बिहार चुनाव: कौन जीतेगा शाहाबाद के बाईस सीटों की बाजी?

बिहार में 22 सीटों वाला शाहाबाद का इलाका पिछले दो चुनावों से NDA के लिए हार लेकर आया है. यहां भाकपा-माले के साथ आने से महागठबंधन अजेय बना है. देखने वाली बात ये होगी कि यहां से कौन चुनाव जीतता है.

Assembly Election: Bihar
BJP में शामिल होने के बाद उपेंद्र कुशवाहा के साथ पवन सिंह

तीस सिंतबर, 2025 को जब भोजपुरी सिंगर पवन सिंह ने भाजपा की सदस्यता ली और राष्ट्रीय लोक मोर्चा के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा से गले मिलते नजर आए तो राजनीतिक जानकारों ने माना कि यह दांव भाजपा का मास्टर स्ट्रोक साबित होने वाला है.

हाल के कुछ वर्षों में भाजपा और एनडीए के लिए करारी शिकस्त लेकर आने वाले शाहाबाद (भोजपुर, बक्सर, कैमूर और रोहतास) के इलाके में अब बाजी पलट सकती है. मगर इस घटना के लगभग 15 दिन पहले इसी शाहाबाद के डुमरांव में हुई एक अन्य घटना पर लोगों का ध्यान नहीं गया.

उस रोज वहां के विधायक अजीत सिंह कुशवाहा ने अपने पांच साल के कार्यकाल की रिपोर्ट जारी की. अजीत भाकपा-माले के सदस्य हैं और 2020 में डुमरांव से पहली बार विधायक बने. उस चुनाव में न सिर्फ अजीत बल्कि उनकी पार्टी के चार लोगों ने इस इलाके से जीत का परचम फहराया था. क्षेत्र में मजबूत मानी जाने वाली भाकपा-माले का पिछले बीस वर्षों में यह सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था.

वजह यह थी कि उस साल पार्टी ने पहली बार अपनी गठबंधन की राजनीति का हिस्सा न बनने की नीति में बदलाव किया और महागठबंधन में शामिल हुई. उसे 19 सीटें मिलीं और उनके 12 चेहरे चुनाव जीत गए. इनमें से चार इसी शाहाबाद इलाके के थे.

2024 के लोकसभा चुनाव में फिर उन्हें इस इलाके की चार में से दो सीटें मिलीं और वे दोनों जीत गए. भाकपा-माले ने इन पांच वर्षों में न सिर्फ अपने लिए महत्वपूर्ण सफलता हासिल की बल्कि उनके साथ रही गठबंधन की पार्टियों को भी इस इलाके में अच्छा-खासा लाभ मिला.

2020 के विधानसभा चुनाव में 22 सीटों वाले शाहाबाद में राजद को 11 और कांग्रेस को चार सीटें मिलीं. भाजपा सिर्फ दो सीटें जीत पाई और 2010 के चुनाव में इस इलाके में आठ सीटें जीतने वाला जदयू अपना खाता भी खोल नहीं पाया. हालांकि, अक्सर जानकार इस इलाके में भाकपा-माले की मजबूत पकड़ और उसके साथ आने की वजह से यहां मजबूत हुई महागठबंधन की स्थिति पर ध्यान नहीं देते.

अजीत सिंह कुशवाहा के रिपोर्ट कार्ड जारी करने के बाद भाकपा-माले के दूसरे विधायकों ने भी बारी-बारी से अपना रिपोर्ट कार्ड जारी किया और बताया कि पिछले पांच वर्षों में उन्होंने अपने क्षेत्र की जनता के लिए क्या-क्या किया है. उन्हें इस चुनाव में भी शाहाबाद की पांच सीटें मिली हैं और वे फिर से उन्हें जीतने की तैयारी कर रहे हैं.

