छत्तीसगढ़ से पहले माओवाद के खिलाफ लड़ाई में आंध्र प्रदेश कैसे बना था रोल मॉडल?

सुरक्षाबलों को छत्तीसगढ़ में माओवाद के खिलाफ लगातार सफलता मिल रही है लेकिन सालों पहले माओवाद के खिलाफ सफलता की ऐसी ही कहानी आंध्र प्रदेश में दोहराई गई थी

Anti-Naxal operation
माओवादियों के खिलाफ सुरक्षाबलों की कार्रवाई (AI से बनी फोटो)

मई की 21 तारीख को छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ के जंगलों में सुरक्षा बलों और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ हुई, जिसमें सुरक्षा बलों ने 30 नक्सलियों को मार गिराया है.

तलाशी अभियान जारी होने की वजह से इस ऑपरेशन को लेकर सुरक्षाबलों ने अभी कोई जानकारी नहीं दी है. हालांकि, सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक इस ऑपरेशन में एक सुरक्षाकर्मी की मौत हुई है और एक जवान घायल हुआ है.  

सूत्रों का दावा है कि अबूझमाड़ मुठभेड़ में अब तक कुल 30 नक्सली मारे जा चुके हैं, जिनमें शीर्ष नक्सली नेता 1 करोड़ का इनामी नंबाला केशव राव उर्फ ​​बसव राज भी शामिल है.

पिछले महीने भी सुरक्षाबलों के ऑपरेशन में 31 नक्सली मारे गए 

इससे पहले केंद्रीय और राज्य सुरक्षा बलों ने छत्तीसगढ़-तेलंगाना सीमा पर कर्रेगुट्टा पहाड़ियों के आसपास घने जंगलों में 21 दिनों तक चले व्यापक अभियान में कम से कम 31 नक्सलियों को मार गिराया था. 

CRPF के महानिदेशक जीपी सिंह और छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) अरुण देव गौतम ने बताया कि 21 अप्रैल से शुरू हुए 21 दिनों के अभियान के दौरान बलों ने 31 माओवादियों के शव बरामद किए हैं, जिनमें से 28 की पहचान कर ली गई.

दरअसल, छत्तीसगढ़ में सुरक्षाबलों के जिस ऑपरेशन में 30 माओवादी मारे गए हैं, उसकी बुनियाद सालों पहले आंध्र प्रदेश में रखी गई थी. आज माओवाद को हराने वाले आंध्र प्रदेश के उसी मॉडल के बारे में जानते हैं.

माओवाद को हराने वाला आंध्र प्रदेश का मॉडल क्या है?

2013 में 10 राज्यों के 126 जिले वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित थे, जबकि अप्रैल 2024 तक 9 राज्यों के सिर्फ 38 जिले उग्रवाद से प्रभावित रह गए. इससे पता चलता है कि वामपंथी उग्रवादी हिंसा का भौगोलिक प्रसार काफी हद तक कम हो गया है.  

इस बात को इस उदाहरण से भी समझ सकते हैं कि वामपंथी उग्रवाद से संबंधित हिंसा की रिपोर्ट करने वाले पुलिस स्टेशनों की संख्या 2010 में 465 से घटकर 2023 में 171 हो गई है, जबकि इसी अवधि में घटनाओं में 73 फीसद की महत्वपूर्ण गिरावट आई है.

इन घटनाओं में सुरक्षा बलों और नागरिकों की मौतें 2010 में 1,005 से घटकर 2023 में 138 हो गई हैं. इसके अलावा, 2024 की शुरुआत से ही सुरक्षा बलों ने वामपंथी उग्रवाद को छोटे से क्षेत्र में सिमटने को मजबूर कर दिया है.

वामपंथी उग्रवाद से निपटने के लिए इससे प्रभावित राज्यों ने मिलकर समन्वित अंतरराज्यीय पहल की शुरुआत 2000 के दशक में की. इस समय आंध्र प्रदेश में सक्रिय खूंखार पीपुल्स वार ग्रुप (पीडब्लूजी) ने कई उत्तरी और पूर्वी राज्यों में मौजूद माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) के साथ विलय कर लिया था.

