तमिलनाडु में बिहारी, गुजरात में बंगाली कैसे रहते हैं? भारत में भाषायी प्रवासियों पर यह स्टडी आपको चौंका देगी!
IIM अहमदाबाद के प्रोफेसर चिन्मय तुम्बे ने भारत में देसी प्रवासियों पर एक स्टडी की है, जिसमें कई दिलचस्प अनुमान सामने आते हैं

एक दशक से भी ज्यादा समय पहले भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद (IIM-A) में अर्थशास्त्र के शिक्षक प्रोफेसर चिन्मय तुम्बे ने शोध के दौरान ओडिशा में एक प्रवासी मजदूर को यह कहते सुना कि उसे काम के लिए 'विदेश' जाना है. उसका कहने का मतलब बस इतना था कि वह रोजगार के लिए गुजरात के सूरत जा रहा है.
यह संवाद प्रोफेसर तुम्बे के जेहन में बना रहा. उन्होंने 'भीतर' के उन प्रवासियों का अध्ययन शुरू किया, जिन्हें शिक्षाविदों और इस लिहाज से नीति निर्माताओं ने भी ठीक से नहीं समझा है: आंतरिक प्रवासी यानी ऐसे लोग जो भारत के दूसरे हिस्सों में चले गए हैं और जो अपनी जन्मभूमि, संस्कृति और भाषा से दूर रह रहे हैं.
प्रोफेसर तुम्बे की दलील है कि प्रवासी शब्द के दायरे का यह विस्तार दूसरी जगह स्थायी रूप से बसने को समझने में मदद करेगा और यह भी कि प्रवासी लोग किस प्रकार पीढ़ियों तक हरेक जगह के समाज और सांस्कृतिक ताने-बाने को प्रभावित करते रहते हैं.
भारत की बात करें तो घरेलू और अंतरराष्ट्रीय भाषायी प्रवासियों की संख्या 2025 में कुल मिलाकर 10 करोड़ से अधिक होने का अनुमान है. इस लिहाज से इस डेटा की व्याख्या उप-राष्ट्रीय (देश के भीतर) से अंतरराष्ट्रीय को समझने के लिए एक उपयोगी माध्यम हो सकती है.
इस अध्ययन में हर देश के भाषायी हिस्सों पर काफी मेहनत के साथ शोध किया गया है और इस शोध के जरिए भाषायी प्रवासी समुदाय का अनुमान लगाया गया है. प्रोफेर तुम्बे ने पाया कि 2010 में 6 करोड़ से अधिक भारतीय 'अंदरूनी' प्रवासी समुदायों से जुड़े थे जो देश के 'अंतरराष्ट्रीय' प्रवासी समुदाय का लगभग तीन गुना है.
प्रोफेसर तुम्बे ने इंडिया टुडे को बताया, "अंतरराष्ट्रीय प्रवासी समुदाय पर काफी काम हुआ है. लेकिन भारत के भीतर के प्रवासी समुदाय को ठीक से नहीं समझा गया है. उदाहरण के लिए तमिलनाडु में गुजरातियों पर कोई अच्छी किताब नहीं है."
उनके अध्ययन के अनुसार अकेले तमिलनाडु के मदुरै जिले में 60,000 से अधिक गुजराती भाषी हैं जो ज्यादातर देशों में भारत के प्रवासी समुदायों में रहने वाले गुजरातियों की संख्या से भी ज्यादा है. वे सदियों पहले सौराष्ट्र से आकर बसे थे और उन्होंने सोराष्ट्री नामक भाषा को जीवित रखा है. यह भी खास बात है कि प्रवासियों के रूप में गुजरातियों ( भाषायी समूह के रूप में) की आबादी भारत के अंदर विदेश की तुलना में तीन गुना अधिक है. गुजरात के बाहर, लेकिन भारत के अंदर, विदेशों की तुलना में गुजरातियों की संख्या कहीं ज्यादा है. यह बात मुंबई को छोड़ दें तो भी सच है. यह संख्या 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित है.
