जज्बात का चितेरा
सत्यजित रे (1921-1992) यथार्थवादी सिनेमा का वास्तुशिल्पी

आधुनिक भारत के निर्माता/ गणतंत्र दिवस विशेष
सत्यजित रे की तमाम फिल्मों में कुछ साझा खूबियां हैं जो आम तौर पर मुख्यधारा के हिंदुस्तानी सिनेमा में दिखाई नहीं देतीं. ये सभी फिल्में यथार्थवादी हैं, हालांकि उनके संदर्भ और पृष्ठभूमि बहुत अलग-अलग हैं, जो गांव से लेकर शहरों तक ऐतिहासिक से लेकर समकालीन तक फैली हैं. फिल्म की सिनेमाई बारीकियों पर, खास तौर पर उनके दिखाई और सुनाई देने वाले हिस्सों पर, जिस कदर ध्यान दिया गया है, वह रे के सिनेमा की सबसे ताकतवर खूबियों में से एक है.
रे के किरदार जटिल शख्सियतें हैं जो निजी गफलतों और दुविधाओं से जूझ रहे हैं. ये गफलतें अक्सर उलझी हुई यौन इच्छाओं और घर के भीतर पारिवारिक रिश्तों को लेकर हैं, तो साथ ही ज्यादा बड़े सामाजिक मुद्दों से जूझने को लेकर भी हैं. वे इनसानी जज्बात को परत-दर-परत खोलने के लिए संवादों पर निर्भर करने की बजाए अपनी धीमी शैली में चेहरों, देह और भाव-भंगिमाओं पर फोकस करते हैं. उनकी फिल्में प्यार का अध्ययन हैं—केवल रूमानी प्यार ही नहीं, बल्कि परिवार के भीतर प्यार की और ज्यादा बड़ी दुनिया में दोस्ती की. उनके किरदार प्यार की तलाश करते हैं, उसे पाते हैं, अक्सर खो देते हैं और फिर साझा वजूद के नए मायने तलाशते हैं. इन फिल्मों की इनसानियत के तजुर्बे से गुजरने के बाद आप ज्यादा समृद्ध और ज्यादा उदात्त महसूस करते हैं.
(लेखिका एसओएएस, लंदन में भारतीय संस्कृति और सिनेमा की प्रोफेसर हैं)
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