बांग्लादेश में सत्यजीत रे का पुश्तैनी घर क्यों माना जाता था बंगाली आधुनिकता का प्रतीक?
बांग्लादेश के मैमनसिंह शहर में सत्यजीत रे के पुश्तैनी घर को ढहाया जा रहा है. यह घर आजादी से पहले तर्क, कला और सामाजिक सुधार के मूल्यों का एक केंद्र था

बांग्लादेश का मैमनसिंह शहर अविभाजित बंगाल के समृद्ध सांस्कृतिक अतीत में पगा हुआ है. इस शहर के मध्य में बुलडोजरों ने भारतीय उपमहाद्वीप के कलात्मक पुनर्जागरण के प्रतीक एक स्मारक को ढहाना शुरू कर दिया है.
यह दरअसल उपेंद्रकिशोर रे चौधरी का घर है, जो जमींदार, अग्रणी प्रकाशक, लेखक, चित्रकार और महान फिल्म निर्माता सत्यजीत रे के दादा थे. इसे शहर का प्रशासन ध्वस्त कर रहा है ताकि वहां पर एक नए ढांचे का निर्माण किया जा सके.
ध्वस्तीकरण के इस फैसले ने कूटनीतिक बयान, भावनात्मक अपील के साथ-साथ व्यापक आक्रोश भी पैदा कर दिया है, इससे एक गहरे संकट का साया मंडरा गया है: साझा सांस्कृतिक विरासत के खात्मे का.
हरिकिशोर रे चौधरी रोड पर स्थित यह घर 36 एकड़ की संपत्ति पर खड़ा है. यह संपत्ति कभी साहित्यिक और कलात्मक उत्साह से जीवंत रहती थी. यहीं पर उपेंद्रकिशोर- सुकुमार रे के पिता और सत्यजीत रे के दादा- ने एक ऐसी रचनात्मक विरासत की कल्पना की और उसे खड़ा किया जो आखिरकार राष्ट्रीय सीमा के बाहर भी पहुंच गई. बंगाल में बाल साहित्य के जनक माने जाने वाले रे की विरासत इस क्षेत्र की सांस्कृतिक कल्पना से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है.
यह संपत्ति महज एक आवास नहीं थी. यह ऐसा परिसर थी जिसमें एक प्रार्थना कक्ष, एक कार्यक्षेत्र (प्रसिद्ध कचहरी बाड़ी), कई तालाब, बगीचे और खेल का एक मैदान होता था. यह एक ऐसे परिवार का आध्यात्मिक और कलात्मक केंद्र भी थी जो आगे चलकर बंगाल के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का पर्याय बन गया.
उपेंद्रकिशोर का बाल साहित्य में योगदान, विशेष रूप से उनकी लिखी किताब ‘टुनटुनिर बोई’ बेहद खास था और हाफटोन प्रिंटिंग में वे जो नयापन लाए वह भी क्रांतिकारी था. सुकुमार रे ने अपनी तर्कहीन कविताओं और तीखे व्यंग्य के साथ ‘अबोल तबोल’ जैसी रचनाओं के जरिए इस विरासत को और बढ़ाया. हालांकि सत्यजीत रे कभी इस पैतृक घर में नहीं आए. फिर भी यह उनकी कल्पनाओं में बना रहा क्योंकि इसकी जड़ें उनके पूर्वजों द्वारा स्थापित बौद्धिक परंपराओं से जुड़ी थीं.
अपने लेखकीय अनुभव में फिल्म निर्माता संदीप रे ने खुलासा किया कि न तो वs और न ही उनके पिता सत्यजीत रे, कभी मैमनसिंह में अपने पैतृक घर गए थे. संदीप ने बताते हैं, "न तो बाबा (सत्यजीत रे) और न ही मैंने कभी उस इमारत को वहां जाकर देखा था." उन्होंने बताया कि घर के बारे में उनको जानकारी केवल तस्वीरों से ही मिली थी.
