नए दौर के दलित: साड्डा हक, एत्थे रख
दलित युवाओं की नई पीढ़ी अब अपने हुनर और हौसले से हर क्षेत्र में मजबूत दस्तक देने लगी है और पिछली पीढिय़ों के उलट अपनी जाति पहचान का भी गर्व से इजहार कर रही.

दलित उत्पीडऩ की गंध जब देश की सियासी फिजा में छाई हुई है, जब कथित गोरक्षकों के उत्पात से गुजरात के उना से लेकर देश के लगभग हर हिस्से से दलितों की पिटाई से दलित मुद्दा नए सिरे से सबसे प्रमुख हो गया है, ऐसे दौर में दलित युवाओं की नई पीढ़ी अपने हुनर और हौसले के बल पर जाति की हदों को तोड़कर आगे बढऩे का गजब का जज्बा लेकर सामने आई है. आत्मविश्वास से लबरेज ये युवा हर क्षेत्र में पूरे दमखम के साथ स्थापित सत्ताओं को चुनौती दे रहे हैं और अपनी अलग राह बना रहे हैं. गीत-संगीत, फिल्म, कला, साहित्य से लेकर प्रशासनिक सेवा, अकादमिक क्षेत्र, उद्यमिता, सामाजिक क्षेत्र, छात्र राजनीति—हर क्षेत्र में ये झंडे गाड़ रहे हैं. ये युवा पिछली पीढिय़ों के उलट अपनी जाति पहचान का भी गर्व से इजहार करते हैं. यह बहुत कुछ वैसा ही है जब अमेरिका में अश्वेतों ने खेल से लेकर गीत-संगीत, फिल्म वगैरह में अपने धमाकेदार प्रदर्शनों से झंडे गाडऩे शुरू किए थे और गोरों को चुनौती देने के लिए 'ब्लैक इज ब्यूटीफुल' का नारा दिया था.
यही जज्बा बाकी क्षेत्रों में भी दिख रहा है. मसलन, पंजाब में कथित ''आंबेडकर फोक या चमार पॉप'' उभरकर आया है, और गिन्नी माही उसकी झंडाबरदार बनी हुई हैं. उनके अभी तक दो एल्बम गुरपूरब है कांशी वाले द और गुरां दी दीवानी आ चुकी हैं. यूट्यूब पर इनके 50,000 से 75,000 व्यू हैं. उनके गीतों में पंजाबी लोकगीतों की झलक है तो बाबा साहेब आंबेडकर और गुरु रविदास के संदेश. वे उस पीढ़ी की प्रतीक हैं जिन्होंने आंबेडकर के संदेशों को सिर्फ किताबों में पढ़कर भुलाया नहीं बल्कि उन्हें अपने और दूसरों का जीवन बदलने का मंत्र माना है. तभी तो मैं फैन बाबा साहेब की गाने को यूट्यूब पर 65,000 व्यू मिल चुके हैं. वे कहती हैं, ''आज हमारे सभी अधिकार बाबा साहेब की देन हैं. मैं पढ़ सकती हूं, गा सकती हूं, जो चाहे कर सकती हूं. मैंने बाबा साहेब की सोच के साथ शुरुआत की है और इसे आगे बढ़ाना चाहूंगी.'' गिन्नी के पिता एयर टिकटिंग का काम करते हैं और मां गृहिणी हैं. उनके दो छोटे भाई हैं.
पंजाब में ऐसे गीतों की परंपरा 1980 के दशक से देखने को मिलती है, लेकिन जिस तरह की देशव्यापी लोकप्रियता और कामयाबी गिन्नी को मिली, वह कुछ समय पहले असंभव-सी थी. एक दलित गायक बताते हैं, ''1980-90 के दशक में हमारे लिए चीजें इतनी आसान नहीं थीं. सोशल मीडिया और इंटरनेट ने जिंदगी बदल दी है. कोई भी अपनी बात रखने के लिए आजाद है. मुझे तो अपना पहला कैसेट निकालने में दस साल लग गए था.'' बेशक हालात बदले हैं. इसे गिन्नी भी मानती हैं. वे कहती हैं, ''मेरे गाने हर उस शख्स के लिए हैं जो अन्याय झेल रहा है.'' उनके इरादे बुलंद हैं. वे कहती हैं, ''मुझे बॉलीवुड में प्लेबैक सिंगिंग करनी है और वहां एटम बम बनकर छा जाना है.''