भाकपा माले नेता दीपांकर भट्टाचार्य और डुमरांव के विधायक अजीत सिंह कुशवाहा

वैसे तो शाहाबाद का नाम महज चार साल के लिए दिल्ली की गद्दी संभालने और उस दौर में अपने शासन की अमिट छाप छोड़ने वाले शेरशाह के नाम पर रखा गया बताया जाता है. मगर यह आबाद सोन के पानी की वजह से है. कहते हैं कि 1857 में जब यहां के जनप्रिय शासक वीर कुंअर सिंह ने अपने बुढ़ापे में अंग्रेजों के राज के खिलाफ विद्रोह किया तो बाद में अंग्रेजों को लगा कि इस विद्रोही इलाके को शांत करने का सबसे कारगर तरीका इसे विकसित करना होगा. इसलिए यहां उन्होंने नहरों का जाल बिछाया, जिनसे खेतों तक पानी तो आता ही था, साथ ही उनमें नावें भी चलती थीं. 

ऐसे में शाहाबाद का इलाका खेती के लिहाज से संपन्न होने लगा और इसे धान का कटोरा कहा जाने लगा. आज भी भोजपुर और रोहतास जिले की सीमा पर संचालित हो रहीं दर्जनों राइस मिल इसकी गवाही देती हैं. मगर इस संपन्नता के बीच यहां सामंतशाही भी विकसित हुई. जमीन के मालिक संपन्न हुए और भूमिहीन मजदूर वंचित होते चले गए. इसी विषमता के बीच यहां के भोजपुर जिले में जमीन के लिए भूमिगत संघर्ष शुरू हुआ. 

इसी संघर्ष से जुड़े लोगों ने बाद के दिनों में इंडियन पीपल्स फ्रंट नाम की पोलिटिकल पार्टी बनाई जो आगे चलकर भाकपा-माले में बदल गई. जमीन के सवाल पर लड़ने वाली इस पार्टी का यहां के गरीबों के साथ गहरा नाता जुड़ा. इस पार्टी से 2024 में भोजपुर सीट से सांसद चुने जाने वाले सुदामा प्रसाद कहते हैं, ''इस इलाके में चले जमीन के संघर्ष ने गरीब-गुरबों को गोलबंद किया, उन्हें राजनीतिक ताकत दी. उन्हें अपनी हैसियत का एहसास भी कराया.

हम बारहों महीने, चौबीसों घंटे उनके साथ रहते हैं. हमें विधायक और एमपी भी इन्हीं लोगों ने बनाया. हमारी गतिविधि भी उनके श्रम की कमाई से ही चलती है. वे हमलोगों को खाना खिलाते हैं, चंदा देकर चुनाव लड़वाते हैं. हम इलेक्टोरल बॉंन्ड नहीं लेते हैं. हम जनता का नमक खाते हैं और उन्हीं का काम करते हैं.’’

वे आगे कहते हैं, ''पिछले चुनाव में हमने कूपन जारी किया था, बीस रुपए का, 50 रुपए का और सौ रुपए का. और वोटरों ने चंदा देकर हमें चुनाव लड़वाया. आपको ताज्जुब होगा कि जिस घर में रोज की मजदूरी तीन सौ रुपए है, उसके लोगों ने हमसे सौ रुपए का कूपन कटवाया. हमारे यहां इस तरह चुनाव लडऩे के लिए लगभग 50 लाख रुपए जमा हुए. यही हमारी ताकत है.’’


खैर यह कहानी तो भाकपा-माले की है, जिसने 2020 में गठबंधन की राजनीति में उतरने का फैसला करके यहां की राजनीति को ही बदल दिया. इससे पहले इस इलाके में सवर्णों का दबदबा हुआ करता था. सासाराम की सुरक्षित सीट को छोड़ दें तो यहां ब्राह्मण और राजपूत का ही राज चलता था. फिर चाहे वह समाजवाद की धारा ही क्यों न हो जिसकेअगुआ रामानंद तिवारी, उनके पुत्र शिवानंद तिवारी और जगदानंद सिंह थे.

