कैराना: सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की नई प्रयोगशाला
मुजफ्फरनगर दंगों की तरह इस बार पलायन को तिल का ताड़ बनाकर हिंदू-मुस्लिम खाई खींचने की व्यापक तैयारी.

भारत बदल रहा है, अब उत्तर प्रदेश की बारी है. दिल्ली से पश्चिम उत्तर प्रदेश की तरफ बढ़ें तो हाइवे के दोनों तरफ गन्ने के खेतों में तने विशाल होर्डिंगों पर यह इबारत आपका ध्यान खींचती है. दरअसल, सरकारी विकास पर्व मना रही बीजेपी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए इसी इबारत को अपना नारा बनाया है. और नारे की जद में पहली बारी आई है मुजफ्फरनगर दंगों से बच निकले शामली जिले के कैराना कस्बे की. शास्त्रीय संगीत का किराना घराना देने वाले कैराना कस्बे में 8 जून तक जिंदगी आम के बागीचों की खुशबू, टाकीजों में चलती 1990 के दशक की फिल्मों और अंदर-बाहर सवारियों से ठसा-ठस भरे टेंपुओं में विलंबित लय में चल रही थी. तभी मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी बीजेपी सांसद हुकुम सिंह एक सूची लेकर आ गए, जिसमें दावा किया गया कि मुसलमानों के डर से हिंदू कैराना और कांधला जैसे कस्बे छोड़-छोड़कर भाग रहे हैं. रमजान के महीने में दिनभर थूक तक न गटकने वाले रोजेदार जब तक यह समझ पाते कि आखिर उन्होंने अपने हिंदू भाइयों पर इतना जुल्म कब कर दिया, तब तक तो बात पूरी दुनिया में फैल चुकी थी.
कैराना सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के एकदम नए प्रयोग की प्रयोगशाला बन चुका था.
ऐस में सबसे पहले कैराना कोतवाली के ठीक सामने इलेक्ट्रिकल्स की दुकान चलाने वाले आरिफ से मुलाकात की. उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, ''आप तो बहुत देर में आए हैं, अब तक तो सचाई सबके सामने आ चुकी है.'' उनकी बात में दम है. अब तक एक तरफ तो वे खबरें आई थीं जिनमें हिंदुओं के पलायन को पुष्ट किया गया था, तो दूसरी तरफ वे खबरें आई थीं जिनमें कहा गया कि पलायन वाली सूची झूठ का पुलिंदा है और जहां पलायन हुआ भी है तो उसकी वजह सांप्रदायिक नहीं. खुद बीजेपी ने भी इस मामले में दोहरी जुबान बोली. सूची जारी करने वाले हुकुम सिंह ने बाद में मान लिया कि मामला सांप्रदायिक उत्पीडऩ का नहीं है, लेकिन वे मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश भी करते रहे. वहीं बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने घोषणा की कि अब हर जिले में ऐसी सूचियां बनाई जाएंगी. यानी कैराना उत्तर प्रदेश में बीजेपी के मिशन 265 प्लस की शुरुआत भर है.
हम चौक बाजार होते हुए आगे बढ़े. बाजार में अच्छी खासी चहलपहल थी. शहर भले ही मुस्लिम बहुल है, लेकिन यहां हिंदुओं की खूब दुकानें हैं. मस्जिद की ज्यादातर दुकानें भी हिंदुओं के पास ही हैं. असल में पश्चिमी यूपी के बाकी शहरों की तरह यहां भी कारोबार का सबसे बड़ा हिस्सा जैन और वैश्य समुदाय के पास ही है. और ज्यादातर मामलों में बड़ी रंगदारी का शिकार भी इसी संपन्न तबके को होना पड़ता है. बाजार में आगे बढ़े तो सरस्वती शिशु मंदिर और गौशाला के पास ईश्वर चंद मित्तल का दोमंजिला मकान आ गया. हुकुम सिंह की लिस्ट में पलायन करने वालों में सबसे पहला नाम इन्हीं का है. सामने ही सार्थक एजेंसी के नाम से उनकी कोल्डड्रिंक की एजेंसी भी है. गल्ले पर बैठे राधेश्याम शर्मा ने बताया, ''कभी इस फर्म में 300 आदमी काम करते थे अब तो 10-20 आदमी भी नहीं हैं. गुंडागर्दी के डर से मित्तल परिवार कैराना छोड़ 28 किमी दूर पानीपत सैटिल हो गया है, बस यही दुकान बची है. '' इसी बीच मित्तल के बेटे नितिन भी आ गए. शुरू में हिचक के बाद उन्होंने कहा, ''मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह हिंदू-मुस्लिम मामला है, लेकिन आप देखिए कि परेशान करने वाले कौन हैं और परेशान होने वाले कौन हैं. '' लेकिन कैराना और कांधला की सूचियां देखें तो उसमें कोल्डड्रिंक के कई व्यापारियों के नाम हैं. एक व्यापारी ने बताया कि सरकार ने एक साहब को राज्यमंत्री का दर्जा दे रखा है. इनके बेटे ने भी कोल्डड्रिंक की एजेंसी खोल ली है. बाकी कोल्डड्रिंक एजेंसियों का उत्पीडऩ किया जा रहा है. यानी मामला राजनैतिक संरक्षण में उत्पीडऩ का बताया जा रहा है, न कि सांप्रदायिक उत्पीडऩ का.
