहार में कौन-सी राजनीति साध रही?
गौतम बुद्ध के पिपहरवा अवशेषों को लेकर एक प्रतिनिधिमंडल 23 सितंबर को रूस जा रहा है, जिसकी अगुवाई उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य करेंगे

उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य 23 सितंबर को रूस के कलमीकिया गणराज्य की राजधानी एलिस्टा में होने वाली प्रदर्शनी में भगवान बुद्ध के पिपहरवा अवशेषों को प्रदर्शित करने के लिए प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करेंगे.
पिपहरवा अवशेषों की खोज 1898 में उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिले के पिपहरवा स्तूप में हुई थी. इसे बौद्ध इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक खोजों में गिना जाता है.
बुद्ध के अवशेषों की यह रूस यात्रा सांस्कृतिक या धार्मिक आयोजन तो है ही, लेकिन इसके राजनीतिक निहितार्थ भी गहरे हैं. बीजेपी इसे एक अवसर के तौर पर देख रही है कि कैसे बुद्ध और उनकी विरासत के जरिए विपक्ष की संविधान बचाओ और पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) रणनीति को काटा जा सकता है.
केशव प्रसाद मौर्य दावा करते हैं कि वे भी एक तरह से बुद्ध के ही वंश से आते हैं. वे रूस यात्रा में 35 व्यक्तियों के एक समूह का नेतृत्व करेंगे, जिसमें केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय के अधिकारी और उत्तर प्रदेश के एक सचिव स्तर के अधिकारी भी शामिल होंगे. मौर्य कहते हैं, "प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुझे यह सौभाग्य प्रदान किया है और बुद्ध के अवशेषों, जिनमें उनके अंतिम अवशेष भी शामिल हैं, को रूस ले जाने वाले प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करना मेरे लिए गर्व की बात है."
जानकारी के मुताबिक अवशेषों को भारतीय वायु सेना के एक विमान से रूस ले जाया जाएगा. प्रतिनिधिमंडल 23 सितंबर को रवाना होगा. रूस के कलमीकिया गणराज्य की राजधानी एलिस्टा में यह प्रदर्शनी 24 सितंबर से शुरू होगी और 1 अक्टूबर तक चलेगी. एलिस्टा के राष्ट्रीय संग्रहालय में पिपरहवा अवशेषों पर एक शॉर्ट डॉक्यूमेंटरी भी दिखाई जाएगी.
क्या हैं पिपहरवा अवशेष
पिपहरवा अवशेषों को बुद्ध के अंतिम अवशेषों में माना जाता है. लंबे समय तक ये विदेश में रहे और 127 साल बाद जुलाई 2025 में भारत को लौटाए गए. इन अवशेषों का महत्व सिर्फ बौद्ध श्रृद्धालुओं के लिए धार्मिक आस्था से जुड़ा नहीं है, बल्कि ये भारतीय इतिहास और सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा भी हैं.
इससे पहले ये थाईलैंड और वियतनाम में भी प्रदर्शित हो चुके हैं और वहां इनके दर्शन के लिए लाखों लोगों की भीड़ उमड़ी थी. अब रूस में होने वाली प्रदर्शनी से भारत अपनी सांस्कृतिक कूटनीति को और गहरा करना चाहता है. यूपी सरकार इस मौके को स्थानीय विकास से भी जोड़ रही है. सिद्धार्थनगर के पिपहरवा स्थल को एक अंतरराष्ट्रीय तीर्थ और पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किया जा रहा है. बेहतर सड़कें, साइनेज, पर्यटक सुविधाएं और सुरक्षा इंतजाम किए जा रहे हैं. राज्य सरकार का दावा है कि अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों से पिपहरवा को वैश्विक पहचान मिलेगी.
बुद्ध बन रहे राजनीतिक नैरेटिव का हिस्सा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पूरे कार्यक्रम का नेतृत्व यूपी के डिप्टी सीएम केशव मौर्य को सौंपा. सवाल है कि आखिर क्यों? राजनीति विश्लेषक मानते हैं कि यह फैसला सिर्फ प्रशासनिक नहीं बल्कि जातीय समीकरणों को साधने की कवायद है. केशव मौर्य ओबीसी समाज से आते हैं और खुद को बुद्ध के समान वंश का बताते हैं. वे कहते हैं कि मौर्य समाज बुद्ध का वंशज है.
बीजेपी चाहती है कि आम लोगों के बीच यह संदेश जाए कि ओबीसी समाज भी बुद्ध की विरासत का असली उत्तराधिकारी है. लखनऊ यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर अजय सिंह कहते हैं, “बीजेपी को पता है कि विपक्ष संविधान और सामाजिक न्याय के मुद्दे को पिछड़े और दलित समाज में गहराई तक ले जाने की कोशिश कर रहा है. ऐसे में बुद्ध के नाम पर ओबीसी नेतृत्व को आगे बढ़ाना बीजेपी के लिए दोहरे फायदे का सौदा है. एक तरफ सांस्कृतिक धरोहर का संदेश और दूसरी तरफ सामाजिक न्याय की राजनीति का जवाब.”