दलित गायकी परंपरा में मिस पूजा का नाम भी लिया जा सकता है. वे पंजाब समेत दुनिया भर में जाना-पहचाना चेहरा हैं और बॉलीवुड में अपने सुरों का कमाल दिखा चुकी हैं. यूट्यूब पर उनके गानों को 50-50 लाख तक व्यू हैं. उन्होंने अपने समुदाय की खातिर आवाज उठाने से लेकर हर तरह के गीत गाए हैं. हालांकि सूफी गायक हंसराज हंस मानते हैं कि जाति संबंधी पहचान को गायकी में नहीं आने देना चाहिए. वे कहते हैं, ''जिसने भी समाज को जाति में बांटा, वह शातिर, जालिम और पापी रहा होगा. हमारी बदकिस्मती है कि हर शै बंटती जा रही है, संगीत ही बचा है, उसे नहीं बंटने देना चाहिए.''
दलित अस्मिता की यही रौ फिल्मों में मराठी डायरेक्टर नागराज मंजुले ने दिखाई है. महाराष्ट्र के सोलापुर के इस डायरेक्टर ने कुछ समय से भारतीय सिनेमा से गायब दलित कहानियों को धमाकेदार अंदाज में पेश किया है. उनकी फिल्म फंड्री में जाति के जंजाल में उलझे किशोर की एकतरफा प्रेम कहानी है तो सैराट उसका विस्तार है. उसमें लड़की का किरदार दमदार तरीके से दिखाया गया है. इसी वजह से रिंकू राजगुरु को 2015 के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया है. फंड्री ने जो भूमिका बनाई, वह सैराट का आधार बनी. 4 करोड़ रु. में बनी सैराट ने 80 करोड़ रु. से ज्यादा का कारोबार किया. दमदार कहानी और बढिय़ा निर्देशन की बदौलत यह प्रादेशिक भाषा की सबसे सफल फिल्मों में शामिल हो गई. आखिर इसमें ऐसा क्या था? मंजुले ने फिल्म की सफलता पर कहा था, ''मेरी फिल्मों में असल जिंदगी की बातें हैं.''
समाज में जारी इस खदबदाहट को दिखाने का काम तमिल डायरेक्टर पा रंजीत ने भी किया. उन्होंने रजनीकांत जैसे बड़े सितारे को लेकर कबाली बनाई और दलितों की आवाज बुलंद की. वे मानते हैं कि मुख्यधारा के सिनेमा में सामाजिक संदेश लिए फिल्म बनाना आसान नहीं है. उनके मुताबिक, ''हमें ऐसी फिल्में बनाने की जरूरत है जिनमें सामाजिक संदेश के साथ व्यावसायिक कामयाबी हासिल करने की कुव्वत भी हो.'' उनका इरादा ऐसी और फिल्में बनाने का है, ''मैं इन कहानियों को रोजाना की हकीकत और लैंडस्केप के आईने में पेश करना चाहता हूं.''
प्रशासनिक सेवा प्रवेश परीक्षा, 2015 के नतीजे भी दलित युवाओं की कामयाबी की कहानी कहते हैं. इसकी टॉपर और कोई नहीं बल्कि दलित समुदाय की 22 वर्षीया टीना डाबी हैं. प्रशांत कहते हैं, ''दलित युवा अब हर क्षेत्र में कामयाबी हासिल कर रहे हैं. लेकिन दलितों की यह सफलता सवर्ण हिंदुओं को चुभ रही है. टीना डाबी को भी टॉप करने के बाद कई फेक अकाउंट्स से ट्रॉल किया गया.'' टीना आर्थिक रूप से मजबूत परिवार से हैं और उनकेमाता-पिता, दोनों इंजीनियर हैं. पहले प्रयास में अव्वल आने वाली टीना ने हरियाणा काडर चुना था और वह वहां महिला सशक्तीकरण के लिए काम करना चाहती थीं लेकिन किन्हीं कारणों से उन्हें राजस्थान काडर मिला.
