क्या बिहार के बंदूक कारखानों की हालत सुधार पाएगा डिफेंस कॉरिडोर?
बिहार की नई सरकार के डिफेंस कॉरिडोर खोलने के फैसले ने मुंगेर के लगभग बेरोजगार हथियार उद्यमियों में एक उम्मीद जगाई है. क्या सचमुच इस उद्योग को नीतीश सरकार की निगहबानी हासिल होगी?

हमारे अंदर यह क्षमता है कि हम राइफल, पिस्टल, बंदूक हर हथियार बना सकते हैं. देश में कहीं कोई हथियार खराब हो जाता है तो ठीक कराने के लिए हमारी फैक्टरी में आता है. यह हमारा टैलेंट है. लेकिन आज मुंगेर के बंदूक कारखाने को इतना उपेक्षित कर दिया गया है कि वर्कर दाने-दाने को मोहताज हैं.
मालिकों का भी बुरा हाल है. यहां 37 फर्में हैं पर चालू बमुश्किल 2-3 ही हैं.'' ओमप्रकाश शर्मा के इन शब्दों में मुंगेर के 263 साल पुराने बारूद वाले हथियार निर्माण उद्योग का गौरव भी है और सरकारी उपेक्षा के कारण इसकी बदहाली का दर्द भी. वे पिछले 50 साल से इस कारखाने में बतौर कारीगर काम करते हैं.
एक दशक पहले तक काम के मारे इनके पास घर जाने की भी फुरसत नहीं होती थी. अब महीने में 15 दिन भी काम मिल जाए तो खैर मनाइए. ओमप्रकाश मुंगेर के एक औद्योगिक परिसर में चल रहे इन कारखानों के तकरीबन ढाई हजार मजदूरों में से एक हैं. वे खुशकिस्मत हैं कि उन गिने-चुने 50-60 मजदूरों की सूची में शामिल हैं, जिन्हें आज भी काम के लिए बुलावा आ जाता है. बाकी मजदूर तो पूरी तरह बेरोजगार हो चुके हैं.
उनमें कोई रिक्शा चला रहा है तो कोई टेंपो, किसी ने राज मिस्त्री का पेशा पकड़ लिया है तो कोई दिहाड़ी मजदूर बन गया है. कभी-कभार काम पाने वाले 50-60 मजदूरों में से भी अब ज्यादातर रोजी-रोटी के लिए दूसरे पेशे अपनाने लगे हैं.
कुछ इस तरह की तस्वीर है मुंगेर के बंदूक कारखानों की है. नब्बे के दशक में यहां बंदूकों के इतने ऑर्डर आते थे कि माल सप्लाइ कर पाना मुश्किल होता था. इन कारखानों की वजह से मुंगेर शहर में बंदूक की सौ से ज्यादा दुकानें चलती थीं. यहां पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान तक से लोग बंदूक खरीदने आते थे. आज दो-तिहाई से ज्यादा दुकानों पर ताला लग गया है.
शहर की मॉर्गन आर्म्स कंपनी के मालिक ठाकुर नरेश सिंह उस बीते दौर को याद करते हैं, ''उन दिनों बंदूक बनाना-बेचना रॉयल बिजनेस हुआ करता था. हम लोगों की डिमांड पूरी नहीं कर पाते थे. फिर आया 2016 का साल, जब देश की आर्म्स पॉलिसी बदल गई. उस बदलाव ने मुंगेर के बंदूक कारोबार को अर्श से फर्श पर ला दिया. यह दुकान चलाने के साथ-साथ हम बंदूक बनाने की एक को-ऑपरेटिव फर्म के भी मेंबर थे, जिसे सालाना 1,869 बंदूकें बनाने की इजाजत थी. आज हम लोग एक भी बंदूक नहीं बना पा रहे. ऑर्डर ही नहीं है तो बनाकर करें क्या?''
