प्रधान संपादक की कलम से

बीस साल से सत्ता में रहने के बाद, उम्र और ऐंटी-इनकम्बेंसी दोनों का असर नीतीश कुमार पर दिखने लगा है

इंडिया टुडे अंक- 12 नवंबर 2025
इंडिया टुडे अंक- 12 नवंबर 2025

 - अरूण पुरी

भारत में सियासी खानदानों की कमी नहीं लेकिन यह कहानी थोड़ी अलग है. इसमें दिलचस्पी इसलिए ज्यादा है क्योंकि इसके केंद्र में हैं लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव. लालू सिर्फ अपनी राजनीति से नहीं, बल्कि अपनी शख्सियत से भी एक अलग तरह के नेता थे. जब लालू पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने, उस वक्त तेजस्वी महज चार महीने के थे.

उस वक्त उन्होंने 'मंडल’ के नारे के साथ एक ऐसा दौर शुरू किया था जिसने बिहार की राजनीति की दिशा ही बदल दी. पैंतीस साल बाद वह बेटा उसी कुर्सी के सबसे करीब पहुंच गया है. महागठबंधन ने उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया है. वे अब नीतीश कुमार की अगुआई वाले एनडीए के खिलाफ चुनावी मुकाबले में चेहरा हैं. इस आखिरी पड़ाव तक पहुंचने के लिए तेजस्वी ने अपनी रणनीति में सामाजिक और आर्थिक दोनों तत्वों का संतुलन रखा है.

उनकी योजना एक नए 'इंद्रधनुषी’ जातीय गठजोड़ पर टिकी है, जो उस मंडल फॉर्मूले का एक बड़ा और अपडेटेड संस्करण है, जिसने कभी लालू की सत्ता को सहारा दिया था. इसके साथ ही उन्होंने रोजगार और कल्याण पर बड़ा दांव लगाया है, ऐसा एजेंडा जो 7.4 करोड़ मतदाताओं, खासकर युवाओं की चिंताओं और उम्मीदों को सीधा छूता है.

जैसे-जैसे बिहार चुनाव अपने रोमांचक मोड़ पर पहुंच रहा है, अंतिम समीकरण अब भी एक पहेली बने हुए हैं. लेकिन हालात के मेल से तेजस्वी यादव ने इस वक्त चुनावी बढ़त हासिल कर ली है. नीतीश कुमार ऐसा नाम हैं, जिसे हर दौर के नेता अपने साथ देखना चाहते रहे हैं.

बिहार के दोनों बड़े राजनैतिक गठबंधन उनके साथ रहकर फायदे में रहे हैं. लेकिन अब बीस साल से सत्ता में रहने के बाद, उम्र और ऐंटी-इनकम्बेंसी दोनों का असर नीतीश पर दिखने लगा है. इसके अलावा एनडीए ने अब तक उन्हें औपचारिक तौर पर मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में घोषित नहीं किया है, जिससे उनका राजनैतिक भविष्य अधर में लटका हुआ है.

बिहार में एनडीए की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के पास भी नीतीश के बराबर कद वाला कोई नेता नहीं है. ऐसे अनिश्चित माहौल में वोटिंग से दो हफ्ते पहले महागठबंधन की स्पष्ट रणनीति ने पूरे चुनावी मैदान को हिला दिया है.

तेजस्वी यादव की विरासत उनके लिए ताकत भी है और चुनौती भी. एनडीए ने लालू के 'जंगलराज’ के डर को फिर से जिंदा करने की पूरी कोशिश की है, जो बिहार की यादों में अब भी गहराई से बैठा है. सालों तक इसी डर ने एक तरह की पलट प्रतिक्रिया को जन्म दिया: सवर्ण जातियों में जिनकी पुरानी पकड़ यादव राजनीति ने तोड़ी थी, और गैर-यादव पिछड़ी व अतिपिछड़ी जातियों में जो पिछले दो दशकों से नीतीश के साथ खड़ी रहीं.

यही मनोवैज्ञानिक बाधा अब तेजस्वी के लिए एक बड़ा गणितीय चैलेंज बन गई है. राजद का पुराना मुस्लिम-यादव (एम-वाइ) आधार करीब 32 फीसद है, जो मजबूत तो है लेकिन अपने आप में पर्याप्त नहीं, जब तक 36 फीसद ईबीसी और 20 फीसद दलित वोटों का बड़ा हिस्सा साथ न आए.