मगर 2020 से 2024 के बीच यहां के नेतृत्व में भी सवर्णों को धीरे-धीरे रिप्लेस किया जा रहा है. कुशवाहा और वैश्य जैसी जातियां अपनी जगह बना रही हैं. इसे यहां के विधायकों और सांसदों की सूची में देखा जा सकता है. यह बदलाव भी ऐसा है जिसे भाजपा और एनडीए समझ पा रहे हैं. इसलिए भाजपा पवन सिंह के पार्टी में आ जाने भर से आश्वस्त नहीं है.

भाजपा ने 2024 लोकसभा चुनाव के पहले पवन सिंह को एनडीए उम्मीदवार उपेंद्र कुशवाहा के खिलाफ निर्दलीय रूप से लड़ने के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया था. इस इलाके के बड़े भाजपा नेता संतोष पाठक, जो पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष भी हैं, कहते हैं, ''लोगों को भले लगे मगर पवन सिंह उतने बड़े फैक्टर थे नहीं.

हमें नुक्सान उनकी वजह से नहीं बल्कि लोजपा और रालोसपा की वजह से हुआ. इन लोगों ने जगह-जगह हमारा वोट कम किया. मगर इस बार ये दो पार्टियां भी हमारे साथ हैं. इसका फायदा हमें मिलेगा. इस इलाके के समीकरण को ध्यान में रखते हुए हम लोगों ने टिकट का वितरण इस बार ठीक से किया है. अमित शाह जी ने हमें यह टास्क दिया था. हमने कई सीटों को चिह्नित करके वहां के संगठन को मजबूत किया है. हम तो संगठन वाली पार्टी हैं, उसी पर काम करते हैं.’’

वे कहते हैं, ''ठीक है कि पिछले विधानसभा चुनाव में हमें सिर्फ दो सीटें-आरा और बड़हरा की मिलीं. मगर आज हमारे साथ इस इलाके के सात विधायक हैं. बसपा से चुनाव जीतने वाले जमा खान शुरुआत में ही जदयू के साथ आ गए. फिर उपचुनाव हुआ तो हमने रामगढ़ और तरारी की सीटें जीत लीं. अभी चुनाव से पहले भभुआ विधायक भरत विंद और मोहनिया से संगीता देवी ने भाजपा की सदस्यता ली है. उनके साथ उनका वोट भी इस बार हमारे साथ आया है. इसके अलावा हमने कुछ उम्रदराज लोगों को बदलकर नए प्रत्याशी भी दिए हैं.’’

संतोष पाठक कहते हैं, ''जहां तक भाकपा-माले का सवाल है, उनका प्रभाव गरीबों में जरूर है, मगर हर इलाके में उनका असर नहीं है. वे भोजपुर जिले के कुछ छोटे इलाकों में ही मजबूत हैं. फिर हमारी सरकार की नीतियों और योजनाओं का लाभ हर वर्ग को मिला. चाहे वह महिला रोजगार योजना हो, बिजली बिल फ्री करने की घोषणा हो या वृद्धों, विधवाओं और दिव्यांगों की पेंशन को बढ़ाया जाना हो. इन सबका लाभ सभी गरीबों को मिलेगा. वे हमारे साथ आएंगे.’’

इस चुनाव में शाहाबाद में भाजपा ने नौ सीटों पर अपने प्रत्याशी दिए हैं, जदयू ने आठ, लोजपा (रा) ने तीन और रालोमो (राष्ट्रीय लोक मोर्चा) ने दो सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं.

इस इलाके में एक बड़ा बदलाव यह है कि 2010 में महज तीन विधानसभा सीटें जीतने वाला राजद 2015 में जदयू के साथ आने के बाद यहां मजबूत हुआ है. 2015 में इसने दस सीटें जीतीं और 2020 में 11. इस साल वह 13 सीटों पर चुनाव लड़ रहा है. इस इलाके में राजद से इस बार शिवानंद तिवारी के पुत्र राहुल तिवारी और जगदानंद सिंह के पुत्र अजीत सिंह तो मैदान में हैं ही, इसके साथ कई ऐसे नेता हैं जो पिछड़ी-अति पिछड़ी जाति से आते हैं.