माओवादी संगठनों के आपस में मिलने के बाद सीपीआई (माओवादी) ने एक 'लाल गलियारा' विकसित किया, जो दक्षिण में आंध्र प्रदेश से शुरू होकर कई राज्यों के पिछड़े क्षेत्र के जंगलों और खनिज-समृद्ध जगहों से होकर गुजरता था.

1967 में नक्सलबाड़ी से शुरू होने के बाद आंध्र प्रदेश में ही पीपुल्स वार ग्रुप को सबसे ज्यादा सफलता हासिल हुई थी. अगले 40 सालों तक यह ग्रुप अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के रूप में फैल गया. माओवादियों ने छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में लगातार विस्तार किया.

हालांकि, माओवादियों के विस्तार और वर्चस्व को रोकना एक ठोस रणनीति के जरिए ही संभव हो पाया, जो अविभाजित आंध्र प्रदेश के अनुभवों से विकसित हुई.1980 के दशक में आंध्र प्रदेश ने आतंकवाद विरोधी कार्रवाई के साथ ही साथ युवाओं को हिंसा के रास्ते से दूर करने के जो प्रयास किए, उससे बाकी राज्यों को काफी कुछ सीखने को मिला.  

सबसे पहले आंध्र प्रदेश ने छिपकर माओवादी विचारधारा का प्रचार करने वाले लोगों की पहचान करने और माओवादी संगठनों, उनके कार्यकर्ताओं से जुड़ी जानकारी हासिल करने के लिए एक विशेष खुफिया तंत्र स्थापित किया.

स्पेशल कमांडो ‘ग्रेहाउंड्स’ ने नक्सलियों को घुटने टेकने के लिए किया मजबूर

इसके साथ ही 1989 में आंध्र प्रदेश पुलिस ने माओवादियों से लड़ने के लिए ‘ग्रेहाउंड्स’ नाम से एक स्पेशल कमांडो बल बनाया. इन्हें जंगलों में माओवादियों से निपटने के लिए गुरिल्ला युद्ध में प्रशिक्षित किया.

माओवादी जनप्रतिनिधियों, पुलिस कर्मियों और पुलिस मुखबिर होने के संदेह में लोगों को गोली मारकर वापस जंगल चले जाते थे. इनसे निपटने के लिए अब राज्य पुलिस के पास जंगलों में लड़ने में माहिर एक प्रशिक्षित टीम थी. हालांकि, 2023 में ‘ग्रेहाउंड्स’ की स्थापना करने वाले आईपीएस अधिकारी के.एस. व्यास की हैदराबाद में शाम के समय गोली मारकर हत्या कर दी गई.

गुरिल्ला और जंगल युद्ध में प्रशिक्षित ‘ग्रेहाउंड्स’ को माओवादियों के आसान टारगेट बनने से बचने के लिए छोटे समूहों में तैनात किया जाता था. ‘ग्रेहाउंड्स’ जल्द ही आंध्र प्रदेश में माओवादी गतिविधिओं को रोकने में अहम भूमिका निभाने लगा.

‘ग्रेहाउंड्स’ युद्ध में प्रभावी बने रहें, यह सुनिश्चित करने के लिए 35 साल की उम्र पूरी करने वाले जवानों को राज्य की सामान्य या नियमित पुलिस विभाग में ट्रांसफर कर दिया जाता था. इस तरीके ने काफी असरदार परिणाम दिखाए और अन्य राज्यों ने भी इसी तरह के माओवादी विरोधी बलों को खड़ा करने के लिए आंध्र मॉडल को फॉलो किया.

आंध्र प्रदेश के विशेष खुफिया नेटवर्क और अधिक प्रभावी ढंग से जानकारी हासिल करने की उसकी महारथ देखते हुए बाकी राज्यों ने भी अपने यहां ऐसे खुफिया नेटवर्क तैयार किए. माओवादी नेतृत्व पर मूल रूप से राज्य के लोगों का वर्चस्व था, इसलिए राज्य के खुफिया नेटवर्क ने उनसे जुड़ी जानकारी हासिल करने में अहम भूमिका निभाई.

