बिहार चुनाव : नीतीश की राजनीति में टिकाऊपन आखिर कहां से आता है?
अगर नीतीश यह चुनाव जीतते हैं, तो इतिहास उन्हें बिहार के सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले सुधारक नेता के रूप में याद करेगा और अगर हारते हैं, तो उनकी कहानी एक चेतावनी बन जाएगी

आसमान का धूसर रंग चिंता का सबब था लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 1 नवंबर को लगातार रोड पर थे, उस रोज उन्होंने चार चुनावी सभाएं कीं. इनमें से एक थी वैशाली जिले की महनार सीट के जन्दाहा में, जहां से उनकी पार्टी जद (यू) (जनता दल-यूनाइटेड) के प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा चुनाव लड़ रहे हैं.
झक सफेद कुर्ते में 74 साल के नीतीश मंच पर पहुंचे और वे थके हुए सत्तर पार नेता जैसे बिल्कुल नहीं लगे, जैसा उनके विरोधी उन्हें दिखाना चाहते हैं. मंच पर उन्होंने मुस्कुराते हुए माला स्वीकार की और सामने बैठे भीड़ को देखा, जिसमें ज्यादातर महिलाएं थीं, कुछ पुराने समर्थक और कुछ उत्साही युवा. नीतीश ने अपने जाने-पहचाने अंदाज में भाषण शुरू किया: ''आप तो जानते ही हैं...’’
उनकी आवाज में दो दशक की सत्ता और बरसों का चुनावी अनुभव साफ झलक रहा था. फिर वे सीधे मुद्दे पर आ गए. उन्होंने अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाईं: सड़कें, स्कूल, गांव-गांव में बिजली के खंभे. और उसी सांस में 'जंगलराज’ की वापसी का अंदेशा जताते हुए कहा कि गलती हुई तो हालात फिर पुराने दौर में लौट सकते हैं. उन्होंने याद दिलाया कि लालू यादव के शासनकाल में शुरुआती 2000 के दशक में बिहार किन तनावों से गुजरा था, और फिर शालीन लहजे में कहा कि एक और कार्यकाल नहीं, बल्कि बीस साल पहले शुरू की गई विकास यात्रा को पूरा करने का सिर्फ मौका दीजिए.
विपक्ष पर संदेह जताने के बाद नीतीश कुमार ने उस मुद्दे पर बात घुमाई जो अब उनकी सियासी पहचान का अहम हिस्सा बन चुका है: महिलाओं का सशक्तीकरण. उन्होंने पुलिस और सरकारी नौकरियों में महिलाओं को मिले आरक्षण की याद दिलाई, लेकिन इस बार उनका सबसे बड़ा सहारा है 'दशहजारी योजना’ यानी मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना, जिसके तहत चुनाव से ठीक पहले हर पात्र महिला (कुल 1.21 करोड़) को 10,000 रुपए दिए जा रहे हैं ताकि वह कोई छोटा बिजनेस शुरू कर सके. यह योजना उनके उस वोट बैंक को मजबूत करने का जरिया है जो जाति से लगभग परे और सीधा नीतीश के काम से जुड़ा हुआ है.
जब नीतीश बोल रहे थे, तब भीड़ में बैठी कई महिलाओं ने हाथ उठाकर समर्थन जताया. उनमें ज्यादातर जीविका समूह की सदस्य थीं. उनमें से कुछ को पैसे मिल चुके थे, तो कुछ को मिलने की उम्मीद थी. महिलाओं ने बताया कि उन्होंने इस पैसे से नए कपड़े और दीवाली की मिठाई खरीदी और कुछ ने माइक्रो लोन का कुछ हिस्सा चुकाया. ये छोटे-छोटे खर्चे अब चुनावी भाषा में 'सशक्तीकरण की अर्थव्यवस्था’ बन गए हैं. मंच पर थोड़ी देर बाद जद (यू) के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा ने माइक संभाला और भीड़ से कहा: ''ये पैसा नहीं लौटाना है!’’ यानी यह तो तोहफा है.
नीतीश का समीकरण
ढाई दशकों में नीतीश कुमार नौ बार बिहार के मुख्यमंत्री बन चुके हैं. इनमें से सात बार वे भाजपा के साथ, और दो बार लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव की पार्टी राजद के साथ सत्ता में रहे. अब फिर से वे एनडीए का चेहरा बनकर तेजस्वी के महागठबंधन के युवा जोश के सामने खड़े हैं. नीतीश की राजनैतिक टिकाऊ शक्ति आखिर कहां से आती है? वजह साफ है: बिहार के बड़े वोट ब्लॉकों में अब भी राजद के प्रति एक झिझक है. पार्टी अभी भी 'जंगलराज’ की पुरानी छवि से बाहर नहीं निकल पाई है. इसके उलट, इसी वर्ग के लिए नीतीश का दौर एक स्थिर और बेहतर वक्त की याद दिलाता है. खासकर महिलाओं और अति पिछड़े वर्गों (ईबीसी) के बीच नीतीश का भरोसा मजबूत है क्योंकि उन्होंने इन वर्गों को शिक्षा, रोजगार और सामाजिक गतिशीलता के ठोस मौके दिए.