भारत में भाषायी पहचान के आधार पर विशाल सांस्कृतिक क्षेत्र हैं. प्रोफेसर तुम्बे के शोध से पता चला है कि कन्नड़, मराठी और बंगाली लोग भाषायी रूप से सबसे कम छितराए हुए हैं जबकि तमिल और मलयालम भाषी प्रवासी नागरिक भारत के भीतर कम हैं, लेकिन बाहर अधिक हैं.
2011 में कुल 46 लाख मलयाली प्रवासियों में से लगभग 30 लाख भारत के बाहर रहते थे जबकि लगभग 16 लाख दूसरे भारतीय राज्यों में निवास करते थे. तमिल प्रवासी 84 लाख से अधिक हैं जिनमें से लगभग 45 लाख विदेश में और 39 लाख भारत के भीतर (तमिलनाडु के बाहर) रहते हैं. इससे अंतरराष्ट्रीय समूह लगभग 1.2 गुना बड़ा हो जाता है. देश के भीतर 36 लाख गुजराती प्रवासी मौजूद हैं और 13 लाख विदेश में हैं. एक और दिलचस्प बात यह है कि देश के भीतर 31 लाख बंगाली लोग प्रवासी के रूप में बसे हुए हैं जबकि 5 लाख दूसरे देशों में हैं. 2010 में सिंधी प्रवासियों की संख्या लगभग 30 लाख होने का अनुमान था जिनका मुंबई (लगभग 4,40,000) और अहमदाबाद (1,20,000) में मजबूत आधार था और विभाजन के बाद का पाकिस्तान का सिंध क्षेत्र उनका मूल था, जहां से वे भारत आए.
इस बीच, फीसदी के लिहाज से पंजाबी प्रवासी समुदाय भाषायी रूप से सबसे अधिक फैला हुआ है और मलयाली और तमिलों से भी ज्यादा है. कुल पंजाबी भाषी आबादी का लगभग 12.4 फीसदी अपने मूल इलाके (पंजाब) से बाहर रहता है. इसके बाद 12.2 फीसदी मलयाली और 11.5 फीसदी तमिल भाषियों का स्थान है. लगभग 8.7 फीसदी गुजराती और 6.6 फीसदी मराठी अपने मूल क्षेत्र यानी क्रमशः गुजरात और महाराष्ट्र से बाहर रहते हैं.
प्रो. तुम्बे इस बात पर हैरानी जताते हैं कि अकादमिक समुदाय ने देश के भीतर प्रवासी समुदाय के अध्ययन को महत्त्व नहीं दिया. वे कहते हैं: "प्रवासी समुदाय कैसा व्यवहार करता है, यह उस इलाके के ताने-बाने पर गहरा असर डालता है. भीतर के प्रवासी समुदायों को मूलनिवासियों के मजबूत आंदोलनों के कारण राजनीतिक प्रतिक्रिया और रूढ़िवादिता का सामना करना पड़ता है. सांस्कृतिक और भाषायी एकीकरण जरूरी है, वरना संघर्ष होगा. अगर प्रवासी समुदाय के घर अलग-थलग बस्ती में बदल जाएंगे तो खतरा है."
देश के भीतर प्रवासी समुदाय का एक तिहाई हिस्सा भारत के दस सबसे बड़े शहरों- मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, हैदराबाद, बेंगलुरु, पुणे, अहमदाबाद, सूरत और जयपुर- में फैला हुआ है. प्रो. तुम्बे के विश्लेषण में मुंबई को भारत की प्रवासियों की राजधानी बताया गया है, जहां तमिलों, मलयालियों, कन्नड़भाषियों, गुजरातियों और हिंदी भाषियों के सबसे बड़े समुदाय रहते हैं. बेंगलुरु तेलुगु लोगों को लुभाता है जबकि दिल्ली बंगाली और पंजाबियों को. इससे इन शहरी केंद्रों में आर्थिक अवसरों के आकर्षण का पता चलता है.
भारत के प्रवासी समुदाय दुबई से लेकर दिल्ली तक अर्थव्यवस्थाओं को आकार दे रहे हैं, ऐसे में अध्ययन में कहा गया है कि पैसा भेजने से लेकर सांस्कृतिक आदान-प्रदान तक उनकी संभावनाओं का दोहन करने के लिए विशेष नीतियों की जरूरत है.