प्रशांत 2011-12 में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में छात्र संघ के अध्यक्ष भी चुने गए थे. यह दलित छात्रों की अब अपने हकों के लिए नेतृत्व की भूमिका में आने की कहानी बयान करता है. पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में एएसए जैसे दलित छात्र संगठनों की आमद ने उन्हें अलग प्लेटफॉर्म मुहैया कराया है और वे मुख्यधारा में मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं. आइआइटी-मद्रास में आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्कल, अन्य संस्थानों में उसके चैप्टर और दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बिरसा-आंबेडकर-फुले स्टुडेंट्स एसोसिएशन (बीएएफएसए) जैसे संगठन इसी ओर इशारा करते हैं. प्रशांत कहते हैं, ''छात्र राजनीति में दलित युवाओं की मौजूदगी दिख रही है पर नेतृत्व में उनका अभाव है. दलित छात्रों के मसले बाकियों से अलग हैं. कई छात्र संगठन दलित मसलों को सही से नहीं उठाते, न नेतृत्व देते हैं, इसलिए दलितों के खुद के संगठनों की जरूरत है.''
एक्टिविज्म में भी सक्रियता
गोरक्षा के नाम पर पिछले दो साल में मुसलमानों और दलितों के उत्पीडऩ के कई मामले सामने आ चुके हैं लेकिन गुजरात में उना की घटना से पहले इसके खिलाफ कोई आंदोलन खड़ा नहीं हुआ. लेकिन इस घटना का वीडियो वायरल होते ही मानो सामाजिक-राजनैतिक भूचाल आ गया. यहां तक कि गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को इस्तीफा तक देना पड़ा. हालांकि उना में दलितों का आंदोलन स्वतरूस्फूर्त था और दलित युवाओं की सामूहिक भागीदारी थी. लेकिन इसमें 35 वर्षीय जिग्नेश मेवानी का नाम भी सुर्खियों में है. इस आंदोलन में उनका एक अहम नारा था, ''गाय की लूम (पूंछ) आप रखो, हमें हमारी जमीन दो.''
रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद उठे बवंडर के दौरान भी जिग्नेश ने गुजरात के अहमदाबाद में प्रदर्शन में अहम भूमिका निभाई थी. जिग्नेश उना की घटना के खिलाफ आंदोलन के लिए बनी उना दलित अत्याचार लड़त समिति के संयोजक हैं और अहमदाबाद से उना तक की विरोध पदयात्रा का नेतृत्व कर रहे हैं. जाहिर है, जिग्नेश सरीखे युवा कार्यकर्ता दलित चेतना की नई इबारत लिख रहे हैं.
रोहित वेमुला आत्महत्या, उना दलितों की पिटाई या मई, 2015 में आइआइटी-मद्रास में एपीएससी पर प्रतिबंध, सभी मामलों में सोशल मीडिया की महती भूमिका रही. उना की 11 जुलाई की घटना और उसके बाद दलितों के प्रदर्शन को मीडिया में प्रमुखता नहीं मिल रही थी. लेकिन दलितों के प्रदर्शन और सरकारी दफ्तरों में मरी हुई गायों को फेंकने की तस्वीरें जैसे ही सोशल मीडिया पर वायरल हुईं, यह देशभर की मीडिया की अहम सुर्खियां बन गईं. सोशल मीडिया पर जोरदार तरीके से मौजूद 30 वर्षीय युवा वेद प्रकाश का कहना है, ''सोशल मीडिया नहीं होता, तो दलितों के ये मामले राष्ट्रीय मुद्दा न बन पाते. इसके जरिए दलितों को अपनी बात कहने की आजादी मिली है.'' वेद प्रकाश बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के मीडिया मैनेजर रह चुके हैं और अब बिहार के एक मंत्री के लिए यह जिम्मेदारी निभा रहे हैं.
हालांकि दलितों को अब भी लंबी दूरी तय करनी है. जवाहरलाल नेहरू विवि के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज में प्रोफेसर विवेक कुमार का कहना है, ''टीना डाबी या इन अन्य दलित युवाओं की कामयाबी अपवाद ही है. देश के मुख्य सात संस्थानों—न्यायपालिका, राजनीति (सरकार), अफसरशाही, उच्च शिक्षा, उद्योग, मीडिया और सिविल सोसाइटी—में उच्च पदों पर बाकियों का वर्चस्व है और दलित नदारद हैं. उन्हें आबादी के मुताबिक प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए.'' फिर भी दलित युवाओं में आया नया जोश उम्मीद जगाता है.