क्या BMC में अघाड़ी से अलग होकर अपने बूते चुनाव लड़ेगी कांग्रेस?

महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार के फिर एक होने और उद्धव की बढ़ती छाप ने कांग्रेस को BMC चुनाव के लिए अघाड़ी से अलग होने को उकसाया है

महाअघाड़ी के नेता आपस में बात करते हुए. (Photo: ITG)
महाअघाड़ी के नेता आपस में बात करते हुए. (Photo: ITG)

महा विकास अघाड़ी (एमवीए) तब कुछ और ज्यादा 'अघाड़ी' की तरह दिखने लगा जब ठाकरे बंधु अपनी दो दशक लंबी रंजिश विधिवत खत्म करके एक-दूजे के नजदीक आ गए. वैसे तो यह वही भावनात्मक टॉनिक होना चाहिए था, जिसकी नागरिक निकायों के बेहद अहम चुनाव से पहले एमवीए को जरूरत थी.

मगर थोड़ा नाटक और ऐंठ-अकड़ न हों तो वह विपक्ष का मोर्चा ही क्या? तो कांग्रेस की बदौलत वह मौका भी आ गया और ग्रैंड ओल्ड पार्टी अगले साल की शुरुआत में होने वाले चुनाव के मुंबई अध्याय के लिए जाहिरा तौर पर गठबंधन के साथ जाने के बारे में दोबारा विचार कर रही है.

इसलिए बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) के लिए होने वाले सरगर्म मुकाबलों में उम्मीद से कहीं ज्यादा गर्दा उड़ता दिखेगा. वैसे भी सत्तारूढ़ महायुति और एमवीए दोनों ही अपने आप में असहज त्रिभुज हैं. वहीं, कांग्रेस अब त्रिभुज का भगोड़ा कर्ण होगी.

दरअसल, यह फैसला अपने मूल मतदाताओं को खो देने के उसके डर से उपजा है. उसकी राय में कुछेक अंतर्विरोधी कुठाराघातों की वजहों से ऐसा हो सकता है. पहला, खासकर साल 2019 में भाजपा-विरोधी राजनीति से जुड़ने के बाद शिवसेना (यूबीटी) के नेता उद्धव ठाकरे की नरम छवि की बदौलत उनकी पार्टी को मुसलमानों और दलितों के बीच नई स्वीकार्यता मिली है.

इससे कांग्रेस का खजाना खाली हो जाता है. साथ ही उसे यह डर है कि कट्टरपंथी राज ठाकरे की नजदीकी की वजह से उत्तर भारतीय मतदाता उससे दूर हो सकते हैं. कांग्रेस को लगता है कि एमवीए के घेरे में राज ठाकरे की मौजूदगी से मुसलमान मतदाता भी थोड़े उलझन में पड़ सकते हैं.

एमएनएस का होना 
यह कहना अतार्किक और अजीब लग सकता है कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) कांग्रेस से तो मतदाताओं को दूर भगाएगी, जबकि रिश्ते सुधारने वाली असल पार्टी शिवसेना (यूबीटी) से नहीं. मगर कौन कहता है कि राजनीति में उलटबांसी नहीं हो सकती, या निस्वार्थ राष्ट्रीय पार्टी में स्वार्थी जरूरतें पैदा नहीं हो सकतीं.

कांग्रेस के एक बड़े नेता कहते हैं, ''यूबीटी को हमारे वोटों का फायदा मिलता है, जबकि उसके वोटर उसी हद तक हमारा समर्थन नहीं करते.'' फिर उनकी असल बात: ''हम अपने वोटरों को एकजुट करना चाहेंगे ताकि वे यूबीटी को वोट देने के आदी न हो जाएं.''

विधानसभा चुनाव में मुंह की खाने के बाद यूबीटी के लिए बीएमसी पर नियंत्रण बनाए रखना बेहद जरूरी हो गया है—74,000 करोड़ रुपए के बजट के साथ आखिर यह भारत का सबसे धनवान नागरिक निकाय जो है. इतिहास गवाह है कि निगम पर नियंत्रण से शिवसेना को अपने कार्यकर्ताओं के लिए 'इनाम की अर्थव्यवस्था' को पालने-पोसने में बहुत मदद मिली.

यूबीटी के नेता मानते हैं कि अब यह खतरे में पड़ गया है. मराठी और मुसलमान गठजोड़ की बदौलत उसे मुंबई में लोकसभा की तीन और विधानसभा की अपनी 20 सीटों में से 10 जीतने में मदद मिली.

कामकाजी तबके के मराठी अविभाजित शिवसेना का मूल आधार थे. वहीं, भाजपा अगड़ी जातियों के मराठियों और गुजराती, मारवाड़ी, जैन और उत्तर भारतीय सरीखे गैर-मराठी धड़ों के आसरे है. बदलती जनसांख्यिकी की वजह से शिवसेना की पुरानी मूलवासी समर्थक नीति हाल के दिनों में बहुत फायदेमंद नहीं रह गई है.

एमएनएस के एक सूत्र स्वीकार करते हैं कि ये धड़े भाजपा के करीब आ गए हैं. मराठी गोलबंदी का नतीजा जवाबी गोलबंदी में हो सकता है. यही नहीं, साल 2022 में अपना कार्यकाल पूरा कर चुके सदन में शिवसेना खेमे के 100 पार्षदों में से 50 को एकनाथ शिंदे का धड़ा अपने पाले में ले गया.

साल 2017 में अविभाजित शिवसेना ने अकेले चुनाव लड़ा था और 227 सीटों में से 84 सीटों पर जीत दर्ज की थी. वहीं, भाजपा बढ़कर 82 सीटों पर पहुंच गई, मगर वह राज्य स्तर के अपने साझीदार को नाराज करना नहीं चाहती थी. लिहाजा 1985-92 तक हुकूमत करने के बाद बीएमसी में शिवसेना की दूसरी पारी साल 1997 से 2022 तक बढ़ गई. वार्डों के परिसीमन और जातिगत कोटों को लेकर कानूनी विवादों की वजह से 2017 से बीएमसी के चुनाव नहीं हुए हैं. अब लड़ाई यह तय करने को लेकर है कि अगले चुने हुए प्रतिनिधि कौन होंगे.

खास बातें

कांग्रेस को लग रहा है कि एमवीए में एमएनएस के आने के बाद उत्तर भारतीय वोट उससे दूर हो जाएंगे

कांग्रेस को यह भी अंदेशा है कि उद्धव ठाकरे उसके दलित और मुस्लिम वोटों को अपने पाले में कर सकते हैं 

कामकाजी तबके के मराठी अविभाजित शिवसेना का मूल आधार थे. भाजपा अगड़ी जातियों के मराठियों और गुजराती, मारवाड़ी, जैन और उत्तर भारतीय सरीखे गैर-मराठी धड़ों के आसरे है

आठ साल के अंतराल के बाद बीएमसी चुनाव होने वाले हैं. इसमें जीत दर्ज करना यूबीटी के लिए बेहद जरूरी है

दरअसल, 74,000 करोड़ रुपए के बजट के साथ बीएमसी भारत का सबसे धनवान नागरिक निकाय है

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