ऑर्डर नहीं, नई बंदूकें बन नहीं रहीं और इन कारखानों में तैयार हजारों बंदूकें पड़ी-पड़ी खराब हो रही हैं. एकड़ भर में फैले एक अनाम-से कैंपस में 3-4 कतारों में, एक ही आकार के 36 भवन बने नजर आते हैं. ज्यादातर बंद पड़े हैं. उन पर बस फैक्ट्रियों के नाम की तख्तियां टंगी हैं. बमुश्किल 3-4 कारखाने खुले नजर आते हैं. इनमें से कहीं बैरल की पॉलिशिंग, तो कहीं बट तैयार हो रहा होता है.
बस एक कारखाना थोड़ा गुलजार दिखता है, जहां 8-10 मजदूर काम करते दिखते हैं. इसी कैंपस में मिले ओरिएंटल आर्म्स के मालिक कालीचरण शर्मा कहते हैं, ''हमने अपने कारखाने में आखिरी बंदूक 2018 में बनाई थी. तब से हमने कोई नया काम नहीं किया है. हमारे यहां अभी भी 150 से ज्यादा बंदूकें पड़ी हैं. ये निकल जाएं तब तो हम नई बंदूक बनाएं.'' वहीं मिले, गिरधारी ऐंड संस के राजकुमार शर्मा ने अपनी कंपनी में 2012 के बाद कोई नई बंदूक नहीं बनाई. विजय शर्मा की कंपनी तो 2002 से बंद पड़ी है. वे अब दूसरी कंपनी में मजदूरी करते हैं.
एक अन्य कंपनी के संदीप शर्मा बताते हैं, ''मेरी कंपनी में करीब 500 बंदूकें तैयार पड़ी हैं. और यह सिर्फ हम लोगों का हाल नहीं. इस कैंपस में बंदूक की 37 प्राइवेट और एक को-ऑपरेटिव फर्म के पास कुल मिलाकर 6,000-7,000 बंदूकें बनी पड़ी हैं. 2016 के नए आर्म्स एक्ट के बाद ऑर्डर आना बहुत काफी कम हो गया. हमें साल में 12,352 बंदूकें बनाने का कोटा मिला है पर हम 7-8 साल से सालाना बमुश्किल 500-1,000 बंदूकें ही बना पा रहे हैं.'' संदीप इन बंदूक फैक्ट्रियों के संगठन द गन मैन्युफैक्चरर्स लाइसेंसी एसोसिएशन के संयुक्त सचिव भी हैं.
आखिर 2016 के आर्म्स ऐक्ट में ऐसा क्या था, जिससे एक-एक करके मुंगेर के सभी बंदूक कारखानों पर ताला लगने लगा? वे हमें विस्तार से बताते हैं, ''आजादी से पहले पूरे हिंदुस्तान में बंदूकें बनाने वाले कुल 108 परिवार थे. आजादी के बाद उन्हें बंदूक बनाने का लाइसेंस दिया गया और 2016 तक एक तरह से इन्हीं परिवारों का बंदूक निर्माण पर एकाधिकार रहा है. इनमें से सबसे ज्यादा 40-42 जम्मू-कश्मीर में और उसके बाद 36 परिवार मुंगेर के थे. उन्हें सन् 1762 में बंगाल के तत्कालीन नवाब मीर कासिम ने बसाया था, जब वे बंगाल की राजधानी को मुर्शिदाबाद से बदलकर मुंगेर लाए थे. कुछ परिवार असम, मणिपुर, राजस्थान, एमपी और यूपी वगैरह से भी रहे हैं.''
ईस्ट इंडिया कंपनी से जमकर लोहा लेने वाले इस नवाब को शायद इल्हाम हो गया था कि अंग्रेजों को हराना है तो बारूद वाले हथियार और खासकर बंदूकों की जरूरत होगी. उन्होंने अपने आर्मेनियन सेनापति गोरगिन खान की मदद से मुंगेर में अफगान तोपचियों और बंदूक बनाने में निपुण भारतीय लोहारों-बढ़इयों की बस्ती बसाई.
मीर कासिम ज्यादा देर तक अंग्रेजों का मुकाबला नहीं कर पाया और मुंगेर को बंगाल की राजधानी होने का गौरव भी छिन गया. मगर इन कारीगरों की वजह से मुंगेर बाद के दिनों में बिहार के एक औद्योगिक शहर के रूप में उभरा है. यहां बंदूक निर्माण का कुटीर उद्योग तो था ही. अंग्रेजों ने पहला रेल कारखाना भी मुंगेर के जमालपुर में खोला. फिर सिगरेट की फैक्ट्री भी खुली जिसे बाद में आइटीसी ने टेकओवर कर लिया. इस शहर में हथियार निर्माण का सिलसिला तभी से जारी है.
