‘तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था'
प्रदर्शनकारियों और सीएए-एनआरसी के विरोधियों के बीच फ़ैज़ के बाद संभवतः दूसरे सबसे ज्यादा पसंदीदा शायर हबीब जालिब हैं. 1928 में होशियारपुर में पैदा हुए हबीब जालिब इंकलाबी शायरी करते थे.

सीएए-एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों में पुराने और नए शायरों के इंकलाबी नज्मों और शेरों को गुनगुनाया जा रहा है. उनकी शायरी में लोगों की दिलचस्पी बढ़ गई है और उन्हें लगता है कि वे उनकी भावनाओं को बहुत सटीक अंदाज में बयान करते हैं. इन नज्मों-शेरों का इस्तेमाल हमख्याल लोगों में जोश-जज्बा भरने के लिए भी हो रहा है
प्रदर्शनकारियों और सीएए-एनआरसी के विरोधियों के बीच फ़ैज़ के बाद संभवतः दूसरे सबसे ज्यादा पसंदीदा शायर हबीब जालिब हैं. 1928 में होशियारपुर में पैदा हुए हबीब जालिब इंकलाबी शायरी करते थे.
फ़ैज़ ने उन्हें जनता का शायर कहा था. उनकी नज्म ‘दस्तूर' को एक तरफ गाया जा रहा है, वहीं उसे सोशल मीडिया पर खूब शेयर किया जा रहा है.
पूरी नज्म पढ़ेंः
दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से
ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो
इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ
चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ
तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
इसके अलावा, उन्होंने जनरल ज़ियाउल हक की तानाशाही के खिलाफ एक मशहूर नज्म लिखी जिसे अलग-अलग लोगों ने गाया है. पहली ही लाइन में कहते हैं, ‘ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना'.
जुल्मत यानी अंधकार को ज़िया यानी रोशनी या प्रकाश क्या लिखना. उन्होंने जनरल ज़िया के बारे में लिखा कि इक शख़्स के हाथों मुद्दत से रुस्वा है वतन दुनिया-भर में लेकिन आज लोग इसका संदर्भ बदलकर किसी और को निशाने पर ले रहे हैं.
यही नहीं, वे अपने मुल्क के फनकारों को भी जालिमों पर अपने फन न वारने की सलाह देते हैं. सीएए-एनआरसी विरोधी इसे अपनी तर्जुमानी करते पाते हैं.
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
पत्थर को गुहर दीवार को दर कर्गस को हुमा क्या लिखना
इक हश्र बपा है घर में दम घुटता है गुम्बद-ए-बे-दर में
इक शख़्स के हाथों मुद्दत से रुस्वा है वतन दुनिया-भर में
ऐ दीदा-वरो इस ज़िल्लत को क़िस्मत का लिखा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
ये अहल-ए-हश्म ये दारा-ओ-जम सब नक़्श बर-आब हैं ऐ हमदम
मिट जाएँगे सब पर्वर्दा-ए-शब ऐ अहल-ए-वफ़ा रह जाएँगे हम
हो जाँ का ज़ियाँ पर क़ातिल को मासूम-अदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
लोगों पे ही हम ने जाँ वारी की हम ने ही उन्ही की ग़म-ख़्वारी
होते हैं तो हों ये हाथ क़लम शाएर न बनेंगे दरबारी
इब्लीस-नुमा इंसानों की ऐ दोस्त सना क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
हक़ बात पे कोड़े और ज़िंदाँ बातिल के शिकंजे में है ये जाँ
इंसाँ हैं कि सहमे बैठे हैं खूँ-ख़्वार दरिंदे हैं रक़्साँ
इस ज़ुल्म-ओ-सितम को लुत्फ़-ओ-करम इस दुख को दवा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
हर शाम यहाँ शाम-ए-वीराँ आसेब-ज़दा रस्ते गलियाँ
जिस शहर की धुन में निकले थे वो शहर दिल-ए-बर्बाद कहाँ
सहरा को चमन बन को गुलशन बादल को रिदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
ऐ मेरे वतन के फ़नकारो ज़ुल्मत पे न अपना फ़न वारो
ये महल-सराओं के बासी क़ातिल हैं सभी अपने यारो
विर्से में हमें ये ग़म है मिला इस ग़म को नया क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
और जालिब का यह शेर भी प्लैकार्ड पर दिख जाता है. दरअसल, जालिब ने इनसानी फितरत का बहुत बारीकी से अध्ययन किया है. वे किसी को नहीं बख्शते, किसी तरह के नेता को नहीं. बस, आम लोग की बात करते हैं और उन्हीं की भावनाओं को शब्दों में ढालते हैं. काल और स्थान कोई भी हो, उनकी बातें हमेशा सटीक बैठती हैं. सीएए-एनआरसी विरोधियों को मौजूदा हाकिम तानाशाह लगते हैं और वे अपनी बात कहने के लिए जालिब के शेर उधार लेते हैं.
तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था
उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था
जालिब ने सत्ता विरोधी नज्में लिखी हैं, लिहाजा आज के दौर में उन्हें सर्वाधिक उद्धृत किया जाना स्वाभाविक है. इन सबके अलावा, दूसरे शायरों की नज्म और शेर भी प्लैकार्ड पर दिख जाएंगे.
इन्हें सोशल मीडिया पर भी शेयर किया जा रहा है. मिसाल के तौर पर मजरूह सुल्तानपुरी की एक नज्म की पहली दो लाइनों को पोस्टर पर देखा जा सकता है.
सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चराग़
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले
यही नहीं, आजादी से पहले लिखे गए शेर भी प्लैकार्ड पर दिख जाएंगे, जिनमें बिस्मिल अज़ीमाबादी का सबसे ज्यादा उद्धृत शेर है. इसे स्वतंत्रता सेनानियों ने भी गाया है.
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है
दूसरी तरफ, चूंकि यह नागरिकता और घर द्वार से जुड़ा मामला है तो आज के लोकप्रिय शायर राहत इंदौरी का एक शेर खूब चल रहा है. इसे मंच पर अक्सर लोग बोल देते हैं.
लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में
यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है
इस गजल के दूसरे शेरों के अलावा राहत इंदौरी के वीडियो भी शेयर किए जा रहे हैं.
नाइंसाफी की भावना को जाहिर करने वाला अमीर क़ज़लबाश का यह शेर सोशल मीडिया पर शेयर किया जा रहा है.
उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़
हमें यक़ीं था हमारा क़ुसूर निकलेगा
इन शेरों और नज्मों के जरिए लोग अपनी भावनाएं व्यक्त कर रहे हैं. इससे वे अपने साथियों में जोश-जज्बा भर रहे हैं. इन सबके अलावा, नई नज्में भी लिखी जा रही हैं और रैप के वीडियो भी आ रहे हैं, जिनका जिक्र अगली बार करेंगे.
जारी...
(मोहम्मद वक़ास इंडिया टुडे के सीनियर एडिटर हैं)
***