आरा में राजद से जुड़े महेश यादव कहते हैं, ''इस इलाके में जमीन के लिए संघर्ष करने वाली पार्टी भाकपा-माले का पहले और मजबूत आधार था. लालू जी के उभार के बाद उसके समर्थक बड़ी संख्या में हमारी तरफ आए तो हम यहां मजबूत हुए. पहले वे अलग लड़ते थे, हम अलग. इसलिए एनडीए जीत जाती थी. मगर अब हम दोनों साथ हैं. निश्चित तौर पर राजद का वोट बेस बड़ा है. मगर माले के पास जितने भी वोटर हैं, वे उनके साथ मजबूती से खड़े हैं. हिलने वाले नहीं हैं. हर विधानसभा में हैं. रोहतास के इलाके में थोड़ी मजबूत दिख रही कांग्रेस का भी साथ मिल रहा है. इसलिए महागठबंधन काफी मजबूत है.’’ 

वे कहते हैं, ''ऐसा नहीं है कि पवन सिंह का कोई असर नहीं रहा. पिछले चुनाव में वे खड़े हुए तो उसकी वजह से कुशवाहा वोटर हमारे साथ आया, क्योंकि उन्हें लगा कि पवन सिंह उनका नुन्न्सान कर रहे हैं. इस चुनाव में पवन सिंह अगर खुद लड़ते तो उसका ज्यादा असर होता.’’

जगजीवन राम की जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों रहने की वजह से यह इलाका दलित राजनीति का भी केंद्र रहा है. उन्होंने और उनकी पुत्री मीरा कुमार ने लंबे समय तक सासाराम की सीट का प्रतिनिधित्व किया. हालांकि बाद में भाजपा भी वहां जीती. मगर रविदास जाति में आज भी कांग्रेस की पकड़ है और सासाराम की सीट इस बार कांग्रेस को हासिल हुई है. रविदास जाति से आने वाले राजेश राम के कांग्रेस अध्यक्ष बनने का भी लाभ है. इस बार पार्टी को इस इलाके से चार सीटें मिली हैं.

हालांकि इस क्षेत्रके सीमावर्ती इलाकों में रविदास जाति बसपा के भी प्रभाव में रहती है. 2005 में यहां से बसपा ने तीन सीटें जीती थीं, 2020 में भी उसे एक सीट पर जीत मिली. राज्य में बसपा इस बार भी शाहाबाद की 13 सीटों पर चुनाव लड़ रही है.
इसी बीच जदयू और लोजपा में रह चुके बाहुबली नेता सुनील पांडे ने अपने बेटे विशाल प्रशांत के साथ भाजपा की सदस्यता ली है.

इन बदली परिस्थितियों में एनडीए के लिए राह कैसी रहेगी, यह बड़ा सवाल है. डेहरी ऑन सोन के वरिष्ठ पत्रकार उपेंद्र मिश्र कहते हैं, ''इस बार बदलाव आएगा. हमारे यहां से सिटिंग विधायक फतेह बहादुर का टिकट राजद ने काट दिया है, ऐसे में कुशवाहा वोटर जो पिछली बार राजद के साथ थे, इस बार शायद पार्टी का साथ न दें. पिछली बार इस इलाके में यादव, महतो और कुशवाहा साथ थे. इस बार उपेंद्र कुशवाहा की वजह से भी यह समुदाय एनडीए के साथ रहेगा. नीतीश जी की योजनाओं का भी असर निश्चित तौर पर है. भोजपुर में सुनील पांडे के साथ आने का भी फायदा निश्चित तौर पर एनडीए को मिलेगा.’’

2020 के विधानसभा चुनाव में शाहाबाद से सिर्फ 2 सीटें जीत पाने वाली भाजपा कैसे निबटेगी मजबूत महागठबंधन से?

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