शहर के कासिम बाजार, चुआ बाग और कुछ दूसरे मोहल्लों में बंदूक बनाने वाले कारीगर आज भी रहते हैं. एक तोपखाना बाजार भी है. संदीप बताते हैं, वहां अफगान तोपचियों की बस्ती हुआ करती थी. तभी से बंदूक निर्माण में मुंगेर की लगभग मोनोपॉली थी. वे मुंगेर में बन रही बंदूकों की 1908 की एक तस्वीर दिखाते हैं, जो कलकत्ता के सर्वे ऑफ इंडिया ऑफिस से उन्हें मिली. ठाकुर नरेश सिंह जोड़ते हैं, ''नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने बड़ी संख्या में नए लोगों को बंदूक रखने का लाइसेंस देना शुरू किया तो वहां से लोग बंदूक के लिए मुंगेर आने लगे.
डिमांड इतनी बढ़ गई कि फिक्स कोटा होने के कारण हम उन्हें बंदूक दे नहीं पाते थे.'' बकौल संदीप, ''उस दौर की कमाई से आज तक बंदूक निर्माता खा-पी रहे हैं, इस मंदी में बचे हुए हैं.'' वह दौर एक-डेढ़ दशक में बीच गया. बिक्री घटने लगी. 2016 में पहली बार ऐसा हुआ कि बंदूकों और व्यक्तिगत इस्तेमाल के हथियारों के निर्माण को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया. अब एक झटके में देश में 650 कंपनियां इस क्षेत्र में आ गई हैं. इनमें बड़े-बड़े कॉर्पोरेट भी हैं.
राजकुमार शर्मा की मानें तो नए और पुराने लाइसेंस देने में भी भेदभाव हुआ. ''हम जैसे पुराने हथियार निर्माताओं को सिंगल बैरल और डबल बैरल बंदूकें बनाने का ही अधिकार है और मुंगेर की सभी 37 कंपनियां साल में 12,352 ही बंदूकें बना सकती हैं जबकि नई कंपनियां राइफल, पिस्टल और दूसरे सभी हथियार बना सकती हैं. उन पर कोटे की कोई सीमा नहीं.'' असली दिक्कत आम लोगों को हथियार रखने का लाइसेंस देने के नियम की वजह से है. पहले एक व्यक्ति के पास तीन हथियार रखने के लाइसेंस को अब दो का कर दिया गया है. ''ऐसे में लोग राइफल और पिस्टल खरीदना पसंद करते हैं, जिन्हें हम बना नहीं सकते. हमारी बंदूकें लेने को अब कोई तैयार नहीं.''
नए कानून में नए लाइसेंस धारकों को बिना कोटा लिमिट के हर तरह के हथियार बनाने की इजाजत मिलती है, यह देखते हुए इन फैक्ट्री मालिकों ने एक कोशिश की कि इन्हें भी पिस्टल, राइफल और दूसरे आधुनिक हथियार बनाने का लाइसेंस मिल जाए. उन्होंने मिलकर बी-कैलीवर नाम से एक कंपनी बनाई.
राजकुमार शर्मा बताते हैं, ''कंपनी को लाइसेंस मिलने की प्रक्रिया लगभग पूरी हो गई थी, बस मुंगेर जिला प्रशासन को रिपोर्ट देनी थी कि सुरक्षा के लिहाज से यहां कोई दिक्कत नहीं होगी. मगर जिला प्रशासन ने नकारात्मक रिपोर्ट दे दी, जिससे हमें लाइसेंस नहीं मिला.'' इस बारे में पूछने पर मुंगेर के डीएम निखिल धनराज निप्पणीकर कहते हैं, ''यह पुराना मामला है. हमारे पास फिर से इस लाइसेंस के रिव्यू के लिए पत्र आया है जिस पर विचार चल रहा है. जो कुछ भी होगा, कानून के दायरे में होगा.''