इसी भरोसे पर एनडीए का चुनावी आधार भी टिका है. 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को मिले वोटों की गणना के मुताबिक, वह 243 विधानसभा सीटों में से 176 पर बढ़त की स्थिति में दिखता है. हां, कभी-कभी भ्रष्टाचार के आरोप या काम से निराशा की बातें भी उठती हैं, लेकिन यह असंतोष तेज विरोध में नहीं बदलता. नवादा के एक बुजुर्ग मुस्लिम कहते हैं, ''विकल्प ही क्या है?’’ फिर जोड़ते हैं कि उनका परिवार तेजस्वी को वोट देगा.
जद (यू) का एक नेता इस बात को समझाते हुए कहता है, ''सर्वे में भले नीतीश की लोकप्रियता घटती दिखे, लेकिन जैसे ही किसी और चेहरे को सीएम विकल्प के तौर पर रखा जाता है, उनकी रेटिंग फिर बढ़ जाती है.’’ यही नीतीश के आकर्षण का विरोधाभास है: शिकायतें हैं, पर भरोसा भी उन्हीं पर है. शायद भाजपा ने भी यह समझ लिया है. लंबे समय तक असमंजस में रहने के बाद अब पीएम नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के शीर्ष नेता खुलकर नीतीश को सीएम उम्मीदवार के रूप में समर्थन दे रहे हैं.
जद (यू) खुद भी उतना ही टिकाऊ साबित हुआ है जितने उसके नेता नीतीश कुमार. उसे 2020 के चुनाव में भले मात्र 43 सीटें मिलीं, जो सत्ता में आने के बाद की उसकी सबसे खराब परफॉर्मेंस थी, लेकिन उसने अपने 115 उम्मीदवारों वाले क्षेत्रों में 32.8 फीसद वोट हासिल किए. यह तब था जब भाजपा के कुछ वोट चिराग पासवान की ओर खिसक गए थे. यह आंकड़ा दिखाता है कि पार्टी का एक मजबूत कोर वोट बैंक अब भी कायम है और यही वजह है कि बिहार की राजनीति में नीतीश अब भी भाजपा के अहम सहयोगी बने हुए हैं.
एनडीए ने भी इस बार अपने कदम तेजी से बदले. जब तेजस्वी यादव ने 28 अक्तूबर को महागठबंधन का घोषणापत्र जारी किया, जिसमें हर परिवार से एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी, महिलाओं को 2,500 रुपए की मासिक पेंशन, और शराबबंदी कानून की समीक्षा जैसी बातें थीं तो एनडीए ने तुरंत अपना गियर बदल लिया. सिर्फ तीन दिन बाद, 31 अक्तूबर को एनडीए ने अपना संकल्प पत्र जारी किया, जिसमें 1 करोड़ नौकरियों और 1 करोड़ महिलाओं को 'लखपति’ बनाने का वादा किया गया.
दिलचस्प बात यह है कि खासकर सामाजिक सुरक्षा, पेंशन, मुफ्त बिजली और सरकारी नौकरियों में स्थानीय उम्मीदवारों को प्राथमिकता जैसे मुद्दों पर तेजस्वी पहले ही नीतीश पर विपक्ष के आइडिया चुराने का आरोप लगा चुके थे. लेकिन ज्यादा निष्पक्ष नजर से देखें, तो नीतीश ने इन्हीं आइडियाज को वास्तविक योजनाओं और डीबीटी (डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर) के जरिए जमीन पर उतार दिया. और इससे सत्ता-विरोधी लहर की धार कमजोर पड़ जाती है जो एनडीए के लिए राजनैतिक बढ़त है.
गठबंधन और गणित
प्रदेश में भाजपा ने चुनावी माहौल की कमान पूरी तरह अपने हाथ में ले ली है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद लीड कर रहे हैं, पूरे राज्य के अहम जिलों में में रोडशो और रैलियों की झड़ी लगी है.