सुकुमार रे पर अपनी डॉक्यूमेंट्री बनाते समय सत्यजीत ने शुरू में उम्मीद की थी कि वे अपने पैतृक घर की तस्वीरें इसमें शामिल करेंगे. इसके लिए उन्होंने अपने प्रोडक्शन्स से जुड़े एक करीबी सहयोगी को उस भवन की तस्वीरें लेने के लिए बांग्लादेश भेजा. हालांकि तस्वीरें मिलने पर सत्यजीत इमारत की जीर्ण-शीर्ण हालत देखकर बहुत ही निराश हुए. इसकी जर्जर हालत देखकर उन्होंने एकदम से इसका इरादा छोड़ दिया. संदीप याद करते हैं, "बाबा उन तस्वीरों का इस्तेमाल करना चाहते थे. लेकिन घर को इतनी दयनीय हालत में देखने के बाद उन्होंने उनको डॉक्यूमेंट्री में शामिल न करने का फैसला किया."
इतनी अहमियत के बावजूद भी यह संपत्ति एक दशक से ज्यादा समय से उजाड़ रही और मरम्मत न करने लायक हालत में पहुंच गई थी. 1989 से मैमनसिंह शिशु अकादमी इस इमारत से चल रही थी. उसने इसे 2007 में खाली कर दिया और किराए पर दूसरी जगह चली गई. स्थानीय अधिकारियों की दलील है कि यह सुरक्षित नहीं है इसलिए इसे गिराया जा रहा है.
जिले में बाल मामलों के अधिकारी मोहम्मद मेहदी जमां ने पुष्टि की कि घर को गिराने का फैसला मैमनसिंह के डिप्टी कमिश्नर मोफिदुल आलम की अध्यक्षता वाली एक समिति ने लिया था. उन्होंने कहा, "यह घर 10 साल से वीरान पड़ा था और शिशु अकादमी की गतिविधियां किराए की एक जगह पर चल रही थीं." उन्होंने कहा कि इस जगह गतिविधियां फिर से शुरू करने के लिए कई कमरों वाला अर्ध-कंक्रीट का नया ढांचा बनाया जाएगा. उन्होंने जोर देकर कहा कि इस परियोजना को आवश्यक मंजूरियां मिल गई हैं और आधिकारिक प्रक्रियाओं के अनुसार उस पर काम चल रहा है.
हालांकि, बांग्लादेश और भारत के इतिहासकारों, कवियों और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं ने इस कदम की निंदा करते हुए इसे अदूरदर्शी और सांस्कृतिक रूप से नुकसानदेह बताया है. ढाका और मैमनसिंह डिवीजनों के लिए बांग्लादेश के पुरातत्व विभाग की फील्ड ऑफिसर सबीना यास्मीन ने स्वीकार किया कि भले ही इस इमारत को आधिकारिक तौर पर संरक्षित सूची में नहीं रखा गया था, लेकिन सर्वेक्षणों में इसे पुरातात्विक धरोहर के रूप में पहचाना गया था. संरक्षण के उनके आह्वान को भी नजरअंदाज कर दिया गया.
भारत ने तेजी से भावनात्मक प्रतिक्रिया जताई. कठोर शब्दों वाले एक बयान में विदेश मंत्रालय ने विध्वंस पर "गहरा खेद" प्रकट किया और संपत्ति के जीर्णोद्धार के लिए तकनीकी और वित्तीय सहायता की पेशकश की. विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा, "इमारत की ऐतिहासिक स्थिति को देखते हुए, जो कि बंगाल के सांस्कृतिक पुनर्जागरण की प्रतीक है, इसे ढहाने पर पुनर्विचार की जरूरत है और साहित्य संग्रहालय तथा भारत और बांग्लादेश की साझा संस्कृति के प्रतीक के रूप में इसकी मरम्मत और पुनर्निर्माण के विकल्पों पर विचार करना बेहतर होगा. भारत सरकार इस उद्देश्य के लिए सहयोग देने को तैयार है."
