बिहारः पुलिस में ही बगावत

प्रशिक्षु जवानों की बगावत ने पुलिस महकमे में सुलग रहे गुस्से को किया उजागर.

नाराजगीः दो नवंबर को हिंसक प्रदर्शन के बाद तोड़फोड़ का नजारा
नाराजगीः दो नवंबर को हिंसक प्रदर्शन के बाद तोड़फोड़ का नजारा

बिहार पुलिस में सब कुछ ठीक-ठाक नजर नहीं आता. पुलिस के बड़े अफसरों के साथ प्रशिक्षु जवानों के 2 नवंबर को हुए टकराव के बाद राज्य पुलिस मुख्यालय ने अभूतपूर्व कड़ा कदम उठाया और 4 नवंबर को 175 कांस्टेबलों को बरखास्त कर दिया. इनमें 167 नए भर्ती और आठ नियमित रंगरूट शामिल हैं. मगर पुलिस मुख्यालय को कहीं ज्यादा गहरी जांच-पड़ताल करने की जरूरत है कि आखिर कांस्टेबलों को अपने आला अफसरों पर भरोसा क्यों नहीं है और किन वजहों से यह नौबत आई.

हिंसा में शामिल लोगों के अलावा पुलिस प्रशासन ने 23 पुलिसकर्मियों को निलंबित भी किया है. इनमें दो ट्रैफिक पुलिसकर्मी भी हैं जो प्रशिक्षु जवानों के कल्याण की देखरेख का काम कर रहे थे. मगर यह कार्रवाई नाकाफी नजर आती है.

दरअसल, 2 नवंबर को देर शाम पटना पुलिस लाइंस के करीब 400 पुलिसकर्मियों ने, जिनमें ज्यादा बड़ी तादाद महिलाओं की थी, अपने बड़े अफसरों के खिलाफ बगावत कर दी. उन्होंने वरिष्ठ अफसरों के साथ हिंसक बदसुलूकी की, सरकारी घरों में तोडफ़ोड़ की, करीब 20 पुलिस वाहनों को तोड़-फोड़ दिया और बड़े पैमाने पर पत्थरबाजी की. इसमें पुलिस उप-अधीक्षक (पुलिस लाइंस) के बॉडीगार्ड सहित कई पुलिसकर्मियों को चोटें आईं. महिला जवानों के इस हिंसक उपद्रव से बिहार पुलिस को भारी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी और उसकी छवि को बट्टा लगा.

कांस्टेबल अपनी साथी सविता पाठक की मौत से नाराज थे और उसके बाद ही उन्होंने यह हिंसक प्रदर्शन किया. 21 वर्षीया प्रशिक्षु कांस्टेबल सविता की मौत 2 नवंबर को अलस्सुबह पटना के एक निजी नर्सिंग होम में हो गई थी. कांस्टेबलों ने वरिष्ठ पुलिस अफसरों पर आरोप लगाया कि उन्होंने सविता को इलाज के लिए छुट्टी देने में देरी की.

सविता की साथियों के मुताबिक, वह पिछले कुछ दिनों से बीमार थी और मौत के तीन दिन पहले अपनी ड्यूटी के दौरान बेहोश भी हो गई थी. उसे पटना के करगिल चौक पर ट्रैफिक ड्यूटी के लिए तैनात किया गया था जहां उसे खराब सेहत के बावजूद नियमित ड्यूटी देनी पड़ रही थी. उसके परिवार के सदस्यों ने भी बड़े अफसरों पर लापरवाही और क्रूरता बरतने का आरोप लगाया है.

सविता को 31 अक्तूबर को निजी अस्पताल में भर्ती करवाया गया था. जब उसकी सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ तो उसे वापस पुलिस लाइन लाया गया जहां 1 नवंबर की रात को उसकी हालत और बिगड़ गई. अगले दिन सुबह उसे आनन-फानन उदयन अस्पताल ले जाया गया, मगर जल्दी ही तकरीबन 6 बजे के आसपास उसकी मौत हो गई. शुरुआती मेडिकल रिपोर्टों से पता चलता है कि वह गंभीर एनीमिया (खून की कमी) और सेप्टीसीमिया (खून के संक्रमण) से पीडि़त थी. उसके ल्यूकोसाइट की गिनती गिरकर 2.83 लाख पर आ गई थी, जो बहुत ही कम थी. सीवान की रहने वाली सविता इस साल अगस्त में कांस्टेबल के बतौर पुलिस में शामिल हुई थी. जाहिरा तौर पर उसे इलाज में देरी की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ी.