गृह मंत्री अमित शाह रणनीतिक कमांडर की तरह काम कर रहे हैं, कानून-व्यवस्था का एजेंडा तेज कर रहे हैं और संगठन को बारीकी से मैनेज कर रहे हैं. वहीं पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, पूरे बिहार में घूमकर स्थानीय गठबंधनों को जोड़कर एक बड़ी कहानी बनाने में जुटे हैं. भाजपा की संगठनात्मक पकड़ अब भी बेहद मजबूत है.
पार्टी ने पूरे राज्य को पांच ऑपरेशनल जोन में बांट दिया है, हर इलाके के लिए 'प्रवासी प्रमुख’ नियुक्त किए गए हैं, और पंचायत व बूथ स्तर की समितियों को कॉर्पोरेट जैसे अनुशासन के साथ फिर से सक्रिय किया गया है. उनका माइक्रो-टारगेटेड कैंपेन साफ दिखता है. वॉलंटियर्स के पास मतदाता सूची है, शिकायत ट्रैकिंग सिस्टम हैं, घर-घर जाकर वोटर से संपर्क किया जा रहा है. बिहार के बड़े हिस्सों में यह अभियान अब व्यवस्थित मशीनरी की तरह चलता हुआ नजर आ रहा है.
गठबंधन की इंजीनियरिंग भी उतनी ही बारीकी से की गई है. सबसे अहम रहा चिराग पासवान और उनकी लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) की वापसी. इस सुलह को सहज बनाने के लिए नीतीश कुमार ने छठ पूजा के दौरान खुद चिराग के घर जाकर मुलाकात की, और चिराग ने सार्वजनिक तौर पर नीतीश के पैर छूकर आशीर्वाद लिया. इन प्रतीकात्मक इशारों का मकसद था 2020 की कड़वाहट मिटाना और साथ ही एनडीए के भीतर भरोसा बहाल करना.
चिराग की मौजूदगी कई सीटों पर वोटों का 2-4 फीसद झुकाव तय कर सकती है, खासकर वहां जहां दलित/पासवान वोट बैंक मजबूत है. इसी तरह, उपेंद्र कुशवाहा और उनकी राष्ट्रीय लोक मोर्चा की एनडीए में वापसी ने ओबीसी समीकरण का एक और टुकड़ा- कुशवाहा समुदाय- जोड़ दिया है.
लेकिन चुनौतियां अब भी मौजूद हैं. महागठबंधन के अलावा, प्रशांत किशोर का 'जन सुराज’ अभियान भी एनडीए के लिए चिंता का कारण है. वह युवा और प्रवासी मजदूर वर्ग के वोट में सेंध लगा सकता है, जो आम तौर पर एनडीए की तरफ झुकते हैं. फिर, बीस साल से सत्ता में रहने की थकान भी है. सरकारी मदद और रेवड़ियों से लोगों को कुछ राहत तो मिलती है, लेकिन ये लंबे समय की उम्मीदों का जवाब नहीं हैं. और आखिर में, जहां मुकाबला त्रिकोणीय है, वहां एक और मुश्किल है. राजद विरोधी वोट बंट सकते हैं.
कमान नीतीश के हाथ
महिलाओं और ईबीसी के बीच नीतीश के लंबे समय से चल रहे संपर्क कार्यक्रम अब ठोस वोट बैंक में बदल चुके हैं. भले उनकी सेहत को लेकर अफवाहें उड़ती रहती हैं, लेकिन जनता की नजर में उनकी छवि अब भी एक स्थिर और भरोसेमंद नेता की है.
उनके भाषण भी अब दोहरी भूमिका निभाते हैं. एक तरफ वे अपने पुराने कामों की झलक दिखाते हैं, तो दूसरी तरफ बेहतर भविष्य का वादा भी करते हैं. यह एक संरक्षक नेता की भाषा है: हमने अब तक संभाला है, हमें थोड़ा और वक्त दीजिए.
अगर नीतीश यह चुनाव जीतते हैं, तो इतिहास उन्हें बिहार के सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले सुधारक नेता के रूप में याद करेगा: कमियों के साथ, लेकिन एक मिसाल के तौर पर. और अगर हारते हैं, तो उनकी कहानी एक चेतावनी बन जाएगी: एक ऐसे नेता की, जिसने खुद को इतनी बार बदला कि उसकी पहचान ही उसका सहारा भी बनी और खतरा भी. पर नतीजा चाहे जो हो, इस चुनाव के बाद बिहार की राजनीति की भाषा जरूर बदल जाएगी. राज्य अपने राजनैतिक इतिहास का एक नया अध्याय खोलने जा रहा है.
एनडीए ने खुद को अच्छी तरह ढाल लिया है और उनका संकल्प पत्र महागठबंधन के सामाजिक सुरक्षा के चुनावी वादों से कहीं आगे नजर आता है