पलायन के अलावा यहां दूसरा मुद्दा हिंदू व्यापारियों की हत्या का भी उछाला गया. यहां लंबे समय तक मुबीन गिरोह का आतंक रहा. इस गिरोह ने तीन व्यापारियों के अलावा छह से अधिक मुसलमानों को भी मारा था. इस खूंखार गिरोह के चार सदस्य एनकाउंटर में मारे जा चुके हैं, जबकि करीब 24 सदस्य जेल में बंद हैं. इस मुद्दे पर बीएसपी नेता साजिद सिद्दीकी कहते हैं, ''व्यापारियों की हत्या के खिलाफ पूरा कैराना बंद रहा था. क्या उस समय मुसलमानों की दुकानें बंद नहीं थीं. दो साल पुराने मामले को आखिर अब किस नीयत से उठाया जा रहा है. ''
कैराना वाले इसकी एक वजह हुकुम सिंह की राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं भी मानते हैं. कैराना में गुर्जर समुदाय का वर्चस्व है. यहां हिंदू और मुस्लिम दोनों तरह के गुर्जर हैं. इन्हीं दोनों को साथ लेकर हुकुम सिंह ने 1974 में कांग्रेस की राजनीति शुरू की थी. बाद में वे चौधरी चरण सिंह के साथ चले गए. उस समय तक वे खांटी सेकुलर छवि के नेता थे. और अंत में राजनैतिक हवा देखकर 1994 में वे बीजेपी में आ गए. मुजफ्फरनगर दंगों में दाग लगवाने के बाद वे विधायक की जगह सांसद बन गए, लेकिन उनकी तुलना में संजीव बालियान और संगीत सोम जैसे नेता कहीं आगे बढ़ गए. एक केंद्र में मंत्री बन गए तो दूसरे को जेड श्रेणी की सुरक्षा मिल गई. सहारनपुर की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सब नेताओं का नाम लिया, लेकिन बाबूजी का नाम भूल गए. ऐसे में पलायन की सूचियों के जरिए उन्होंने पार्टी में अपनी पूछ बढ़ाई. अटकलें ये भी हैं कि वे अपनी बेटी को विधानसभा चुनाव लड़वाने के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं.
लेकिन राजनैतिक जमीन की इस जुताई के बीच स्थानीय समाजवादी पार्टी विधायक पूरी तरह खामोश हैं. सूचियां भले ही पिट गई हों, लेकिन हिंदू-मुस्लिम एकता के नारों के बावजूद समुदायों के बीच बढ़ता दुराव किसी से छुपा नहीं है. अब यह मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर है कि क्या उन्होंने मुजफ्फरनगर से ऐसा कोई सबक सीखा है, जो इसका दोहराव हर सूरत में रोकेगा. और बहुत कुछ दारोमदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी है जिन्होंने हाल ही में अमेरिकी कांग्रेस में भारतीय संविधान और आजाद भारत के संस्थापकों के मूल्यों पर चलने का वचन दोहराया था. संविधान में इस तरह की प्रयोगशालाओं के लिए गुंजाइश नहीं है, क्या मोदी इसे बंद करा पाएंगे?