बुद्ध और जातिगत पहचान
बुद्ध सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति के प्रतीक भी हैं. दलितों, पिछड़ों और कई अन्य जातियों ने उन्हें अपनी आस्था का केंद्र बनाया है. दलित समाज बुद्ध को जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक मानता है. वहीं, मौर्य और कुशवाहा समाज में यह मान्यता गहरी है कि वे बुद्ध के वंशज हैं.
यूपी और बिहार में मौर्य, कुशवाहा और निषाद जातियां बुद्ध को अराध्य मानती हैं. यही कारण है कि बीजेपी ने बुद्ध के अवशेषों के प्रदर्शन की जिम्मेदारी केशव मौर्य को देकर एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की है. राजनीति विश्लेषक और बाबा साहेब डा. भीमराव आंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में प्रोफेसराीभीसुशील पांडेय कहते हैं, “बीजेपी अच्छी तरह समझती है कि बुद्ध की विरासत पर दावेदारी सिर्फ दलित समाज की नहीं है. ओबीसी समाज में भी बुद्ध की गहरी पहचान है. इसलिए मौर्य को आगे करना बीजेपी की ओबीसी राजनीति को मजबूत करने का प्रयास है.”
विपक्ष की रणनीति और बीजेपी का जवाब
विपक्ष लगातार संविधान बचाओ और पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) की रणनीति पर जोर दे रहा है. सपा, आरजेडी और कांग्रेस इसे अपना साझा एजेंडा बना चुके हैं. संविधान और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर विपक्ष खुद को बीजेपी से अलग और मजबूत दिखाना चाहता है. बीजेपी इसका जवाब सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतीकों के सहारे देना चाहती है. बुद्ध के नाम पर ओबीसी नेता को आगे कर पार्टी संदेश देना चाहती है कि असली सामाजिक न्याय वही ला रही है.
यह रणनीति बीजेपी की उसी लाइन का विस्तार है, जिसमें वह यह दावा करती है कि बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर को सम्मान देने का काम केवल उसी ने किया है. सुशील पांडेय कहते हैं, “बीजेपी संविधान को लेकर विपक्ष के हमले को सीधे-सीधे खारिज नहीं करना चाहती. वह बुद्ध और आंबेडकर जैसे प्रतीकों के जरिए यह संदेश देती है कि सामाजिक न्याय और समानता की असली संरक्षक वही है.”
यूपी-बिहार की राजनीति पर निशाना
इस पूरे आयोजन का असर सीधे बिहार विधानसभा चुनाव पर देखने को मिलेगा. बिहार में बौद्ध धर्म के सबसे बड़े तीर्थों में से एक बोधगया है और समाज की एक बड़े तबके की इससे आस्था जुड़ी है. राज्य में मौर्य और कुशवाहा जातियों की बड़ी संख्या है. एनडीए इन जातियों को अपने पाले में रखने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है.
बीजेपी मानती है कि रूस में बुद्ध अवशेषों की प्रदर्शनी का नेतृत्व एक ओबीसी नेता के हाथ में देकर वह बिहार के पिछड़े वर्गों को बड़ा संदेश दे सकती है. बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक विश्लेषक संजीव कुमार कहते हैं, “बिहार चुनाव में ओबीसी समीकरण निर्णायक रहेंगे. मौर्य और कुशवाहा वोटर अगर एनडीए के साथ मजबूती से टिके तो विपक्ष की पीडीए रणनीति कमजोर पड़ सकती है. इसलिए बीजेपी ने यह आयोजन सिर्फ सांस्कृतिक कूटनीति नहीं बल्कि चुनावी रणनीति मानकर किया है.”
रूस में होने वाली प्रदर्शनी का महत्व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी है. यह भारत और रूस के बीच सांस्कृतिक रिश्तों को मजबूत करेगा. वहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी इस आयोजन के जरिए यह नैरेटिव आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही है कि भारत ही बुद्ध की जन्मभूमि और असली संरक्षक है. देश के भीतर यह विपक्ष के उस नैरेटिव को कमजोर करता है जिसमें वह बीजेपी को सामाजिक न्याय और संविधान का विरोधी बताता है.
बीजेपी कह रही है कि अगर सामाजिक न्याय और समानता की बात करनी है तो उसका सबसे बड़ा प्रतीक बुद्ध हैं और बुद्ध के उत्तराधिकारी ओबीसी समाज हैं. ओबीसी समाज में अपनी पैठ मजबूत करने के लिए मौर्य को आगे करना, बुद्ध को मौर्य और अन्य जातियों का अराध्य बताना और बिहार चुनाव को ध्यान में रखकर इस आयोजन को बड़े पैमाने पर प्रचारित करना, बीजेपी की सोची-समझी चाल है. आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि विपक्ष इस कदम का कैसे जवाब देता है. लेकिन इतना तय है कि बुद्ध की विरासत और पिपहरवा अवशेष अब सिर्फ सांस्कृतिक चर्चा का हिस्सा नहीं रहेंगे, बल्कि राजनीति के केंद्र में होंगे.