कारोबार बचाने को यहां के बंदूक निर्माता कई तरह के बदलाव करते हुए अब पिस्टल ग्रिप वाली बंदूक भी बना रहे हैं. उसमें बंदूक के पीछे लगा बट पिस्टल जैसा होता है, साथ ही 12 बोर के पंप ऐक्शन वाली बंदूक भी बनाई गई है. इसमें एक बार में सात गोलियां लोड करके चलाई जा सकती हैं.
मुंगेर के बंदूक कारखानों के मालिक इन दिनों फिर से सजग हो रहे हैं. इसकी वजह है बिहार में डिफेंस कॉरिडोर के निर्माण की खबरें. नई सरकार ने अपनी पहली ही कैबिनेट में राज्य में डिफेंस कॉरिडोर के निर्माण का ऐलान किया है. यानी राज्य में प्रतिरक्षा से जुड़े हथियारों का निर्माण बड़े पैमाने पर हो सकता है. इस ऐलान के बाद इन हथियार निर्माताओं को लगता है कि ढाई सौ साल से ज्यादा पुराने अनुभव और यहां के कुशल शस्त्र कारीगरों को देखते हुए सरकार को उनकी मदद लेनी चाहिए और इस परियोजना में उन्हें भी भागीदार बनाना चाहिए.
संदीप शर्मा का दावा है, ''बिहार में डिफेंस कॉरिडोर के लिए मुंगेर से बेहतर कोई जगह नहीं है. यहां बड़ी संख्या में कुशल मजदूर पहले से हैं. बड़ी कंपनियों के यहां हथियार निर्माण के लिए आने पर उन्हें आसानी से कुशल मजदूर मिल जाएंगे. हम बंदूक कारखानों के मालिक अपनी भूमिका इस कॉरिडोर में एन्सिलरी यूनिट के तौर पर देखते हैं. हमारे अनुभव को देखते हुए सरकार को हमसे बड़े हथियार के छोटे पुरजे बनाने का सहयोग लेना चाहिए. सरकार मौका दे तो हम लोग सामूहिक तौर पर हथियार निर्माण की एक बड़ी कंपनी भी खड़ी कर सकते हैं.''
पिछली सरकार में उद्योग मंत्री रहे नीतीश मिश्र ने 14 जुलाई, 2025 को इस बाबत एक पत्र रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को लिखा था. उस पत्र में उन्होंने मुंगेर की शस्त्र निर्माण की परंपरा का विस्तार से जिक्र करते हुए मुंगेर के बंदूक कारखाना परिसर में इन उद्यमियों की मदद से प्रतिरक्षा से जुड़े हथियारों का निर्माण कराए जाने का आग्रह किया था. इससे पहले 8 अप्रैल, 2025 को उन्होंने बिहार में डिफेंस कॉरिडोर खोले जाने की भी मांग रक्षा मंत्री से की थी. 22 जुलाई को राजनाथ सिंह ने पत्र से जवाब दिया कि इस मामले में जांच कराई जा रही है.
बिहार में डिफेंस कॉरिडोर खोलने का फैसला तो नई सरकार ने कर लिया है और ऐसा लगता है कि यह मुंगेर में ही खोला जा सकता है. मुंगेर के डीएम निप्पणीकर कहते हैं, ''हम इसके लिए जमीन ढूंढ रहे हैं. असरगंज के पास हमें कुछ जमीन मिली भी है.'' मगर क्या इस परियोजना में मुंगेर के स्थानीय बंदूक निर्माताओं की भी कोई भूमिका होगी? उनके शब्दों में, ''यह पॉलिसी डिसीजन है. केंद्र और राज्य सरकार के स्तर पर इसका फैसला होगा.''
पर उद्योग मंत्री डॉ. दिलीप जायसवाल कहते हैं, ''डिफेंस कॉरिडोर कहां खुलेगा, उसका फैसला अभी नहीं हुआ है. 15 दिसंबर को हमारी एक बैठक में जगह का फैसला होगा.'' लेकिन मुंगेर के बंदूक कारखानों के बारे में ''अभी मुझे बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है.'' जाहिर है, इन हथियार निर्माताओं के लिए इंतजार की घड़ियां लंबी होने वाली हैं.