कांस्टेबलों के एक धड़े ने आरोप लगाया है कि सविता का मामला कोई अलग-थलग मामला नहीं है. एक प्रशिक्षु महिला कांस्टेबल ने बताया, ‘‘कई प्रशिक्षु कांस्टेबल ऐसी ही हालत से गुजर रहे हैं. उनकी छुट्टी केवल तभी मंजूर की जाती है जब वे इमरजेंसी की हालत में पहुंच जाते हैं.

यह अमानवीय है.’’ बात सिर्फ इतनी ही नहीं है. प्रशिक्षु जवानों ने यह भी आरोप लगाया है कि उन्हें बेहद दयनीय हालात में रहने के लिए मजबूर किया जाता है. 50 जवानों को एक ही बैरक में रखा जाता है और खाना भी बहुत खराब दिया जाता है. उनके प्रशिक्षण का कार्यक्रम भी बहुत सख्त है. यही वजह है कि कई महिला कांस्टेबल परेड ग्राउंड में तकरीबन हर रोज बेहोश हो जाती हैं.

कई प्रशिक्षुओं ने कहा कि उन्हें महज 10 दिनों की ट्रेनिंग दी गई और फिर पुलिस गश्त में, ट्रैफिक चौराहों पर और वीआइपी आवागमन को संभालने के लिए तैनात कर दिया गया. जाहिर है, उन्हें अपने करियर की शुरुआत के साथ ही बिना पूरे प्रशिक्षण के चुनौती भरे हालात में काम करना पड़ता है.

यह सही है कि सविता की मौत और उसके बाद हुए हिंसक उपद्रवों ने पटना पुलिस लाइन की तरफ लोगों का ध्यान खींचा है, पर पुलिस प्रशासन और खास तौर पर महिला कांस्टेबलों पर नियंत्रण रखने वाला प्रशासन लंबे समय से अप्रिय सुर्खियों में रहा है.

कांस्टेबलों के उपद्रव से महज दो दिन पहले ही बिहार मिलिटरी पुलिस (बीएमपी) के सूबेदार शंभू शरण राठौड़ को निलंबित करके उसके खिलाफ एफआइआर दर्ज की गई थी, क्योंकि एक प्रशिक्षु महिला कांस्टेबल ने उस पर अपने दफ्तर में छेड़छाड़ करने का आरोप लगाया था. तब भी सैकड़ों महिला प्रशिक्षु कांस्टेबल इकट्ठा हो गई थीं और उन्होंने आपराधिक मामला दर्ज करने के साथ ही आरोपी को फौरन गिरफ्तार करने की मांग की थी.

एक बड़े आइपीएस अफसर कहते हैं कि आला अफसरों, खासकर ड्यूटी रोस्टर तय करने वालों, को महिला कांस्टेबलों के प्रति संवेदनशील बनाना ही होगा. राज्य पुलिस बल में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की बदौलत महिला कांस्टेबलों और सब-इंस्पेक्टरों की तादाद बढऩा तय ही है.

इससे पहले इस साल मार्च में पता चला कि 200 की खासी तादाद में पुलिसकर्मी पुलिस लाइंस से पिछले एक साल से 'गायब' हैं. इसके अलावा, पाया यह भी गया कि अन्य 300 जवानों ने महीनों से कोई ड्यूटी ही नहीं की थी. विडंबना कि ये सभी 500 जवान अपनी नियमित तनख्वाह हासिल कर रहे थे.

इन घटनाओं के बाद बिहार पुलिस मुख्यालय में खतरे की घंटी बज ही जानी चाहिए. बिहार पुलिस के डायरेक्टर जनरल (डीजीपी) के.एस. द्विवेदी ने अपने मातहतों से कहा है कि वे बगावत सरीखी घटनाओं को रोकने के तरीके निकालें. लेकिन जांच इसकी भी होनी चाहिए कि बड़े अफसर अपने कांस्टेबलों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं. जांच इस बात की भी होनी चाहिए कि वरिष्ठ अफसर कांस्टेबलों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं.

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