क्या तेजस्वी इस खाई को पाट पाएंगे और उन वर्गों की झिझक तोड़ पाएंगे जो अब भी राजद से दूरी बनाए रखते हैं? तेजस्वी इस कमजोरी को समझते हैं, इसलिए वे बार-बार दोहराते हैं कि उनके राज में कोई गलत काम बर्दाश्त नहीं होगा, चाहे गलत करने वाले उनके सबसे करीबी लोग ही क्यों न हों.

तेजस्वी के इस बदलाव वाले वादे की बुनियाद है उनका 'ए टू जेड’ जातीय फॉर्मूला. इसका मकसद है राजद के पुराने मुस्लिम-यादव (एम-वाइ) गठजोड़ को एक बड़े, सर्वसमावेशी सामाजिक ढांचे में बदलना, जिसमें हर जाति को जगह और सम्मान मिले. तेजस्वी के साथ महागठबंधन ने विकासशील इंसान पार्टी के मुखिया, 'मल्लाह के बेटे’ मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम का चेहरा बनाया है.

मल्लाह भले ही लगभग दो फीसद हों लेकिन बिहार के नदी किनारे फैले इलाकों में उनकी मौजूदगी पूरे राज्य में फैली है. यह कदम सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि एक बड़ा सामाजिक संदेश भी देता है. तेजस्वी ने साफ कहा है कि सरकार बनने पर और भी ईबीसी और दलित चेहरों को अहम जिम्मेदारियां दी जाएंगी.

राजद ने इस बार आधे से ज्यादा टिकट गैर-एम-वाइ उम्मीदवारों को दिए हैं, और 23 महिला उम्मीदवारों को उतारा है, जो सभी पार्टियों में सबसे ज्यादा है. इस सामाजिक समीकरण को मजबूती दे रहे हैं कांग्रेस नेता राहुल गांधी, जिन्होंने अपने 'आंबेडकरवादी सामाजिक न्याय’ और 'वोट चोरी’ अभियान के जरिए कांग्रेस के पुराने वोट बैंक में फिर से जान डाली है. पार्टी के बिहार अध्यक्ष राजेश राम रविदासिया दलित समुदाय (करीब 5 फीसद आबादी) से हैं, और इस बार कांग्रेस को 2020 की तरह कमजोर कड़ी नहीं माना जा रहा.

एनडीए के लुभावने चुनावी वादों को टक्कर देने के लिए तेजस्वी ने ऐलान किया है कि जिन परिवारों में कोई सरकारी नौकरी नहीं है, उन्हें राज्य की नौकरी दी जाएगी. बिहार जैसे राज्य में, जहां बेरोजगारी ने लाखों लोगों को दूसरे राज्यों में पलायन करने पर मजबूर कर दिया है, यह वादा बेहद असरदार साबित हो सकता है. हालांकि इस वादे की लागत करीब 12 लाख करोड़ रुपए बताई जा रही है, जो बिहार के सालाना बजट से चार गुना ज्यादा है.

इसी वजह से एनडीए ने इसे ''आर्थिक दिवास्वप्न’’ कहकर खारिज कर दिया है. बिहार में जीत और हार अक्सर बहुत मामूली अंतर से तय होती है. 243 सीटों में से करीब 50 सीटों पर जीत का फासला 5,000 वोटों से भी कम रहता है. 2020 में तेजस्वी की अगुआई में महागठबंधन सिर्फ 12,000 वोटों से एनडीए से पीछे रह गया था. अब वे दूसरी पारी में उसी जोश और आत्मविश्वास के साथ मैदान में हैं लेकिन इस बार और ज्यादा समझदार और परिपक्व नजर आ रहे हैं.

कभी क्रिकेट में हाथ आजमाने वाले तेजस्वी का फर्स्ट क्लास क्रिकेट में सबसे बड़ा स्कोर 19 रहा था. राजनीति में अब उन्हें सौ से ज्यादा सीटें जीतकर 122 के बहुमत के आंकड़े तक पहुंचना है. क्या वे कामयाब होंगे? इस हफ्ते की आवरण कथा बिहार के इस दिलचस्प मुकाबले को तेजस्वी के व्यक्तित्व के जरिए समझते हुए इसी सवाल पर रोशनी डालती है. इंडिया टुडे के सीनियर एडिटर अमिताभ श्रीवास्तव कहते हैं, ''बेशक, यह राजद के इस युवा नेता के करियर की सबसे बड़ी परीक्षा है.’’

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