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी चिंता व्यक्त की और इस खबर को ‘बेहद दुखद’ बताया. ‘एक्स’ पर एक संदेश में उन्होंने लिखा: "रे परिवार बंगाली संस्कृति के अग्रणी वाहकों में से एक है. खबरों से पता चलता है कि बांग्लादेश के मैमनसिंह शहर में सत्यजीत रे के दादा, प्रसिद्ध लेखक-संपादक उपेंद्रकिशोर रे चौधरी की स्मृतियों से जुड़े उनके पैतृक घर को ध्वस्त किया जा रहा है. कहा जा रहा है कि विध्वंस का काम पहले ही शुरू किया जा चुका है." ममता ने बांग्लादेश सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस से संपत्ति के संरक्षण के लिए कदम उठाने का आग्रह किया.
बांग्लादेश में बंगाल की सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ा यह पहला ऐसा मामला नहीं है. कुछ हफ्ते पहले पार्किंग शुल्क को लेकर हुए विवाद के बाद भीड़ ने सिराजगंज में रवींद्रनाथ टैगोर के पैतृक घर में तोड़फोड़ की तो ममता ने नई दिल्ली से इसमें दखल का आग्रह किया था. रे हवेली की तरह वह घर भी कभी बौद्धिक स्थल हुआ करता था—टैगोर अक्सर वहां आते थे और आखिरकार उसे एक संग्रहालय में बदल दिया गया.
रे के आवास को ध्वस्त करना उस घर की अमूर्त विरासत की अनदेखी करना है. यह कोई साधारण इमारत नहीं थी; यह वैचारिक विमर्श का केंद्र थी. बंगाल की आधुनिकता ने यहीं जड़ें जमाईं- यह तर्क, कला और सामाजिक सुधार के मूल्यों का एक केंद्र था, जिसे ब्रह्म समाज के आदर्शों ने पल्लवित किया और जो बच्चों की पत्रिका संदेश के माध्यम से प्रसारित हुआ. इस पत्रिका को उपेंद्रकिशोर ने शुरू किया और बाद में सत्यजीत रे ने पुनर्जीवित किया.
रे परिवार बंगाली अनुभवों का मंद पड़ा लेखक नहीं, बल्कि उसके निर्माताओं में से एक था. उनके काम पश्चिम बंगाल की शिक्षा व्यवस्था की नींव हैं और स्कूली पाठ्यक्रम में औपचारिक रूप से शामिल न होने के बावजूद बांग्लादेश में व्यापक रूप से पढ़े और संजोए जाते हैं. यह एक साझा विरासत है, महज भारतीय या बांग्लादेशी नहीं.
अब वही विरासत खतरे में है. जिस तरह रवींद्र कचहरीबाड़ी प्रशासनिक उदासीनता और जन हिंसा के कारण लगभग खत्म हो गई, उसी तरह रे हवेली के भी गुमनामी में खो जाने का खतरा है. एक बार नष्ट हो जाने के बाद किसी भी तरह का पुनर्निर्माण इसकी प्रामाणिकता या भावनात्मक अहसास को बहाल नहीं कर पाएगा.
फिलहाल, इमारत के कुछ हिस्सों को पहले ही गिराया जा चुका है. अगर तुरंत दखल नहीं दिया गया तो बाकी हिस्सों को भी ढहा दिए जाने की संभावना है. भारत की पेशकश बरकरार है. लेकिन अभी किसी तरह का औपचारिक समझौता नहीं हुआ है. बांग्लादेश की अंतरिम सरकार पर अभी तक किसी भी अपील, चाहे वह कूटनीतिक हो या भावनात्मक, का कोई असर नहीं हुआ है.
दांव पर महज एक हवेली की किस्मत नहीं, बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक पहचान का संरक्षण लगा है. इस घर को गिराने से एक पीढ़ी का उस कल्पनाशील, सुधारवादी भावना से नाता टूट जाने का जोखिम है जिसने बंगाल के पुनर्जागरण को प्रेरणा दी थी.
सत्यजीत रे के पैतृक घर का विध्वंस- चाहे थोड़ा हो या पूरा ही- केवल विरासत गंवा देने का मामला नहीं है. यह स्मृतियों को छोड़ देने का मामला है. और एक ऐसे उपमहाद्वीप में जहां पहचान अक्सर स्मृतियों पर निर्भर करती है.