2014 में तेलंगाना के आंध्र प्रदेश से अलग होने के बाद भी माओवादियों के खिलाफ पहले की तरह ही कार्रवाई जारी रही. आत्मसमर्पण करने वाले वामपंथी उग्रवादी खुफिया जानकारी हासिल करने में अहम भूमिका निभाने लगे. इतना ही नहीं बुजुर्ग माओवादी सदस्य जब इलाज के लिए कभी-कभी हैदराबाद आते तब भी जानकारी मिलते ही पुलिस उनसे खुफिया जानकारी हासिल करती थी.

सिर्फ कार्रवाई नहीं बल्कि आंध्र प्रदेश ने पिछड़े क्षेत्रों में विकास पहल को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर भी ध्यान केंद्रित किया, ताकि माओवादियों और उनके समर्थकों को सामाजिक-आर्थिक असमानताओं का हवाला देकर गांव के भोले-भाले लोगों के बीच अपने समर्थन जुटाने से रोका जा सके.

माओवादी विभिन्न राज्यों में स्थानीय लोगों विशेष रूप से आदिवासी समुदाय का समर्थन प्राप्त करने में सफल रहे हैं, जिनका मानना ​​है कि उनका शोषण किया गया है और देश की आर्थिक वृद्धि से उन्हें अछूता छोड़ दिया गया है.

सिस्टम के खिलाफ जनजातीय असंतोष मुख्य रूप से वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 से उत्पन्न हुआ, जो आजीविका के लिए वन संसाधनों पर निर्भर जनजातियों को पेड़ों की छाल काटने से भी रोकता है.

जनजातियों को माओवादियों का समर्थन करने के लिए प्रेरित करने वाला एक और कारण खनन सहित नई विकास परियोजनाओं को यहां शुरू करना था. इसके कारण जनजातीय आबादी का विस्थापन हुआ.

लोगों में सरकार के प्रति गुस्सा था, जिसका फायदा माओवादियों ने उठाया. परिणाम ये हुआ कि स्थानीय लोग माओवादियों को लेकर सहानुभूति रखने लगे और वो उन्हें अनाज और सूचना देने लगे.

आंध्र सरकार ने इस बात को समझा और आदिवासी क्षेत्र में उन्हें सशक्त बनाने के साथ उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में सुधार पर विशेष ध्यान देना शुरू किया. ऐसा करने से इस क्षेत्र के लोगों में माओवादी प्रभाव को कम करने में सरकार को मदद मिली.

आंध्र प्रदेश में इस नीति के सफल होने पर वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित बाकी राज्यों ने भी ऐसी नीति लागू करने का फैसला किया, जिसमें माओवादियों के गढ़ों को तोड़ने के लिए पुलिस कार्रवाई के साथ आर्थिक विकास को भी जोड़ा गया.

परिणाम ये हुआ कि आंध्र प्रदेश की तरह ही बाकी राज्यों में भी उग्रवादी आत्मसमर्पण करने को मजबूर हुए. इससे क्षेत्र में माओवादियों की ताकत घटी. ऐसा माना जा रहा है कि माओवादी संगठनों में नई भर्ती नहीं होने और हथियार, गोला-बारूद की कमी के कारण वामपंथी उग्रवादी कैडर अब इस लड़ाई में आखिरी पायदान पर पहुंच गए हैं.

इतना ही नहीं वामपंथी उग्रवादी विश्लेषक माओवादी संगठन और कैडरों में वैचारिक स्पष्टता की कमी की ओर भी इशारा करते हैं. जैसा कि उनमें से एक ने कहा, "सुरक्षा बलों की मजबूत कार्रवाई से माओवादी पूरी तरह से कमजोर हो गए हैं. जब तक जंगलों में उग्रवादियों के खिलाफ अभियान जारी है, तब तक खुद को बचाने के लिए उग्रवादियों द्वारा अपनाया जाने वाला तरीका ही यह तय करेगा कि भविष्य में उनकी मौजूदगी होगी या नहीं." 

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